विधायिका और न्यायपालिका आमने सामने
१० सितम्बर २०१३हालात लगभग वही हैं, सिर्फ तथ्य बदले हैं. उस समय टकराव संविधान की सर्वोच्चता को लेकर था तो इस बार राजनीतिक बिरादरी के वजूद को लेकर है. उस समय लगभग 20 साल तक विधायिका और न्यायपालिका के बीच चले अघोषित शीत युद्ध की पृष्ठभूमि में सिद्धांत की लड़ाई थी, जबकि आज विशुद्ध रुप से यह अहं की लड़ाई है. संसद के खत्म हुए मानसून सत्र में नेताओं के उद्गार बताते हैं कि उनके लिए संसद की सदस्यता बरकरार रखना सर्वोच्च प्राथमिकता है. अब संविधान और सिद्धांत नेपथ्य में चले गए हैं.
वस्तुस्थिति क्या है
भारतीय राजव्यवस्था में शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत लागू है. इस सिद्धांत के तहत संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकारक्षेत्र की लक्ष्मण रेखा साफ साफ खींच दी गई है. इसके अनुसार कानून बनाना विधायिका का काम है, इसे लागू करना कार्यपालिका का और विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों के संविधान सम्मत होने की जांच करना न्यायपालिका काम है.
संविधान समय की मांग के मुताबिक बदला जा सके, इसके लिए उसमें संशोधन जैसा बेहद महत्वपूर्ण अधिकार विधायिका के पास है. छह दशकों से विभिन्न रुपों में चल रहे टकराव के मूल में यही वह अधिकार है जिसे विधायिका संसद की सर्वोच्चता का आधार मानने की गाहे ब गाहे भूल कर बैठती है. न्यायपालिका तभी से विधायिका को उसकी इस भूल का अहसास मात्र करा रही है.
समस्या का मूल
केशवानंद भारती के मामले में 1972 में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की अब तक की सबसे बड़ी संविधान पीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट कर दिया था कि भारत में संसद नहीं बल्कि संविधान सर्वोच्च है. अदालत ने टकराव की स्थिति को खत्म करने के लिए संविधान के मौलिक ढांचे का सिद्धांत भी पारित किया. इसमें कहा गया कि संसद ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती है जो संविधान के मौलिक ढांचे को प्रतिकूलतः प्रभावित करता हो. साथ ही न्यायिक पुनरावलोकन के अधिकार के तहत न्यायपालिका संसद द्वारा किए गए संशोधन से संविधान का मूल ढांचा प्रभावित होने की जांच करने के लिए स्वतंत्र है.
कानूनविद सुभाष कश्यप इसे ऐतिहासिक फैसला बताते हुए कहते हैं कि व्यवस्था के किसी भी अंग को निरंकुश होने से बचाने के लिए एक दूसरे पर प्रत्यक्ष या परोक्ष निगरानी रखने का अधिकार देना जरुरी है. वह कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों पर पुनर्विचार करता है और जरुरत पड़ने पर संसद कानून बनाकर उन्हें प्रभावहीन भी कर सकती है. उनके मुताबिक संसद का अपने विशेषाधिकारों के लिए असुरक्षा का भाव ही टकराव की स्थिति पैदा करता है.
टकराव का नया पड़ाव
पिछले दिनों अदालत के तीन फैसलों ने एक बार फिर टकराव की हालत पैदा कर दी है. राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने, जेल से चुनाव लड़ने के अधिकार और दोषसिद्ध सांसद या विधायक की सदस्यता खुद ब खुद खत्म होने संबंधी न्यायिक फैसलों से यह हालात उपजे हैं. इन्हें असरहीन करने के लिए सभी सियासी दलों ने अभूतपूर्व एकजुटता दिखाते हुए संसद के मानसून सत्र में तीन संशोधन विधेयक पेश कर फिर से अहं और सिद्धांत की बहस को जन्म दिया.
संसद में इन तीनों विधेयकों पर सियासी दलों की असमंजस भरी नूराकुश्ती ने इनके भीतर बैठे असुरक्षा के भाव को उजागर कर दिया. नतीजा यह निकला कि सिर्फ जेल से चुनाव लड़ने का अधिकार देने वाला संशोधन प्रस्ताव ही पारित हो पाया. जबकि आरटीआई कानून में संशोधन का प्रस्ताव संसद की स्थाई समिति को भेज दिया गया और दोषसिद्ध सदस्य की सदस्यता बहाल रखने का संशोधन प्रस्ताव शीतकालीन सत्र तक के लिए अधर में लटक गया. इधर टकराव उस समय और बढ़ा जब जनप्रतिनिधित्व कानून से जुड़े अपने फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विचार करने से इंकार कर दिया.
अब क्या होगा
जेल से चुनाव लड़ने का रास्ता संसद ने साफ कर दिया है. इस पर राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने की औपचारिकता मात्र शेष है. जबकि दो साल तक की सजा वाले अपराध के लिए दोषी ठहराए गए विधायक या सांसद के लिए फिलहाल सदस्यता जाने का संकट भी टल गया है. अदालत ने भी जेल से चुनाव लड़ने से जुड़ी पुनर्विचार याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया जबकि दोषसिद्ध अपराधी की सदस्यता खत्म होने से जुड़ी सरकार की पुनर्विचार याचिका को न सिर्फ खारिज कर दिया बल्कि दस जुलाई के फैसले को लागू करने का आदेश भी दिया है.
इस आदेश को लागू करने के लिए सरकार द्वारा अधिसूचना जारी करने की अनिवार्य शर्त सरकार ने अभी तक पूरी नहीं की है. साफ है कि सबसे पहले सदस्यता जाने के संकट से जूझ रहे राजद सुप्रीमो लालू यादव के लिए सरकार ने यह रियायत करते हुए इसका भविष्य में सियासी इस्तेमाल करने के विकल्प को खुला रखा है.
ब्लॉग: निर्मल यादव, नई दिल्ली
संपादन: महेश झा