झरियाः एक भूला हुआ सच
२ अक्टूबर २०१३भारत की छवि दुनिया के सामने तेजी से विकास कर रहे एक देश की है. जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमेरिका पहुंचते हैं तो सब यह जानने को उत्सुक रहते हैं कि क्या वे अरबों का कोई नया सौदा कर के लौटेंगे. अमेरिकी कंपनियों के सीईओ से मुलाकात करते हुए वे विकास की राह पर बढ़ रहे अपने देश की बेहतरीन छवि देते हैं. लेकिन देश की इस प्रगति की असली कीमत चुका रहे हैं गरीबी और गुमनामी की जिंदगी बिता रहे लोग.
दामोदर घाटी में बसे झरिया की ओर दुनिया का कोई ध्यान नहीं है. स्कूल में बच्चों को भले ही किताबों में सिखाया जाता हो कि झारखंड के इस इलाके में देश का बेहतरीन कोयला मिलता है, लेकिन इस से ज्यादा इस जगह की कोई चर्चा नहीं होती.
अंग्रेजों ने की शुरुआत
अंग्रेजों ने भारत में सबसे पहले कोयले के खनन का काम झरिया और धनबाद से ही शुरू किया. 19वीं सदी में अंग्रेजों ने भारत में रेल की शुरुआत कर दी थी और इसके लिए कोयले की जरूरत थी. इसलिए उन्होंने आदिवासियों की जमीन पर कब्जा जमा लिया. दिल्ली स्थित गैर सरकारी संगठन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के उपाध्यक्ष चंद्र भूषण बताते हैं कि इसे 'स्लॉटर माइनिंग' का नाम दिया गया. डॉयचे वेले से बातचीत में उन्होंने बताया, "वहां काम करने वालों के साथ बेरहमी से बर्ताव किया जाता था. आज से डेढ़ दो सौ साल पहले जिन बुरे तौर तरीकों को इस्तेमाल किया जाता था, उनका असर हम आज तक देख रहे हैं."
हर बच्चा दमे का शिकार
असर कुछ ऐसा हुआ कि आज झरिया में जीना भी दूभर है. कोयले की खदानों में सालों से आग लगी है जो फैलती जा रही है. जमीन से उठते धुंए ने ना सिर्फ पर्यावरण का बुरा हाल किया है, बल्कि यहां रहने वाले लोगों को भी बहुत बीमार कर दिया है. जर्मनी की फोटोग्राफर इजाबेला सिप्फेल जब झरिया पहुंचीं तो लोगों की हालत देख कर दंग रह गईं. स्थिति समझने के लिए उन्होंने झरिया कोलफील्ड बचाओ समिति के अशोक अग्रवाल से मुलाकात की. अग्रवाल ने उन्हें बताया, "यहां की हवा इतनी दूषित है कि झरिया और आसपास के इलाकों में रहने वाले हर शख्स को सांस की बीमारी है. किसी को फेफड़े की सूजन है तो किसी को कैंसर या फिर दमा." आंकड़े बताते हैं कि झरिया में रहने वाला लगभग हर बच्चा दमे का शिकार है.
लेकिन धनबाद के सेन्ट्रल माइनिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट के आरके तिवारी का कहना है कि सरकार इस तरफ ध्यान दे रही है. डॉयचे वेले से बातचीत में उन्होंने कहा, "खनन में अब बेहतर तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है, इसलिए अब लोग पहले की तरह बीमार भी नहीं हो रहे. और अब हमारे पास चिकित्सा की बेहतर सुविधाएं भी हैं, लोगों को उनका फायदा मिल रहा है."
इसके विपरीत झरिया कोलफील्ड बचाओ समिति के अशोक अग्रवाल एक अलग ही छवि दिखाते हैं, "इन गरीब लोगों को खुद ही अपनी दवा का इंतजाम करना होता है. पर इनके पास तो अपना घर चलाने के लिए ही पैसा नहीं है, ये इलाज का पैसा कहां से लाएंगे? इसलिए बीमार पड़ने पर ये अस्पताल तक नहीं जाते."
हालांकि आरके तिवारी उन्हें गरीब नहीं मानते, "वे गरीब कहां हैं? वे तो पचास हजार रुपया महीना कमाते हैं, इतना तो सरकारी मुलाजिम भी नहीं कमाते." उनका मानना है कि ये लोग खुद ही अपना जीवन स्तर बढ़ाना नहीं चाहते.
कहां जाएं लोग?
झरिया के हालात रहने लायक नहीं हैं, यह बात सरकार भी मानती है. इसीलिए लंबे समय से लोगों को कहीं और बसाने की बात भी चल रही है. चंद्र भूषण का मानना है, "एक इकॉनोमिक पैकेज के बिना रिलोकेशन मुमकिन नहीं. लोगों को नए घर बसाने के लिए पैसे की जरूरत है, उन्हें नौकरी चाहिए और अगर हम उन्हें यह नहीं दे सकते तो उन्हें रीलोकेट करना नामुमकिन है." वहीं आरके तिवारी का कहना है, "काम की तो कोई गारंटी नहीं दी जा सकती. वे वहां जा कर काम ढूंढ सकते हैं." सरकार के इलाके में आग ना रोक पाने का इलजाम भी वह वहां के लोगों पर ही लगाते हैं जो विस्थापित होने को तैयार नहीं हैं.
दरअसल सरकार ने आज भी पुरानी खदानों को बंद नहीं किया है. चंद्र भूषण बताते हैं कि सही तरीका यह होता है कि खनन करने के बाद दोबारा वहां मिट्टी भरी जाती, पेड़ लगाए जाते या फिर उस जमीन को किसी और काम में लाया जाता. फिलहाल वहां बिना किसी बिजली के उत्पादन के ही कोयला जल रहा है, कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन से वायू प्रदूषण हो रहा है और जमीन धंस रही है. वह चेतावनी देते हैं कि हो सकता है कि भविष्य में आग और भी तेजी से बढ़े और रिहाइशी इलाके भी धंसना शुरू हो जाएं, "अगर सरकार इसे संजीदगी से नहीं लेती, तो काफी कुछ बुरा हो सकता है."
चंद्र भूषण के शब्दों में कहें तो झरिया लोगों के जहन और यादाश्त से झर चुकी जगह है. कभी इस पर खूब बात-बहस होती थी. अब सरकार की कमाई हो रही है, उत्पादन चल रहा है, बस झरिया मर रहा है.
रिपोर्ट: ईशा भाटिया
संपादन: महेश झा