भारतीय लोकतंत्र को अंदर से खतरा
२७ सितम्बर २०१३
मई में छत्तीसगढ़ की रैली से लौट रहे नेताओं के काफिले को नक्सलियों ने घेर लिया. फिर चारों ओर से गोलीबारी शुरू हो गई. गाड़ियों में जो लोग सवार थे, उन्हें उतारा गया, नाम पता पूछा गया, फिर गोली मार दी गई.
विधायक महेंद्र कर्मा सहित 27 नेता मारे गए, दर्जनों घायल हो गए. वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल भी घायल हुए, जिन्होंने बाद में दम तोड़ दिया. नक्सलियों ने वैसी ही दहशत फैला दी, जैसी तीन साल पहले इसी राज्य में 70 से ज्यादा पुलिसवालों की हत्या करके फैलाई थी. क्या नक्सली भारतीय सुरक्षातंत्र के काबू से बाहर हो चुके हैं?
भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मुताबिक नक्सलियों का बढ़ता प्रभाव "भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए सबसे बड़ा खतरा" बन गया है. छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल सहित भारत के नौ पूर्वी राज्यों पर इसकी गहरी पकड़ है. भारत सरकार के आंकड़े बताते हैं कि 20,000 सशस्त्र और 50,000 दूसरे काडर नक्सली आंदोलन में शामिल हैं, जबकि गैरसरकारी संगठन इस संख्या को कई लाख बताता है, जिससे जुड़ी हिंसा में पिछले दो दशक में 10,000 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है. यह ऐसा आंदोलन है, जो भारतीय लोकतंत्र में विश्वास नहीं करता और समांतर शासन चलाना चाहता है.
"लोक और तंत्र"
और सिर्फ नक्सली ही क्यों, कश्मीर और उत्तर पूर्व के अलगाववादियों ने भी भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की नाक में दम कर रखा है. दरअसल, भारत जाति और धर्म के संगम के लिहाज से पूरी दुनिया से अलग है. दूर से भले यह इसकी खूबसूरती दिखती हो लेकिन पास से देखा जाए तो मुश्किलों की जड़ भी है. आम भारतीयों से सवाल किया जाए, तो शायद 90 फीसदी से ज्यादा घरेलू समस्याओं के लिए धर्म और जाति के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं को जिम्मेदार मानेंगे. भारत के जाने माने समाजशास्त्री योगेंद्र यादव डॉयचे वेले से लोकतंत्र में "लोक और तंत्र" की दूरी बढ़ने पर जोर देते हुए कहते हैं, "अगर बैठ कर ब्लॉक स्तर पर कोई योजना बनाई जाएगी, तो वह इतनी मूर्खतापूर्ण नहीं हो सकती, जितनी की योजना आयोग की बनाई गई योजना है. और जनता के दुख दर्द से इतनी दूर नहीं हो सकती, जितना कि जयपुर और चेन्नई में बनने वाली योजना है."
थोड़ी सहानुभूति, थोड़ा डर और थोड़ी लालच, इन्हें मिला कर भारतीय नेता जाति और धर्म को भुनाना जानते हैं. किसी भी कीमत पर. सत्ताधारी कांग्रेस के महासचिव शकील अहमद ने हाल ही में राजनीतिक बयानबाजी में कह दिया कि "गुजरात दंगों की वजह से आतंकवादी संगठन इंडियन मुजाहिदीन का उदय हुआ." आंतकवाद से जूझ रहे भारत में किसी आतंकवादी संगठन को "मजबूरी में पैदा हुआ" संगठन बताना गैर जिम्मेदाराना जरूर दिखाता है लेकिन खुद अहमद को पता है कि इससे उन्हें एक खास धर्म की सहानुभूति मिल सकती है.
भ्रष्टाचार का विष
कभी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि केंद्र से एक रुपया चलता है, जो गांव तक पहुंचते पहुंचते 10 पैसे रह जाता है. हाल में अगर तीन बड़े घोटालों यानी कॉमनवेल्थ, टूजी टेलीफोनी और कोयला घोटाले की बात करें, तो इनमें कई हजार अरब रुपये के वारे न्यारे हो चुके हैं. भ्रष्टाचार तो आम भारतीयों के लिए "रोजमर्रा" की बात हो चुकी है. भारत के पूर्व गृह सचिव मधुकर गुप्ता डॉयचे वेले से कहते हैं, "भ्रष्टाचार अगर सिर्फ ऊपरी स्तर पर हो, तो अलग बात है लेकिन यह लोगों की सोच में शामिल हो गया है कि अगर पैसा नहीं दिया जाएगा, तो काम नहीं होगा."
हाल के दिनों में भारत ने अलग तरह की प्रतिक्रिया दी है. नेताओं को काबू में रखने के लिए प्रस्तावित जनलोकपाल बिल के लिए वह अन्ना हजारे के साथ आ खड़े हुए, तो दिल्ली गैंग रेप के बाद आम आदमी का गुस्सा सड़कों पर उतरा. योगेंद्र यादव का कहना है कि इसमें कोई शक नहीं कि नेताओं के बड़े बड़े भ्रष्टाचार के मामलों के सामने एक औसत भारतीय बेबस है, "लेकिन पिछले दो साल में हमने देखा कि जब वह औसत भारतीय अकेला नहीं होता, जब वह एक दूसरे से कंधे से कंधा मिला कर खड़ा होता है, रामलीला ग्राउंड में या जंतर मंतर में, तो फिर वह इतना बेबस नहीं दिखता. फिर पार्लियामेंट घबराती हुई दिखती है, गिड़गिड़ाती हुई दिखती है. संस्थाएं बदलती हैं."
राजनीति बनाम अफसरशाही
चाहे बड़ी योजनाओं की बात हो, खेलों की या फिर बच्चों के मिडडे मील की, सिर्फ 73 फीसदी साक्षर भारत में हर जगह से भ्रष्टाचार की बदबू आती दिखती है. लालफीताशाही और अफससरशाही को भी इसका जिम्मेदार माना जाता है. नाम लिखने भर से साक्षर कहलाने वाले लोग हक से अनजान थाना, पुलिस और कचहरी में बेबस हो जाते हैं. यहां बिचौलियों की भूमिका शुरू होती है, जो किसी आसान काम को भी मुश्किल बनाने में माहिर होते हैं. भारत के सरकारी दफ्तरों में कहावत है कि अगर आपकी फाइल पर "वजन" (रिश्वत) न रखा गया हो, तो यह उड़ जाती है.
हालांकि गुप्ता के मुताबिक तंत्र में "डिलीवरी की पूरी खूबी मौजूद है" लेकिन मुश्किल नेताओं के साथ सामंजस्य की है. भारत में अफसरशाही और राजनीति के बीच अनजाना तनाव जगजाहिर है, जहां विश्वस्तरीय यूपीएससी पास करने वाले काबिल अफसरों को आम तौर पर धब्बेदार छवि वाले नेताओं के साथ काम करना पड़ता है. गुप्ता कहते हैं, "स्थिति ऐसी आ गई है कि राजनीतिक स्तर पर लोगों का सारा समय इसी बात में निकल जाता है कि वह कैसे अपनी जगह बनाए रखें ताकि कुछ फैसले ले सकें. लेकिन अगर सही फैसला हो, तो उसको अमल में लाया जा सकता है."
कैसे बदले भारत
अमेरिका और यूरोप की नजरों में भले भारत आईटी और कंप्यूटर सम्राट हो लेकिन हकीकत में यहां की 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है, जिन्हें न तो पक्की सड़कें मिलती हैं और न चौबीसों घंटे बिजली. लोकतंत्र के "लोक" को रातों रात मजबूत नहीं किया जा सकता है. शुरुआत कहां से हो, सवाल यहां शुरू होकर यहीं ठहर जाता है. गुप्ता की राय है कि तकनीक बदलाव से पारदर्शिता आ सकती है, "तकनीक से तंत्र में तेजी और जवाबदेही लाई जाए और तेज फैसले लेने की सलाहियत और उसके आधार पर इसे लागू करने के मामले में जवाबदेही तय होनी चाहिए."
योगेंद्र यादव की राय है कि सुधार के रास्ते राजनीति के गलियारे से ही गुजरते हैं और उन्हें साफ करना जरूरी है, "आज के खेल के नियम बदलने के लिए पहले आपको उसी खेल में विजयी होना होगा, तब आप उसे बदल सकते हैं. यह अपने आप में टेढ़ी खीर है. और यही भारत में वैकल्पिक राजनीति करने की चुनौती भी है."
रिपोर्टः अनवर जे अशरफ
संपादनः आभा मोंढे