बाघ के जबड़े में जाने को मजबूर सुंदरबन की विधवायें
११ सितम्बर २०१७यह घटना 14 फरवरी 2014 की है. गीता के मुताबिक बाघ ने इस कदर तेजी से झपट्टा मारा कि बाकी लोग समझ ही नहीं पाये कि क्या करें. उनके पति की लाश भी नहीं मिल पायी. गीता ने कहा, "मेरे पति के जाने के बाद, मैं पूरी तरह से बेसहारा हो गयी. मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं और परिवार को कैसे चलाऊं?"
भारत-बांग्लादेश सीमा पर पड़ने वाला सुंदरबन नेशनल पार्क पश्चिम बंगाल में है और यह अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के लिए जाना जाता है. घने मैन्ग्रोव और समृद्ध वन्यजीवन यहां की पहचान है. लेकिन इसके आसपास के इलाके में रहने वाले गीता जैसे लोगों के लिए यह नेशनल पार्क मुश्किलों और मुसीबतों से ज्यादा कुछ नहीं है.
सुंदरबन दुनिया में सबसे ज्यादा बाघों की आबादी वाला इलाका है लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रहा कटाव इंसानी आबादी को लगातार बाघों के जबड़े में धकेल रहा है. शोधकर्ताओं का अनुमान है कि हर साल, 50 मछुआरे या शहद जमा करने वाले बाघों के हमले में मारे जाते हैं.
घर चलाने वाले व्यक्ति की मौत के बाद परिवार की पूरी जिम्मेदारी महिलाओं पर आ जाती है. पश्चिम बंगाल में ऐसी महिलाओं को "बाघ विधवा" कहा जाता है. यहीं नहीं, समाज में इन महिलाओं को अपने पति की मौत के लिए जिम्मेदार माना जाता है. इस तरह के सामाजिक कलंक की वजह उन्हें अकसर काम मिलने में भी बहुत परेशानियां होती हैं.
सुंदरबन रुरल डेवलपमेंट सोसाइटी (एसआरडीएस) के अर्जुन मंडल कहते हैं, "समाज से बहिष्कृत किये जाने के डर से ये महिलाएं अपने आप में ही खोयी रहती हैं और अपनी जिंदगी को ऐसे जीती है कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं है." एसआरडीएस ने मछुआरों और उनके परिवारों की मदद से 2006 से 2016 के बीच एक सर्वे कराया. इससे पता कि चला कि सिर्फ लाहिरीपुर नाम की जगह पर 260 परिवारों ने घर के रोजी रोटी कमाने वाले शख्स को खोया है.
पहले ऐसी महिलाएं अपने पतियों की मौत के बाद झींगों की पैदावार और छोटी मोटी खेती बाड़ी के जरिए अपना गुजारा चला लेती थीं. लेकिन समुद्र के बढ़े जलस्तर और फैलती जनसंख्या के कारण इस डेल्टा के इकोसिस्टम पर दबाव बढ़ रहा है.
फिलहाल सुंदरबन में 45 लाख लोग रहते हैं. लेकिन यहां ऊपजाऊ जमीन समंदर में समा रही है, मैन्ग्रोव सिमट रहे हैं और तट का लगातार कटाव हो रहा है. ऐसे में इन विधवाओं के सामने गुजारे का एक ही जरिया बचता है कि वे भी जंगल के उस पानी में मछली पकड़ने जायें जहां उनके पति मारे गये थे. दस साल पहले बाघ के हमले में अपने पति को खोने वाली अलापी मंडल कहती हैं, "एक बार खारा पानी अपनी बाड़ को तोड़ कर आपकी जमीन में घुसने लगता है तो वह जमीन को हमेशा के लिए बंजर कर देता है."
अर्जुन मंडल और गीता मृधा की तरह अलापी भी दक्षिणी 24 परगना जिले के लाहिरीपुर से हैं. अर्जुन मंडल पिछले साल तक अपनी जमीन पर फसल और सब्जी उगाते थे. लेकिन फिर समंदर का खारा पानी उनकी जमीन और घर को निगल गया.
गीता के पास तो कभी खेती बाड़ी करने के लिए जमीन ही नहीं थी. पति की मौत के बाद वह मुश्किल गुजारा चल रही हैं. उनके बच्चे अब 11 और 9 साल के हो गये हैं. उनकी पढ़ाई का खर्चा भी उन्हें उठाना है. 2015 में गीता ने 10 महिलाओं के साथ एक समूह बनाया और मिलकर वे जंगल में जाने लगीं. गीता बताती हैं, "मैं अपने बच्चों को भूखा तो नहीं मार सकती हूं. इसीलिए मैंने जंगल में जाने का फैसला किया."
इनमें से कोई भी महिला नहीं चाहती कि उनके बच्चे भी उनकी तरह गरीबी और खतरे के कुचक्र में फंसें. गीता कहती हैं, "मैंने उनसे कह दिया है कि शिक्षा ही इस सबसे निकलने का अकेला तरीका है. इसलिए मैं हमेशा उनसे कहती हूं कि पढ़ाई पर ध्यान लगाओ."
बहुत सी महिलाओं का कहना है कि अगर उन्हें अपने परिवार की दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने के लिए कोई और काम मिल गया तो वे जंगल में जाना छोड़ देंगी. वे भी अपनी जिंदगी को जोखिम में नहीं डालना चाहती हैं और अपने बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताना चाहती हैं.
लेकिन इन बाघ विधवाओं के लिए सामाजिक कलंक और खेती की जमीन न होने की वजह यह सपना पूरा होता नहीं दिखता. इन महिलाओं की परेशानियों को देखते हुए एसआरडीएस के अर्जुन मंडल ने एक क्राउड फंडिंग मुहिम शुरू की है. इसका मकसद इन महिलाओं के लिए रोजी रोटी के सुरक्षित तरीके तलाशने में मदद करना है. अभी तक उनके पास सिर्फ साढ़े सात हजार रुपये जमा हुए हैं. वह कहते हैं, "हम सभी नेकदिल लोगों से अपील करते हैं कि वे इन परिवारों की तरफ मदद का हाथ बढ़ायें."
एके/एनआर (रॉयटर्स)