भ्रष्टाचार पर सिर्फ नाटक
२६ दिसम्बर २०१३आजादी के ठीक बाद का दशक राजनीति में शुचिता के आदर्श का समय था. इस दशक के समाप्त होते होते यह सपष्ट हो चला था कि यह आदर्श अब दरकने लगा है. यह प्रक्रिया एक बार शुरू हुई तो चलती ही गयी और 1970 के दशक में एक समय ऐसा भी आया कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भ्रष्टाचार को वैश्विक परिघटना बता कर यह जताना चाहा कि यदि भारत में वह बढ़ रहा है तो इसमें बहुत ज्यादा हैरत की क्या बात है?
इसके बाद तो कभी समाजवादी रहे चंद्रशेखर ने बहुत बेबाकी के साथ घोषणा ही कर दी कि भ्रष्टाचार देश के सामने कोई मुद्दा ही नहीं है. चंद्रशेखर बाद में चार माह के लिए प्रधानमंत्री भी बने और उनकी सरकार ने भ्रष्टाचार के मामले में उस समय तक स्थापित सभी रिकॉर्ड तोड़ डाले. लेकिन इसके कुछ ही दिन बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में खड़े भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने इतनी शक्ति अर्जित कर ली कि जनता पार्टी से टूट कर बनी अधिकांश पार्टियां जनता दल के रूप में फिर से एक हो गईं और बोफोर्स तोपों की खरीद में हुए कथित घोटाले के मुद्दे पर राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस लोकसभा का चुनाव हार गई.
भ्रष्टाचार से त्राहिमाम
जब 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, तो देश की जनता को इस बात से बहुत खुशी हुई कि उनके जैसा ईमानदार व्यक्ति सरकार का मुखिया बना है और अब स्वच्छ प्रशासन की उम्मीद की जा सकती है. लेकिन उनके कार्यकाल के दौरान, विशेष रूप से दूसरे कार्यकाल में जब सरकार के ऊपर वाम दलों का अंकुश भी नहीं रह गया था, एक के बाद एक घोटाले सामने आए और उनकी सरकार में मंत्री रह चुके डीएमके के ए राजा, इसी पार्टी की सांसद कनिमोझी और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुरेश कलमाड़ी को जेल में भी रहना पड़ा.
लोगों को जिस बात से सबसे अधिक निराशा हुई वह सरकार में भ्रष्टाचार से लड़ने की इच्छाशक्ति का अभाव था. जब भी सरकार ने कोई कदम उठाया, वह मजबूर होकर ही उठाया क्योंकि अदालतों ने उसे वैसा करने के लिए निर्देश दिये थे. कोयला घोटाले में हो रही जांच तो सीधे-सीधे सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में ही की जा रही है.
हाल ही में चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बावजूद कांग्रेस ने कोई सबक नहीं सीखा है जबकि दिल्ली में आम आदमी पार्टी को मिली जीत स्पष्ट रूप से भ्रष्टाचार का विरोध करने वाली और स्वच्छ प्रशासन देने का वादा करने वाली पार्टी की जीत है. यह जीत पिछले लगभग तीन साल से चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के परिणामस्वरूप मिली है जिसका नेतृत्व शुरुआत में गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे कर रहे थे और जिसके दबाव के कारण इसी माह मनमोहन सिंह सरकार संसद में जनलोकपाल विधेयक पारित कराने में सफल हुई है.
सीबीआई को कठपुतली बनाया
एक ओर कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार भ्रष्टाचार से कारगर ढंग से निपटने के लिए लोकपाल जैसी संवैधानिक संस्था के निर्माण के लिए कानून बनवा रही है, तो दूसरी ओर वह बिना पलक झपकाए भ्रष्टाचार के आरोपियों को बचाने की खुलेआम कोशिश कर रही है. उसने चावल निर्यात घोटाले में फंसे बीस आला अफसरों के खिलाफ जांच का सीबीआई का अनुरोध ठुकरा दिया है. उधर कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन वाली महाराष्ट्र सरकार ने, जिसके मुख्यमंत्री स्वच्छ छवि वाले कांग्रेस नेता पृथ्वीराज चव्हाण हैं, आदर्श हाउसिंग घोटाले की जांच करने के लिए गठित आयोग की रिपोर्ट को खारिज कर दिया है. इस रिपोर्ट में तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों को दोषी करार दिया गया है और ये तीनों कांग्रेस के बड़े नेता हैं, सुशील कुमार शिंदे, अशोक चव्हाण और विलासराव देशमुख. इनमें से विलासराव देशमुख का निधन हो चुका है और सुशील कुमार शिंदे इस समय केंद्र सरकार में गृह मंत्री हैं. इनके अलावा भी इस घोटाले में कांग्रेस और एनसीपी के कई बड़े नेता लिप्त पाए गए हैं.
कुछ समय पहले सीबीआई ने महाराष्ट्र के राज्यपाल के शंकर नारायणन से अशोक चव्हाण और सुशील कुमार शिंदे के खिलाफ जांच करने की अनुमति मांगी थी और राज्यपाल ने उसका अनुरोध ठुकरा दिया था. कम्युनिस्ट नेता अतुल कुमार अंजान ने महाराष्ट्र सरकार के रवैये पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा है कि जनलोकपाल विधेयक पारित कराने के एक सप्ताह के भीतर ही सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोपियों को बचाने का काम शुरू कर दिया है. बीजेपी ने भी केंद्र और महाराष्ट्र सरकार के रवैये की कड़ी आलोचना की है.
कांग्रेस हाईकमान को भले ही दीवार पर लिखी इबारत नजर न आ रही हो, लेकिन पार्टी के कुछ नेताओं में इस स्थिति को लेकर बेचैनी है. मनमोहन सिंह की सरकार में राज्यमंत्री का ओहदा संभाल रहे मिलिंद देवड़ा ने विचार व्यक्त किया है कि सरकार को निष्पक्ष जांच होने देनी चाहिए, आरोपी चाहे जो भी हो. लेकिन कांग्रेस अपने और अपनी सहयोगी पार्टियों के नेताओं को बचाने में कोई गलत बात नहीं देख रही. यूं अन्य पार्टियों का रवैया भी ऐसा ही रहा है. बीजेपी ने बहुत समय तक कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का साथ दिया, टेलीकॉम घोटाले में दोषी पाये गए और जेल में रह चुके सुखराम का उसने तभी तक भारी विरोध किया जब तक वह कांग्रेस में थे. लेकिन जैसे ही उन्होंने कांग्रेस छोड़ी, बीजेपी ने उन्हें गले से लगा लिया.
आम आदमी पार्टी की चुनावी सफलता ने सिद्ध कर दिया है कि भ्रष्टाचार का मुद्दा आज भी आम नागरिक को उद्वेलित करता है क्योंकि हर कदम पर उसे इसका सामना करना पड़ता है. कांग्रेस और बीजेपी जैसी मुख्यधारा की पार्टियां यदि इसकी उपेक्षा करती रहेंगी, तो उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ेगा.
ब्लॉग: कुलदीप कुमार
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी