संसद देश के लिए नहीं, अपने लिए है
२१ अगस्त २०१३संसद के किसी भी सदन कार्यवाही पर हर मिनट ढाई लाख रुपये खर्च होते हैं. सांसदों के भारी भरकम खर्चों आदि से जुड़े तमाम तथ्यों से भारत के लोग सूचना एवं संचार के इस दौर में बखूबी वाकिफ हैं. वहीं दूसरी ओर संसद सदस्य भी देश में गरीबी और मंहगाई की मार से त्रस्त जनता के दर्द से बेखबर नहीं हैं फिर भी नेता हैं कि संसद चलाने को तैयार नहीं हैं. संसद में हर दिन हंगामे की भेंट चढ़ने का दौर बदस्तूर जारी है.
मौजूदा सत्र का हाल
फिलहाल पिछले 15 दिनों से संसद का मानसून सत्र चल रहा है. जनता और सियासतदानों को इस सत्र से बड़ी उम्मीदें थीं. खाद्य सुरक्षा कानून और सूचना के अधिकार कानून सहित कुछ अहम विधेयकों पर संसद की मुहर लगने की उम्मीद की जा रही थी. लेकिन इस बार इस सत्र में अभूतपूर्व नजारा देखने को मिल रहा है. दरअसल पिछले एक दशक में संसदीय कार्यवाही का अधिकांश समय विपक्ष के शोरशराबे की वजह से नष्ट हो जाता था. लेकिन इस बार तो सत्तापक्ष ही हंगामे में लीन दिख रहा है. चौंकाने वाली इस सियासी पहल ने संसद को नई परेशानी में डाल दिया है. यह बात सही है कि मुख्य विपक्षी दल बीजेपी इस बार संसद को चलाने की रणनीति पर आगे बढ़ रही थी, क्योंकि संसद न चल पाने की वजह से खाद्य सुरक्षा कानून पारित न हो पाने की तोहमत वह अपने सिर पर नहीं लेना चाहता है. विपक्ष की इस रणनीति को नाकाम करने के लिए सत्ता पक्ष के ही सदस्य तेलंगाना, रॉबर्ट वाड्रा और दुर्गाशक्ति नागपाल जैसे मुद्दों को उठाकर विपक्ष को हंगामे के लिए उकसाते रहे.
मानसून सत्र की अहमियत
दिल्ली सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव इस साल के अंत में होने हैं. इन्हें अगले साल मई में होने वाले लोकसभा चुनाव की रिहर्सल माना जा रहा है. विधानसभा चुनावों के लिहाज से यह संसद का आखिरी सत्र है. इस सत्र में खाद्य सुरक्षा विधयेक, भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने वाले आरटीआई कानून में संशोधन का विधेयक और राज्यों के लिहाज से काफी अहम भूमि सुधार एवं अधिग्रहण कानून सहित कुल 25 नए विधेयक पेश करने का लक्ष्य तय किया गया. इन विधेयकों के राजनीतिक महत्व को देखते हुए सत्तापक्ष चाहता है कि इन्हें पारित कराने का श्रेय उसे मिले और पारित न हो पाने की स्थित में इसका कोप विपक्ष के खाते में जाए, इसलिए सत्तापक्ष थोड़े से काम के साथ हंगामे के लिए भी विपक्ष को उकसाने से बाज नहीं आ रहा है. राजनीति की इस कवायद ने संसद को वास्तव में एक ऐसा अखाड़ा बना दिया है जिसमें यह पता लगाना मुश्किल हो गया है कि कौन किसे पटखनी दे रहा है.
मानसून सत्र का एजेंडा
संसदीय कार्य मंत्रालय द्वारा तय किए गए एजेंडे के मुताबिक 5 से 30 अगस्त तक चलने वाले मानसून सत्र में कुल 16 बैठकें होनी हैं. दोनों सदनों के एजेंडे में 32 लंबित विधेयकों को विचारोपरांत पारित करना, 25 नए विधेयकों को दोनों सदनों के पटल पर रखना और इनमें से 11 को लंबित किए बिना इसी सत्र में पारित करने का लक्ष्य तय किया गया है. इनमें रेहड़ पटरी पर कारोबार करने वाले करोड़ों लोगों को कानूनी सुरक्षा देने और परमाणु सुरक्षा नियमन प्राधिकरण के गठन जैसे अहम कानून के मसौदे बहस के दौर से बाहर निकल कर पारित होने की दहलीज पर हैं. बशर्ते हंगामे की भेंट चढ़ कर फिर लंबित विधेयकों की सूची में ही न रह जाएं तो.
सौ दिन चले अढ़ाई कोस
मानसून सत्र का आधे से ज्यादा समय बीत गया है. बीते 15 दिनों में सिर्फ आरटीआई कानून में संशोधन के प्रस्ताव को लोकसभा से मंजूरी मिल पाई है. राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने वाले केन्द्रीय सूचना आयोग के फैसले को असरहीन करने के लिए यह संशोधन किया जाना है. नेताओं ने अपनी सहूलियत के लिए आम सहमति से इस संशोधन को एक सदन से मंजूरी ले ली है. हालांकि अगले सदन में पहुंचने से पहले ही सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री से मुलाकात कर संशोधन पर पुनर्विचार का अश्वासन दे दिया है. इसलिए मंगलवार को इसके राज्यसभा से पारित होने पर संदेह हो गया है. इसके अलावा कंपनी कानून में कुछ संशोधन प्रस्तावों को पारित कराने सहित अब तक मात्र 8 विधेयकों को मंजूरी मिल सकी है. कुल मिलाकर अब तक बमुश्किल दस प्रतिशत काम भी नहीं हो पाया है. आने वाले दिनों में हंगामे का दौर तेज होने की उम्मीद के चलते मानसून सत्र अपनी आधी मंजिल भी तय कर पाएगा इसमें भी शक है.
सांसद हैं कि सुधरते ही नहीं
मानसून सत्र शुरू होने से पहले सरकार और विपक्ष ने सदन को सुचारु रूप से चलाने की खूब कसमें खाई थीं. लेकिन पहले सप्ताह में असलियत पहले से भी बुरे रूप में सामने आ गई जब हंगामे के दौर में सत्तापक्ष भी शामिल हो गया. इसमें विपक्ष का हंगामा भी मिलने पर स्थिति बेकाबू दिखने लगी और तब जाकर राज्य सभा में गुस्से से तमतमाए सभापति हामिद अंसारी ने संसदीय इतिहास की सबसे कठोर टिप्पणी करते हुए सदन को अराजक लोगों का समूह करार दिया. कई दशकों से संसदीय कार्यवाहियों को कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार ने माना कि टिप्पणी कठोरतम थी लेकिन बिल्कुल मौजूं भी थी. इसके अगले ही दिन 15 अगस्त को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी संसद के हंगामेदार स्वरूप को देश के लिए शर्मनाक और चिंताजनक बताकर संसद सदस्यों को आगाह करने की कोशिश की. लेकिन इसे बेशर्मी की हद ही कहा जाएगा कि देश के दो शीर्ष व्यक्तियों की टिप्पणी पर आत्ममंथन करने के बजाए नेताओं ने उपराष्ट्रपति की टिप्पणी को ही असंसदीय करार दिया और उनके शब्दों को सदन की कार्यवाही से हटाने की मांग तक कर डाली. यह देश की समझदार जनता को यह समझने के लिए काफी है कि उसके द्वारा चुने हुए एक तिहाई प्रतिनिधि तब दागी हैं तो फिर उनसे संसद में शालीन व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती है. साफ है नेता असंसदीय आचरण को सुधारने के लिए कतई तैयार नहीं है. दुनिया जहान में भरपूर थूथू होने के बावजूद संसद सदस्य अपनी गलती मानने तक को राजी नहीं है.
ब्लॉग: निर्मल यादव, नई दिल्ली
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी