दिल्ली में दबी है सत्ता की कुंजी
२४ सितम्बर २०१३भारत में लोकतंत्र के महापर्व की तैयारियों के जोर पकड़ने से सियासी पारा उछाल मारने लगा है. हालांकि चुनावी समर में कूदने को तैयार सियासी दलों के लिए अगले साल होने वाला लोकसभा चुनाव मील का पत्थर है. लेकिन इसके पहले पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव सेमीफाइनल मैच की तरह हो गए हैं. हालांकि इससे पहले 2009 और 2004 में भी यह इतिहास दोहराया जा चुका है लेकिन इस बार बिछी सियासत की बिसात पर जमे चेहरे और मोहरे कहानी को कुछ दूसरा रूप-रंग दे रहे हैं.
क्यों अलग है यह चुनाव
भारतीय चुनाव का इतिहास बताता है कि यहां अब तक मुद्दों पर आधारित चुनाव होते आए हैं. राज्यों में होने वाले चुनाव प्रांतीय मुद्दों पर हो रहे थे जबकि राष्ट्रीय मुद्दे संसद की दिशा और दशा तय कर रहे थे. इतना ही नहीं शहर और गांव के मुद्दे नगर एवं ग्राम पंचायतों के चुनाव की तस्वीर पेश करते थे. याद करें शाइनिंग इंडिया के नाम पर 2004 में सत्ता से बेदखल हुई बीजेपी को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जनता ने विकास के मुद्दे पर ही सत्ता सौंपी थी. उसी तरह 2009 में मंहगाई का मुद्दा आडवाणी का पीएम पद का 'वेटिंग टिकट' कनफर्म नहीं करा पाया. केन्द्र में जनता ने मंहगाई की बजाए विकास को तवज्जो दी जबकि इसी मुद्दे पर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी तथा दिल्ली और राजस्थान में कांग्रेस जीती थी. मतलब साफ है कि मुद्दों पर आधारित चुनाव का गणित केन्द्र और राज्यों में अलग अलग तरह से मतदाताओं पर असर करता रहा है. लेकिन इस बार मुद्दे इस हद तक व्यक्ति आधारित हो गए हैं कि चुनावी राजनीति का रुख ध्रुवीकरण की ओर हो गया है. ऐसे में लोकसभा को 80 सीटें देने वाले उत्तर प्रदेश से पहले महज 70 विधानसभा और सात लोकसभा सीटों वाली दिल्ली सुर्खियों में है.
मई 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले इस साल नवंबर में दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मेघालय में विधानसभा चुनाव होने हैं. पिछले कुछ महीनों में राष्ट्रीय राजनीति जिस तरह से 'मोदी बनाम राहुल' में तब्दील हुई है उससे चुनाव की दहलीज पर खड़े इन राज्यों के स्थानीय मुद्दे पीछे सरक गए हैं और चेहरों को चमकाने की राजनीति अपना असर दिखाने लगी है.
दिल्ली की अहमियत
जिस तरह से बीजेपी ने विकास का आईना गुजरात को और कामयाबी का चेहरा नरेन्द्र मोदी को बनाया है उसी तरह कांग्रेस ने भी विकास के लिए दिल्ली को रोल मॉडल और मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को फ्रंट रनर के तौर पर पेश किया है. हालांकि यहां शीला कांग्रेस की कामयाबी का सिर्फ दिल्ली में चेहरा है, इससे बाहर नहीं. इसके साथ ही सियासी गलियारों में यह चर्चा भी जोरों पर है कि जिस तरह से राहुल फ्रंट रनर बनने से कतरा रहे हैं, उसे देखते हुए अगर शीला चौथी बार कांग्रेस को दिल्ली की सत्ता सौंपने में कामयाब होती हैं तो पार्टी उनके चुनावी अनुभव और कौशल का इस्तेमाल लोकसभा चुनाव में करने से नहीं हिचकेगी. वैसे भी शीला की सोनिया के प्रति वफादारी इस रणनीति को आगे बढ़ाने में कांग्रेस की राह आसान कर सकेगी.
इस लिहाज से बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए दिल्ली फतह करना वक्त की सबसे जरूरी मांग बन गई है. इसका असर भी दिखना शुरु हो गया है. दिल्ली में बह रही चुनावी बयार में मोदी का रंग अब गहराने लगा है.
व्यक्तिनिष्ठ होती चुनावी जंग
इस बार का चुनाव कई मायनों में खास होने जा रहा है. राष्ट्रीय स्तर पर मोदी बनाम राहुल के इर्द गिर्द होता ध्रुवीकरण स्थानीय क्षत्रपों की साख पर भी सवाल खड़े कर रहा है. एक ओर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव के केन्द्र में शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह हैं. इनके सामने कांग्रेस का कोई चेहरा मुकाबले में नहीं है. व्यक्तिनिष्ठ होती चुनावी राजनीति की यह मजबूरी कांग्रेस के लिए यहां दिक्कत का सबब बन रही है. जबकि राजस्थान में मुकाबला अशोक गहलोत बनाम वसुंधरा राजे सिंधिया के बीच हो गया है. गौर करने वाली बात है कि इन तीनों राज्यों में मोदी बनाम राहुल के नाम से एक समानांतर मैच भी चल रहा है. तीनों ही राज्यों में शिवराज, रमन सिंह और वसुंधरा की तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस मोदी को मुद्दा बनाकर इन तीनों की स्थानीय छवि और अहमियत को फीका करने की कोशिश रही है.
कांग्रेस की इस रणनीति से दिल्ली बिल्कुल जुदा है. एक ओर बीजेपी ने देश के लिए मोदी को अपना चेहरा घोषित कर दिया है, वहीं दिल्ली में शीला के सामने 2008 में बीजेपी वरिष्ठ नेता विजय कुमार मल्होत्रा को उतारने जैसी हिम्मत इस बार नहीं कर पा रही है. शीला के कद का कोई नेता न होने की बीजेपी की मजबूरी ने उसे दिल्ली का चुनाव मोदीमय करने और मंहगाई तथा बिजली पानी जैसे मुद्दों पर केन्द्रित करने को विवश कर दिया है. दिल्ली बीजेपी की कमजोरी शीला की बड़ी ताकत है. वहां बीजेपी के पास ज्यादातर ऐसे नेता है जो विधानसभा या लोकसभा से ज्यादा छात्रसंघ के हुल्लड़बाज नेता जैसी की छवि पेश करते हैं. बीते चुनावों से पहले 40 लाख वोट बैंक वाली अनधिकृत कालोनियों को नियमित करने के शीला के एकमात्र दांव ने बीजेपी की हवा निकाल दी. साफ है कि हर राज्य में चुनाव कुछ चेहरों के इर्द गिर्द केन्द्रित हो गया है और ऐसे में दलों की पहचान गौण हो गई है.
सबके लिए अग्निपरीक्षा है दिल्ली
बाकी राज्यों से इतर दिल्ली का चुनावी अखाड़ा कुछ ज्यादा ही पेंचीदा हो गया है. दिल्ली में चेहरे के नाम पर एक ओर शीला हैं तो दूसरी ओर बीजेपी, मोदी का रंग दिल्ली वालों पर चढ़ा रही है. इसके अलावा भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा बुलंद कर राजनीति में आए सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल भी अहम चेहरा बन गए हैं. उन्होंने अचानक फलक पर आकर दोनों मुख्य दलों की नींद उड़ा दी है. उनकी आम आदमी पार्टी यहां राजनीति की नई परिभाषा गढ़ रही है. अपने अनूठे अंदाज वाले चुनाव प्रचार से इस पार्टी और केजरीवाल का चेहरा आम आदमी को लुभाता दिख रहा है. खुद शीला के खिलाफ ताल ठोंक कर केजरीवाल ने साफ सुथरी और दो टूक राजनीति करने का स्पष्ट संदेश दे दिया है. दरअसल आप ने कांग्रेस के अनधिकृत कालोनियों में और बीजेपी के मध्यम वर्गीय वोट बैंक में जिस अंदाज में सेंध लगाई है उससे अब चुनावी इम्तिहान कांग्रेस और बीजेपी के लिए अग्निपरीक्षा बन गया है. साथ ही दिल्ली में मोदी का चेहरा लेकर उतर रही बीजेपी अगर हारती है तो पार्टी के लिए तुरुप का पत्ता माना गया मोदी दांव लोकसभा चुनाव से पहले ही कमजोर हो जाएगा. उधर कांग्रेस अगर हारती है तो देश भर में मंहगाई और भ्रष्टाचार का मुद्दा हावी होने का संदेश जाएगा जो कांग्रेस के लिए आगे की राह को कठिन बना देगा. ऐसे में दिल्ली फतह दोनों दलों के लिए मजबूरी बन गई है.
ब्लॉग: निर्मल यादव, नई दिल्ली
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी