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अन्याय के खिलाफ उठ रहे हैं भारत के दलित

फैसल फरीद
१३ अप्रैल २०१८

भारत में दलितों का उत्पीड़न और उन पर राजनीति आम है. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से दलितों के खिलाफ अपराध के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. लेकिन अब दलित राजनीति और समुदाय में उफान दिख रहा है.

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Indien Mindestens sechs Tote bei Protesten der niedrigsten Kaste
तस्वीर: Reuters/A. Verma

बीते दिनों कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिनसे दलित उत्पीड़न की बात सामने आई. लेकिन हमेशा की तरह ये दब कर नहीं रह गई. इनकी गूंज पूरे देश में सुनाई पड़ी, दलित समाज आंदोलित हुआ. मौजूदा दौर का दलित बिलकुल बदल चुका है, वह संघर्ष करने को तैयार है. उसको अब दलित होने की ग्लानि नहीं है. वह सीधे तौर पर खुल कर खुद के घर पर "द ग्रेट चमार" का बोर्ड लगाता है. जूही प्रकाश एक दलित युवती हैं और राजनीति में हैं. आगरा में रहने वाली जूही प्रकाश ने 2 अप्रैल के भारत बंद का समर्थन किया. उन्होंने बिना झिझक के अपने फेसबुक प्रोफाइल पर लिखा, "आरक्षण विरोधी और बहुजन विरोधी मेरी आईडी से बाहर निकलें, मुझे कचरा नहीं चाहिए."

भारत के राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के अनुसार दलितों के खिलाफ अपराध लगातार बढ़ रहे हैं. हर 15 मिनट पर किसी दलित को अपराध का सामना करना पड़ता है. हर दिन छह दलित महिलाएं बालत्कार का शिकार होती हैं. पिछले 10 सालों में दलित महिलाओं के बलात्कार के मामले दोगुने हो गए हैं. 2007 से 2017 के बीच अपराध के मामलों में 66 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. पिछले 4 सालों में इन मामलों में और तेजी आई है.

परंपरा या भेदभाव

एक ताजा प्रकरण संजय जाटव की बारात का है. संजय की शादी कासगंज जनपद के गांव निजामपुर में 20 अप्रैल को होनी तय हुई. संजय ने ऐलान किया कि वे अपनी बारात गांव के अंदर से घोड़ी पर बैठकर निकालेंगे. गांव में ठाकुर जाति के लोगों द्वारा आपत्ति की गई और गांव में ऐसी कोई परंपरा न होने का हवाला दिया गया. बारात में दलित युवक का घोड़ी चढ़ कर बारात निकालने पर परंपरा का हवाला देकर रोक लगा दी गई.

Indien Mindestens sechs Tote bei Protesten der niedrigsten Kaste
तस्वीर: Reuters/C. McNaughton

उत्तर प्रदेश में बारात निकालने को बारात चढ़ाना कहते हैं. कुछ दशक पहले ऐसी घटनाएं दब जाती लेकिन संजय अपनी बारात चढ़ाने पर अड़ गए. मामला पुलिस, प्रशासन और फिर अदालत तक पंहुचा. इसका हल निकालने के लिए स्थानीय प्रशासन को कहा गया. आखिरकार 8 अप्रैल को प्रशासन ने उनको बारात चढ़ाने की अनुमति दी. अधिकारियों ने दोनों पक्षों के बीच समझौता कराया और बारात का रास्ता तथा अन्य शर्तें तय कर बाकायदा एक समझौते पर दस्तखत कराए गए. रास्ता सार्वजानिक है, किसी एक समुदाय का नहीं हैं. फिर भी संजय ने बताया कि उनको अभी भी जान से मारने की धमकी दी जा रही है.

दलित चिंतक कंवल भारती इस ट्रेंड को समय की मांग मानते हैं. वे बताते हैं, "देखिए, कुछ व्यवस्था ऐसी बनाई गई, जिसमें दलित हमेशा से प्रताड़ित रहा.  घोड़ी पर चढ़ना एक प्रतीक मात्र है. गुजरात में एक दलित की हत्या सिर्फ इस वजह से कर दी गई क्योंकि वह घोड़ी पर चढ़ा था. कासगंज में संजय लड़ गया. अब दलितों को अधिकारों का बोध है, इसीलिए संघर्ष हो रहा है."

सुलग रहा है गुस्सा

हाल का दलित आंदोलन पिछले तमाम संघर्षो से अलग है. सीधे तौर पर इसका कारण सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम पर फैसले को माना जा रहा है. लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव का मानना है कि 2 अप्रैल को भारत बंद दलितों के सुलगते गुस्से का स्वत: स्फूर्त विस्फोट था. इस बंद का आवाहन किसी एक दल ने नहीं किया था. यह खबर सोशल मीडिया के जरिए फैली. बंद को समर्थन भले नई उभरी भीम सेना और मायावती की बहुजन समाज पार्टी के अलावा अन्य विपक्षी दलों से मिला, लेकिन कोई एक संस्था ऐसी नहीं थी, जो पूरा दावा कर सके. इसने सबको अपनी चपेट में ले लिया.

Indien Mindestens sechs Tote bei Protesten der niedrigsten Kaste
तस्वीर: Reuters/M. Sharma

ये दलितों के आंदोलन का ही असर रहा कि केंद्र सरकार ने कोर्ट में रिव्यु पेटीशन डाली और भाजपा के चार दलित सांसद खुल कर विरोध में आ गए. नगीना से यशवीर सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र में लिख दिया कि पिछले चार साल में कुछ नहीं हुआ. रोबर्ट्सगंज के छोटेलाल ने आरोप लगाया की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उनकी समस्या नहीं सुनी और डांट कर भगा दिया. छोटेलाल खुद भाजपा की एससी/एसटी के प्रदेश इकाई के अध्यक्ष हैं. बहराइच की सांसद सावित्रीबाई फुले ने आरक्षण को बचाने के लिए लखनऊ में रैली की और केंद्र सरकार पर जम कर निशाना साधा. उनकी रैली में रंग भगवा नहीं नीला था. इटावा के अशोक दोहरे ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर भारत बंद के बाद दलितों को पुलिस द्वारा प्रताड़ित करने का आरोप लगाया. यह इसलिए संभव हुआ कि दलित नेताओं पर अपने समाज के आक्रोश को पढ़ने का दबाव था.

पिछले सालों में दलितों पर अत्याचारों के मामलों पर काबू के लिए सख्त कानून बने हैं, लेकिन उनके बावजूद अपराध बढ़ रहे हैं. अंबेडकर महासभा के अध्यक्ष लालजी निर्मल का मानना है कि अब दलितों की नई पीढ़ी आ चुकी है, जिसमें आक्रोश है. ये पीढ़ी ग्रामीण परिवेश से बाहर निकल चुकी है और इनमें भय खत्म हो चुका है, इसीलिए इनमें उत्पीड़न का विरोध मुखर है. उनका मानना है कि कोर्ट का आदेश और फिर जब तब उठती बहस कि आरक्षण को हल्का किया जाएगा, इन सबने दलितों को सड़कों पर आने को मजबूर कर दिया.