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सुंदरबन के द्वीपों के साथ डूबते राजनेताओं के वादे

प्रभाकर मणि तिवारी
१७ मई २०१९

पश्चिम बंगाल में दक्षिण 24-परगना जिले के घोड़ामारा समेत कई द्वीप जलवायु परिवर्तन और समुद्र का जलस्तर बढ़ने की वजह से खतरे में हैं. आम दिनों में तो यहां के बाशिंदो को कोई पूछता नहीं लेकिन चुनाव में जरूर पूछ बढ़ जाती है.

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Sundarbans Mangrovenwälder Indien
तस्वीर: DW/P. Mani Tiwari

कोलकाता से महज कुछ सौ किलोमीटर दूर इन द्वीपों में कुछ का बड़ा हिस्सा तो पानी में भी समा चुका है. अमूमन राजनेता इन द्वीपों पर रहने वालों की कोई फिक्र नहीं करते, लेकिन चुनावों के मौसम में उनकी पूछ कुछ बढ़ जाती है. इनमें से ज्यादातर द्वीप उस मथुरापुर संसदीय क्षेत्र में हैं जहां आखिरी चरण में 19 मई को मतदान होना है.

इन द्वीपों पर रहने वालों का भी नेताओं व राजनीतिक दलों से मोहभंग हो चुका है. कई द्वीपों पर तो वोटर इतने कम हैं कि कोई उम्मीदवार प्रचार करने भी नहीं जाता. घोड़ामारा द्वीप पर रहने वाले दीपंकर कयाल समेत सैकड़ों लोगों ने तो आज तक अपने सांसद तक को भी नहीं देखा है. ऐसे में अपनी समस्या क्या कहेंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी इसी सप्ताह यहां चुनावी रैलियां कर चुके हैं. लेकिन इन दोनों में से किसी ने भी सुदंरबन के डूबते द्वीपों के बारे में एक शब्द तक नहीं कहा. यह दोनों नेता एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में ही व्यस्त रहे.

Sundarbans Mangrovenwälder Indien
तस्वीर: DW/P. Mani Tiwari

जलवायु परिवर्तन मुद्दा नहीं

सुदंरबन इलाका जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित है. इलाके के कुछ द्वीप पानी में डूब चुके हैं और घोड़ामारा जैसे कई द्वीप भी डूब रहे हैं. लेकिन पहले के तमाम चुनावों की तरह अबकी भी पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन कोई मुद्दा नहीं है. असल में इन द्वीपों पर वोटरों की तादाद इतनी कम है कि राजनीतिक दलों को उनकी कोई परवाह ही नहीं है. मिसाल के तौर पर घोड़ामारा में महज साढ़े तीन हजार वोटर हैं.

दीपंकर कयाल कहते हैं कि चुनावों के दौरान तमाम राजनीतिक दल बड़े-बड़े वादे करते हैं, लेकिन चुनावों के बाद कोई भूले से भी इधर नहीं झांकता. वह बताते हैं, "इन द्वीपों में लोकसभा उम्मीदवार कभी वोट मांगने नहीं आते. जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर उनके स्थानीय प्रतिनिधि ही लोगों को संबंधित उम्मीदवार को वोट डालने के लिए धमकाते या प्रोत्साहित करते हैं.” कयाल को उम्मीद नहीं है कि इस बार भी चुनाव के बाद कुछ बदलेगा. वह कहते हैं, "पर्यावरण के शरणार्थी बनना हमारी नियति है. कोई भी इसे बदल नहीं सकता.”

घोड़ामारा द्वीप कोलकाता से लगभग डेढ़ सौ किमी दक्षिण में  है. किसी दौर में यह लेफ्ट का गढ़ था. लेकिन वर्ष 2009 से टीएमसी के चौधुरी मोहन जटुआ यहां से जीतते रहे हैं. जटुआ इस बार भी मैदान में हैं. कयाल और इस द्वीप पर रहने वाले ज्यादातर लोग मछली पकड़ने का जाल बुन कर और मछली मार कर परिवार के लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करते हैं. कई बार उनको मुख्य भूमि पर जाकर मजदूरी भी करनी पड़ती है.

घोड़ामार द्वीप पहले तीन कस्बों को मिला कर बना था, लेकिन समुद्र के लगातार बढ़ते जलस्तर की वजह से खासीमारा और लोहाचारा नाम के दो कस्बे पानी में समा चुके हैं. द्वीप की खेती की जमीन भी तेजी से समुद्र में समा रही है. वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से समुद्र का जलस्तर बढ़ने के कारण सुंदरबन इलाके के 54 द्वीपों के अस्तित्व पर खतरा लगातार बढ़ रहा है. इन द्वीपों की जमीन धीरे-दीरे पानी में समा रही है.  नौ वर्गकिलोमीटर का यह द्वीप बीते कुछ वर्षों में घट कर आधा रह गया है.

इसी इलाके में स्थित मौसुनी द्वीप के वोटर जब रविवार को अंतिम दौर के चुनाव में अपना वोट डालने के लिए मतदान केंद्रों तक पहुंचेंगे तो बिजली, पानी और सड़क जैसे आधारभूत मुद्दे उनकी चिंता का विषय नहीं होंगे. यह लोग इस बार मौसुनी को बंगाल की खाड़ी में डूबने से बचाने की उम्मीद में वोट देंगे. मथुरापुर संसदीय क्षेत्र में बसे 24 वर्गकिलोमीटर में फैले इस द्वीप में बिजली, सड़क और पानी के दर्शन दुर्लभ हैं. हालांकि इस द्वीप के लोगों के लिए यह चुनाव वजूद की लड़ाई बन गया है. जिस तेजी से यह द्वीप समुद्र में समा रहा है उससे यह तय करना मुश्किल है कि अगले लोकसभा चुनाव तक यह बचेगा भी या नहीं.

द्वीप के गोपाल मंडल कहते हैं, "हमें सड़क, पानी, बिजली या दूसरी कोई सुविधा नहीं चाहिए. हम चाहते हैं कि इस बार यहां से जीतने वाला सांसद इस द्वीप को बचाने के लिए समुद्र तट पर तटबंध बनवा दे.” मंडल के परिवार के पास इस डूबते द्वीप पर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. बीते साल कोई पांच सौ लोग यहां से सुरक्षित स्थानों पर जा चुके हैं. बीते साल अक्तूबर में द्वीप पर बना तीन किलोमीटर लंबा तटबंध टूट गया था. उसके बाद समुद्र के खारे पानी ने इलाके में खेत और उसमें खड़ी फसलों को लील लिया. अब खारे पानी के चलते वह जमीन उपजाऊ नहीं रही.

जादवपुर विश्वविद्यालय के समुद्र विज्ञान विशेषज्ञ तूहिन घोष कहते हैं, "इलाके में भूमि कटाव की समस्या पर अंकुश लगाने के लिए कई उपाय हैं. इनमें सबसे बेहतर उपाय मैंग्रोव पेड़ों की तादाद बढ़ाना है. इस पेड़ की जड़ें मिट्टी को बांध कर कटाव से रोकती हैं.”

मौसुनी द्वीप के जलालुद्दीन बताते हैं, "पहले की लेफ्टफ्रंट सरकार हो या फिर अब टीएमसी की, किसी ने इन द्वीपों को बचाने की कोई पहल नहीं की है. विकास के नाम पर कहीं सड़कें बना दी जाती हैं तो कहीं पीने के पानी के लिए डीप ट्यूबवेल, लेकिन यहां तो जीना ही सबसे बड़ी समस्या है.” स्थानीय लोगों का आरोप है कि मनरेगा के तहत कुछ लोगों के कार्ड जरूर बने हैं लेकिन उनको काम नहीं मिलता है और काम मिला भी तो समय पर पैसे नहीं मिलते. जलालुद्दीन कहते हैं, "अब तो सरकार अगर हमें कहीं और बसा कर हमारे लिए रोजगार की व्यवस्था करे तभी जान बच सकती है.” लेकिन किसी भी राजनीतिक दल की इन बातों में दिलचस्पी नहीं है. बावजूद इसके इलाके के लोग रविवार को वोट डालने निकलेंगे. शायद स्थानीय दादाओं के डर से. हालांकि कोई इस बात को कबूल नही करता.

निवर्तमान टीएमसी सांसद चौधुरी मोहन जटुआ कहते हैं, "राज्य सरकार ने इन द्वीपों को बचाने के लिए केंद्र को कई पत्र लिखे हैं. लेकिन केंद्र इस मामले पर चुप्पी साधे बैठा है. यह काम अकेले राज्य सरकार के बस का नहीं है.” यहां उनके मुकाबले सीपीएम के शरत हाल्दार मैदान में हैं और बीजेपी के श्यामा प्रसाद हाल्दार. इन दोनों का आरोप है कि राज्य सरकार को सुदंरबन के द्वीपों पर रहने वालों के वोट तो चाहिए, लेकिन इनकी समस्याओं पर उसका कोई ध्यान नहीं है. हालांकि यह दोनों नेता भी यह नहीं बताते कि वह क्या कर सकेंगे. श्यामा प्रसाद हाल्दार कहते हैं, "मैं संसद में यह मुद्दा उठाऊंगा. "

जलालुद्दीन कहते हैं, "हम तो मजबूरी में वोट डालने जाते हैं.” राजनेताओं के हवाई वादे सुनते हुए उनको पचास साल बीत गए. वह कहते हैं कि स्थानीय लोगों का राजनीति से मोहभंग हो चुका है. अगर राजनीति करेंगे तो परिवार का पेट कैसे भरेंगे ? यह सवाल इन द्वीपों पर रहने वाले उन हजारो लोगों का है जो तेजी से पर्यावरण के शरणार्थी बनते जा रहे हैं. लेकिन इनके लिए कुछ करने की बजाय तमाम राजनीतिक दल अपनी सियासी रोटियां सेंकने में जुटे हैं.

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