दलितों को मरने के लिए भी जमीन नहीं
६ मार्च २०२०पिछले साल दलितों का वीडियो वायरल हुआ था जिसमें वे लोग रस्सी के सहारे शव को पुल से नीचे उतार रहे थे. दक्षिणी तमिलनाडु के इलाके में ऊंची जाति के समुदाय ने दलितों को अपनी जमीन से शवयात्रा निकालने से रोक दिया था. इसे लेकर काफी हो हल्ला मचा. दूसरे राज्यों में भी कई बार दलितों को शवों के अंतिम संस्कार के लिए कई दिनों तक इंतजार करना पड़ता है. ऐसे मामलों में जगह का मामला सुलझने के बाद ही अंतिम संस्कार होता है.
दलितों के अधिकार की बात करने वाले संगठन नेशनल फेडरेशन ऑफ दलित लैंड राइट्स के महासचिव ललित बाबर का कहना है, "हमारे पास घर और रोजगार के लिए तो जमीन पहले ही नहीं थी. अब मरने के लिए भी जमीन नहीं मिल रही है. हमने कई राज्यों में अभियान चलाया है कि या तो हमारे पारंपरिक श्मशान हमें लौटाए जाएं या फिर हमें नई जमीन दी जाए."
भारत में जाति के आधार पर भेदभाव को 1955 में ही कानून बना कर रोक दिया गया लेकिन दलित समेत निचले वर्ग के लोगों के प्रति उच्च वर्गों की दुर्भावना के चलते उन्हें शिक्षा, रोजगार और आवास से वंचित रहना पड़ता है.
जनसंख्या के आंकड़ों से पता चलता है कि देश में निचले तबके की आधी से ज्यादा आबादी भूमिहीन है. कई राज्यों में दलितों को जमीन देने के लिए कानून बनाए गए हैं लेकिन दलित कार्यकर्ता और नेता बताते हैं कि कम ही राज्यों ने इस पर अमल किया है.
इस बीच बढ़ती आबादी के कारण मकान, हाइवे, एयरपोर्ट और उद्योग के लिए जमीन पर दबाव बढ़ता जा रहा है. इसी कारण विवाद भी हो रहे हैं और इसका खामियाजा किसानों और निचले वर्ग को सबसे ज्यादा उठाना पड़ रहा है.
ग्रामीण इलाकों में जातियों को लेकर दुर्भावना सबसे ज्यादा नजर आती है. बाबर का कहना है कि यहां दलितों के श्मशान की जमीन भी गांव के प्रभुत्वशाली लोगों ने छीन ली है. बाबर ने बताया, "जहां हमारे पास जमीन है वहां भी बिजली और पानी की सुविधा नहीं है या फिर हमें गांव से हो कर शव को ले जाने नहीं दिया जाता."
दलित अधिकार गुटों के ताजा अभियान के बाद महाराष्ट्र में प्रशासन ने दलित आबादी को अंतिम संस्कार के लिए जमीन के छोटे छोटे टुकड़े मुहैया कराए हैं. दलित कार्यकर्ता लंबे समय से मांग कर रहे हैं कि हर दलित परिवार को 5 एकड़ की जमीन दी जाए जो उनके घर और खेती के लिए पर्याप्त होगी.
तमिलनाडु में वीडियो वायरल होने के बाद अदालत की सुनवाई में प्रशासन ने कहा कि दलितों के खिलाफ कोई भेदभाव नहीं है. हालांकि वहां तथाकथित पंचामी भूमि को लेकर लंबे समय से विवाद चला आ रहा है. यह जमीन दलितों को ब्रिटिश राज के दौर में दी गई थी. तब करीब 12 लाख एकड़ जमीन दलितों को मुहैया कराई गई थी लेकिन मानवाधिकार गुटों के मुताबिक अब इनमें से महज 10 फीसदी जमीन ही दलितों के पास है.
अपनी जमीन नहीं होने के कारण दलितों को अपने परिजनों का अंतिम संस्कार नदी किनारे या सार्वजनिक जमीन पर करना पड़ता है. साउथ इंडिया कोएलिशन फॉर लैंड राइट्स के संयोजक रिचर्ड देवादॉस का कहना है, "जमीन के बगैर ना उनके पास ताकत है, ना सम्मान यहां तक कि मरने के बाद भी."
एनआर/आईबी (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
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