विधानसभा चुनाव नतीजों की नसीहत
१३ मई २०११राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को चुनौती दे सकने वाले तीन खेमे हैं: बीजेपी, वाम दल और प्रादेशिक दल. इन चुनावों में असम के अलावा बीजेपी लगभग गैर हाजिर है, वामपंथी खेमा कम से कम पश्चिम बंगाल में धूल चाट रहा है, और प्रादेशिक दल जहां थे, कमोबेश वहीं रह गए हैं. तृणमूल कांग्रेस की सफलता के बावजूद, क्योंकि प्रादेशिक दल होने के बावजूद तृणमूल अन्य प्रादेशिक पार्टियों के मुकाबले कहीं ज्यादा कांग्रेसी संस्कृति का हिस्सा है.
सिर्फ यही नहीं. दूसरों की कमजोरी कैसे अपनी ताकत बनती है, इसकी सबसे बड़ी मिसाल पश्चिम बंगाल में देखने को मिली है. ममता बनर्जी की भारी जीत उन पर इतनी भारी जिम्मेदारी थोपती है कि केंद्र सरकार पर उनके असर बढ़ने के साथ साथ उनकी निर्भरता भी बढ़ने वाली है. बिल्ली की नजर जिस तरह मछली पर रहती है, सिर्फ वाम मोर्चे की ही नहीं, बल्कि कांग्रेस की नजर भी उसी तरह ममता सरकार के प्रदर्शन पर होगी. भले ही वह इस सरकार में शामिल हो, जो अभी तक तय बात नहीं लगती है.
केरल और तमिलनाडु में सरकार बदलने की एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा बन चुकी है. लेकिन इस बदलाव की अलग अलग तस्वीरें उभर रही हैं. जयललिता के नेतृत्व में अन्ना डीएमके इस परंपरा को आगे बढ़ा रही है, जहां डीएमके का सफाया तो नहीं हुआ है लेकिन उसे भारी हार का मुंह देखना पड़ा है. केरल में प्रतिकूल परिस्थितियों में वाम मोर्चा जबरदस्त टक्कर देता दिख रहा है. वैसे जीत आखिरकार कांग्रेस के नेतृत्व में यूडीएफ की हो सकती है. ये बदलाव भी परंपरा की यथास्थिति की तस्वीर पेश करते हैं.
विपक्ष का सफाया असम में भी हो गया है. क्यों हुआ, इसे समझने के लिए कांग्रेस नहीं, असम गण परिषद (एजीपी) की ओर देखना काफी है. परिवर्तन की हवा असम में चल नहीं रही थी. ऐसी हालत में विपक्ष अगर लचर हालत में हो, तो सत्तापक्ष की बन आती है. और असम में कांग्रेस की बन आई है.
पुदुचेरी में कांटे की टक्कर है. एक दिलचस्प तस्वीर, लेकिन शायद इससे अधिक नहीं.
किसी भी प्रदेश में कांग्रेस किसी मार्के के नारे, कार्यक्रम या नेता के साथ सामने नहीं आई है. भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसी मनमोहन सरकार की कोई भी समस्या कम नहीं हुई है. लेकिन जो चुनौती दे सकते थे, फिलहाल बौने से दिख रहे हैं. और ऐसी हालत में कांग्रेस दैत्याकार लग रही है. कहीं अगर उसने कुछ किया है, संभावना का दरवाजा थोड़ा अगर खुला है, तो राहुल गांधी की पहल के बाद उत्तर प्रदेश में. लेकिन वहां चुनाव नहीं हो रहा है. कोई नया नारा या कार्यक्रम नहीं है. कोई नया नेता भी नहीं.
लेखक: उज्ज्वल भट्टाचार्य
संपादन: ए कुमार