दक्षिण अफ्रीका: पहली बार बहुमत खो सकती है मंडेला की पार्टी
३० मई २०२४शुरुआती रुझानों में 30 साल से सत्ता में रही अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) पहली बार अपना संसदीय बहुमत खोती नजर आ रही है. सर्वेक्षणों के मुताबिक, एएनसी को सरकार बनाने के लिए गठबंधन कायम करना पड़ सकता है. चुनाव से पहले हुए सर्वेक्षणों में भी एएनसी का वोट प्रतिशत 50 फीसदी से कम रहने के संकेत मिल रहे थे.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक, 23 हजार से ज्यादा मतदान केंद्रों में अभी करीब 8.5 फीसदी स्टेशनों के ही नतीजे आए हैं. इनमें एएनसी को 41.77 फीसदी, डेमोक्रैटिक अलायंस (डीए) को 27.52 प्रतिशत और मार्कसिस्ट इकोनॉमिक फ्रीडम फाइटर्स पार्टी (ईएफएफ) को 7.72 फीसदी वोट मिले हैं. चुनाव आयोग के मुताबिक, आखिरी नतीजे 2 जून तक आने की उम्मीद है.
क्यों ऐतिहासिक था 1994 का चुनाव?
1948 में शुरू हुआ अपार्थाइड या रंगभेद अश्वेत आबादी के साथ नस्ली भेदभाव की एक संस्थागत व्यवस्था थी. अपार्थाइड शब्द का मतलब ही है भिन्नता. इस सिस्टम के तहत दक्षिण अफ्रीका के लोगों को चार श्रेणियों में बांटा गया था: वाइट, कलर्ड, इंडियन और ब्लैक. ये श्रेणियां जीवनस्तर से लेकर जीवन के अलग-अलग पक्ष, मसलन आप कहां रह सकते हैं, किस तरह के काम कर सकते हैं भी तय करती थीं. इनमें सबसे खराब स्थिति ब्लैक समुदाय की थी.
रंगभेद के इस "अस एंड दैम" सिस्टम में ब्लैक समुदाय राजनीतिक और सामाजिक तौर पर अलग-थलग रखा जाता था. 1950 में आए "ग्रुप एरिया ऐक्ट" के तहत उनके रहने के इलाके बंटे हुए थे. वो कहां रह सकते हैं, कहां काम कर सकते हैं, यह प्रशासन की अनुमति पर निर्भर था. अलग-अलग श्रेणियों के लिए बने "ग्रुप एरियाज" में सिर्फ एक नस्ल विशेष के ही लोग रह सकते थे.
इसी तरह एजुकेशन ऐक्ट के तहत स्कूलों का भी बंटवारा था. ब्लैक समुदाय के लिए तय स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता सबसे खराब थी. उन्हें मजदूरी के लिए तैयार किया जाता था. वाइट और ब्लैक समुदाय के लोग आपस में शादी नहीं कर सकते थे. "इममोरैलिटी लॉ" के अंतर्गत श्वेत समुदाय और बाकी श्रेणियों के बीच शादियां या प्रेम संबंध गैरकानूनी थे.संसाधनों से भरपूर देश में बहुसंख्यक आबादी होकर भी ब्लैक समुदाय सबसे गरीब और उपेक्षित था. वो ना केवल राजनीतिक और सामाजिक, बल्कि आर्थिक भेदभाव और शोषण के भी शिकार थे.
30 साल पहले 27 अप्रैल 1994 को हुए ऐतिहासिक आम चुनाव में देश के ब्लैक नागरिकों ने पहली बार वोट डाला. नेल्सन मंडेला पहले ब्लैक बने, जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति पद की शपथ ली. रंगभेद के लंबे दशकों में अन्याय, भेदभाव, नस्लवाद और शोषण से गुजरते हुए एक बड़ी लंबी लड़ाई लड़कर ब्लैक समुदाय इस पड़ाव को हासिल कर पाया था.
एएनसी की विरासत और भविष्य के सवाल
1994 से अब तक हर पांच साल बाद दक्षिण अफ्रीका में चुनाव होते आए हैं और मंडेला की पार्टी एएनसी ही जीतती आई है. हालांकि, बाद के सालों में एएनसी का समर्थन घटता रहा. जानकारों के मुताबिक बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अर्थव्यवस्था की धीमी रफ्तार और बिजली की किल्लत जैसे मुद्दों के कारण उपजी निराशा ने एएनसी से मोहभंग की स्थिति पैदा की है. देश में बेरोजगारी दर करीब 32 फीसदी है. ऐसे में युवा मतदाता खासतौर पर राजनीतिक नेतृत्व में बदलाव पर जोर देते हुए नजर आए हैं.
संसाधनों के बंटवारे में भी यहां काफी असमानता है. विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, दक्षिण अफ्रीका सबसे असमान देशों में से एक है. रंगभेद खत्म होने और ब्लैक समुदाय को राजनैतिक प्रतिनिधित्व मिलने के बावजूद सबसे ज्यादा गरीबी और बेरोजगारी इसी वर्ग में है. इसके अलावा बढ़ते अपराध भी एक बड़ी चिंता का विषय हैं. हत्या के मामले दो दशकों के सबसे ऊंचे स्तर पर हैं. पुलिस डेटा के मुताबिक, औसतन हर 20 मिनट पर देश में एक हत्या होती है. पिछले वित्त वर्ष के दौरान अगवा किए जाने की घटनाओं में लगभग 42 फीसदी बढ़ोतरी हुई.
क्या है चुनाव व्यवस्था?
दक्षिण अफ्रीका की संसद में 490 सीटें हैं. भारत की ही तरह यहां भी दो सदन हैं. निचले सदन को नेशनल असेंबली कहा जाता है, जिसमें 400 सीटें हैं. नेशनल काउंसिल ऑफ प्रोविंसेज ऊपरी सदन है और इसके लिए सभी नौ प्रांतों से 10-10 प्रतिनिधि चुने जाते हैं. चुनाव आयोग की देखरेख में हर पांच साल बाद चुनाव होते हैं. मतदाताओं को राष्ट्रीय और प्रांतीय, दो बैलेट पर वोट डालना होता है. मतदाता सीधे पार्टियों के लिए वोट देते हैं, ना कि उम्मीदवार को. मतों में मिले हिस्से के हिसाब से पार्टियों को संसद में सीट मिलती है.
नेशनल बैलेट के नतीजों की घोषणा के बाद नेशनल असेंबली में राष्ट्रपति को चुना जाता है. इसके लिए निचले सदन के 400 सांसद आपस में से ही किसी एक को चुनते हैं. बहुमत के लिए 201 वोट चाहिए. 1994 में हुए ऐतिहासिक चुनाव से बाद यह दक्षिण अफ्रीका का सातवां चुनाव है. इस बार करीब पौने तीन करोड़ मतदाता पंजीकृत हैं. चुनाव आयोग के मुताबिक, यह अब तक की सबसे बड़ी संख्या है.
अनुमान है कि बहुमत ना होने पर भी एएनसी के सिरिल रामाफोसा फिर से राष्ट्रपति चुन लिए जाएंगे. हालांकि, इसके लिए एएनसी को अन्य पार्टियों से भी समर्थन लेना पड़ सकता है. जैकब जूमा के इस्तीफे के बाद फरवरी 2018 में रामाफोसा ने सत्ता संभाली थी. अगर वह फिर राष्ट्रपति चुने जाते हैं, तो यह उनका आखिरी कार्यकाल होगा. यह भी कयास लगाया जा रहा है कि एएनसी को बहुमत ना मिलने की स्थिति में अन्य विपक्षी दल हाथ मिला सकते हैं. हालांकि, दोनों प्रमुख विपक्षी दल डीए और ईएफएफ विचारधारा के स्तर पर भी एक-दूसरे की धुर-विरोधी हैं.