जान बचानी है तो साफ चूल्हा
१४ जुलाई २०१३जर्मनी में गर्मियों की एक शाम होटल की छत पर कांफ्रेंस में आए मेहमान कोयले के चूल्हे के ऊपर सिंकते लजीज खाने का मजा बारबेक्यू कह कर उठाते हैं. उधर यहां से सैकड़ों मील दूर अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के देशों में गरीब धुएं से भरे स्याह कमरों में इसी कोयले, लकड़ी या गोबर की आंच पर अपनी रोटी सेंकते हैं. बारबेक्यू वालों को तो पेट भरने के साथ मजा आता है लेकिन इन गरीबों पेट भर खाने के साथ बीमारियां भी गले पड़ती हैं. इतना ही नहीं पर्यावरण को जो नुकसान होता है वो अलग.
जून के आखिर में जर्मन शहर बॉन में जब इंटरनेशनल कुकिंग एनर्जी फोरम का सम्मेलन हुआ तो वहां आए मेहमान इसी फर्क को समझने की कोशिश करते दिखे. बॉन में बारबेक्यू के जरिए खाना पकाने की साफ तकनीक और ईंधन को सम्मेलन में आए मेहमानों ने देखा. इनमें चूल्हा बनाने वाले, ईंधन की सप्लाई करने वाले, विकास संगठन और अलग अलग इलाकों में इस के लिए काम करने वाले लोग शामिल थे. 2020 तक 10 करोड़ घरों में इन तकनीकों को कैसे पहुंचाया जाए इसी पर सम्मेलन में चर्चा हुई. यह लक्ष्य ग्लोबल अलायंस फॉर क्लीन कुकस्टोव्स का है.
सेहत में सुधार
अलायंस का कहना है कि इससे लोगों का स्वास्थ्य सुधरेगा, पर्यावरण की रक्षा होगी और महिलाओं का जीवन सुधरेगा जो पारंपरिक रूप से खाना बनाने के लिए ईंधन का बंदोबस्त करने की जिम्मेदार होती है. एक अनुमान है कि प्रदूषण फैलाने वाले चूल्हे हर साल दुनिया भर में करीब 40 लाख लोगों की मौत का कारण बनते हैं. घरों के अंदर बने पारंपरिक चूल्हे से निकला जहरीला धुआं कार्बन कणों से कमरा भर देता है. इस प्रदूषित वातावरण में लगातार रहना निमोनिया, फेफड़े की बीमारियां, कैंसर, गर्भावस्था की मुश्किलें, कैटरैक्ट और दिल की बीमारियों का शिकार बनाता है. सम्मेलन में आई विश्व स्वास्थ्य संगठन से जुड़ी डॉ मारिया नीरा कहती हैं, "साफ ईंधन और सांस लेने के लिए हर दिन साफ हवा का अधिकार हमारे स्वास्थ्य को तय करने वालों में प्रमुख है इसलिए हमें इसके लिए संघर्ष करने की जरूरत है."
समय, बजट और पर्यावरण पर दबाव
नेपाल के नावा राज ढकाल ने स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर को खुद अपने घर में महसूस किया है. वह बचपन में अपनी मां और दादी को नेपाल के गांव में खाना पकाते देखते थे. नेपाल में वैकल्पिक ऊर्जा प्रचार केंद्र के सहायक निदेशक ढकाल ने बताया, "वह बहुत दूर पैदल जा कर जलावन इकट्ठा करके लातीं और फिर उसे जलातीं थी. पूरे घर में धुंआ भर जाता और उन्हें सांस की बीमारियों की आदत सी पड़ जाती." लकड़ी या चारकोल पर खाना पकाने की मजबूरी औरतों और बच्चों को हर दिन 12-12 घंटे तक यहां वहां भटकने पर विवश करती है. अगर पर्याप्त ईंधन नहीं जमा हुआ तो खरीदना पड़ेगा और फिर तब उनके पास खाना खरीदने के लिए कम पैसा बचेगा नतीजा पूरे परिवार सा स्वास्थ्य जोखिम में पड़ेगा.
पारंपरिक चूल्हे इतने बेकार हैं कि थोड़ा खाना बनाने के लिए बहुत ज्यादा ईंधन की जरूरत पड़ती है. इसकी वजह से जंगलों पर दबाव बढ़ता है. ज्यादा से ज्यादा पेड़ काटे जाते हैं सिर्फ इसलिए कि घरों में चूल्हा जल सके. हर दिन 30 लाख टन से ज्यादा जंगल की लकड़ी खाना बनाने के लिए जला दी जाती है और भारी मात्रा में कार्बन डायोक्साइड पर्यावरण में पहुंचता है और वातावरण में हो रहे बदलाव का कारण बनता है. भारत में अनुमान है कि करीब 82.6 करोड़ लोग इस तरह के पुराने चूल्हों पर निर्भर हैं जिनमें ईंधन के रूप में लड़की या कोयले का इस्तेमाल होता है.
सोच में बदलाव
हालांकि लोगों को खाना बनाने की नई तकनीक के लिए तैयार करना इतना आसान नहीं है. तंजानिया में के गांव में पली बढ़ी एना इंग्वे बचपन के उन दिनों को याद करती हैं जब कई कई घंटे जलावन इकट्ठा करने में बीतते थे. पिछले एक दशक से दुनिया को नए चूल्हों के बारे में समझा रही एना अपनी मां को ही इसके लिए तैयार नहीं कर पाईं. उनका कहना है कि सिर्फ पैसे की बात नहीं है, "जब किसी मां के हाथ में पैसा आता है तो हो सकता है कि उसका बच्चा बीमार हो, या फिर उसका बच्चा बिना जूतों के स्कूल जा रहा हो, उस वक्त सामने क्या है यह उस पर निर्भर करता है."
बदलाव के लिए सहयोग
2010 में इस समस्या से जूझने के लिए संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में ग्लोबल अलायंस फॉर क्लीन कुकस्टोव्स बनाया गया. इसमें 700 वैज्ञानिक, गैर सरकारी संगठन, राष्ट्रीय एजेंसियां और चूल्हा बनाने वाले हैं. हालांकि अलायंस अभी भी साफ और कुशल का मानक तय करने में जुटा है. इसमें एलपीजी, बायोगैस, अल्कोहल और सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करने वाले बेहतर चूल्हों का इस्तेमाल शामिल है. अलायंस की कोशिश है कि इस तरह के चूल्हों का एक बड़ा बाजार तैयार किया जाए जिससे कि कंपनियां अपने चूल्हों को स्थानीय जरूरतों के हिसाब से तैयार कर सकें. फिलहाल करीब 30 लाख साफ और कुशल चूल्हे फिलहाल इस्तेमाल हो रहे हैं अलायंस ने फिलहाल 10 करोड़ चूल्हों का लक्ष्य बनाया है.
रिपोर्ट: सामंथा अर्ली/एनआर
संपादनः आभा मोंढे