जर्मन किताबों का भारतीय प्रकाशक
१५ अप्रैल २०१३प्रकाशक, पत्रकार, थिएटर कलाकार 60 साल के नवीन किशोर की खूबियों की बात करें तो कई किताबें उन्हीं पर छापनी पड़ेंगी. खूब घूम चुके नवीन साहित्य की दुनिया में किसी क्रांतिकारी से कम नहीं. पिछले 30 सालों में अपने छोटे से प्रकाशन संस्था को किशोर ने अंग्रेजी भाषा में अनुवाद का विशाल केंद्र बना दिया है. इनमें जर्मन लेखकों की किताबों का अनुवाद भी शामिल है.
यह सब कुछ इतना आसान नहीं था, क्योंकि बाकी मुश्किलों के साथ ही नवीन को पूर्वाग्रहों से भी लड़ना था. डेढ़ करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले कोलकाता में सीगल बुक्स की पहचान पहले खराब क्वालिटी वाली किताबों से ही थी. किशोर बताते हैं, "आपको यह समझना होगा कि उस वक्त तकनीक अलग थी उस समय सीसे और धातुओं से काम होता था, लेकिन हमें यह अहसास था कि भारत की छपाई में अच्छे स्तर की किताबें नहीं निकलती, इसलिए हमने बहुत ध्यान छपाई पर रखा. पहले दिन से ही हमें किताबों की अच्छी छपाई की वजह से जाना गया."
आम लोगों के लिए खास किताबें
नवीन को थिएटर से प्यार है. सालों से वह लाइटिंग डिजाइनर के रूप में काम करते रहे हैं और शुरूआती दिनों में सीगल बुक्स थिएटर, फिल्म, कला और संगीत से ही जुड़ा था. किशोर याद करते हैं, "जहां तक छपाई की बात है तो बहुत छोटे स्तर पर काम था. धीरे धीरे हम संस्कृति की दुनिया में आगे बढ़ते गए. उस वक्त रूसी फिल्मों की बाढ़ थी. इसके बाद विस्तार थिएटर, सिनेमा, संगीत और कला की दुनिया में हो रहे कामों की ओर बढ़ता चला गया." 2005 तक सीगल बुक्स 400 किताबें छाप चुका था. इसी साल किशोर ने अनुभव किया कि बहुत से विदेशी प्रकाशन संस्थान भारत में अपनी किस्मत आजमाने के लिए आ रहे हैं. जाहिर है कि इस देश में क्षमता है. तब किशोर ने भी यही करने की सोची, बस उनकी दिशा उल्टी थी. उन्होंने प्रकाशन से जुड़े लोगों के संपर्क में रहते हुए दुनिया भर के सैर की महत्वाकांक्षी योजना बनाई जिससे कि छापने के लिए बढ़िया सामग्री ढूंढी जा सके. इसके बाद किशोर ने सीगल बुक्स की दो शाखाएं लंदन और न्यूयॉर्क में खोली.
यूरोपीय साहित्य ने लुभाया
ब्रिटेन और अमेरिका के प्रकाशक काफी दिनों से जर्मन साहित्यकारों को छाप रहे हैं. इनमें से कई किताबें किशोर ने युवावस्था में पढ़ी हैं. किशोर बताते हैं, "हमारे देश की दुकानों में हर तरह का बढ़िया साहित्य मौजूद है, लेकिन बाद में यह अचानक रुक गया क्योंकि कई प्रकाशकों की नजर में यह व्यावसायिक रूप से फायदेमंद नहीं रह गया था और तब मैं फ्रांस में गालिमार और जर्मनी में जुअरकाम्प की तरफ मुड़ गया."
इसके साथ ही सीगल बुक्स ने जर्मन और फ्रेंच किताबें छापनी शुरू कर दीं. जल्दी ही शिकागो यूनिवर्सिटी प्रेस से भी संबंध जुड़ गया. सौदेबाजी में माहिर किशोर की संवेदनशीलता और दृढ़ता ने उनके लिए यह सब संभव किया. उनका काम पूरब और पश्चिम के बीच संस्कृति का पुल बन गया है. सैकड़ों जर्मन किताबों के अंग्रेजी अनुवाद छापने के बाद सीगल बुक्स अब दुनिया में जर्मन साहित्य को अंग्रेजी में छापने वाला सबसे बड़ा नाम बन गया है. इनमें से कई किताबें तो पहली बार सीगल बुक्स ने ही छापी हैं या फिर कई ऐसी भी किताबें हैं जो लंबे समय तक गायब रहने के बाद दोबारा छपी हैं. चीन के नोबेल विजेता मो यान समेत दुनिया के नामचीन लेखक सीगल बुक्स की पुस्तक सूची में शामिल हैं. हांस माग्नुस एनसेंसबर्गर, हाइनर मुलर, पीटर हांडके, माक्स फ्रिश, थियोडोर डब्ल्यू अडोर्नो, सेर्गेई आइंस्टाइन से लेकर रबींद्रनाथ टैगोर और पाब्लो पिकासो तक इसमें मिल जाएंगे.
क्या छापें क्या नहीं
किशोर का मानना है कि आप हमेशा उन लोगों को ध्यान में रख कर ही छापते हैं जो आपके लिए अहम हैं. उनका मानना है कि किसी भी किताब की सफलता की कोई गारंटी नहीं दे सकता, भले ही इसके लिए लेखक को 20 लाख डॉलर का एडवांस ही क्यों न मिल गया हो. वो बताते हैं, "मेरी समझ से इस तरह की सोच की आपको कीमत चुकानी होती है और प्रकाशन में इस तरह की सोच से आप अच्छे विचार और साहित्य निकाल पाते हैं और तब उम्मीद करते हैं कि आपको कोई खरीदार मिल जाएगा."
उनका मानना है कि जैसा लोग समझते हैं प्रकाशन कभी भी सफल कारोबार नहीं होता लेकिन यह चलता रहता है. किशोर के आस पास मौजूद लोग उनके लिए बेहद अहम हैं. लेखकों को चुनने के मामले में वह अपनी टीम के साथ लगातार बात करते हैं और अनुवादकों से भी कहते हैं कि वो लेखक का नाम सुझाएं. किशोर को इस बात से बहुत गुस्सा आता है कि कई प्रकाशक तीन से छह महीने में ही किताबों को अपनी सूची से हटा कर धूम धाम से आई नई किताब के लिए जगह बनाते हैं. नतीजा यह होता है कि ऐसी किताबें ऑनलाइन दुकानदार खरीद ले जाते हैं और ग्राहक किताबों के सस्ती होने का इंतजार करते हैं.
किशोर नई तकनीकों के आने से बेहद उत्साहित हैं. डिजीटल रूप में किताबों का तैयार होना उन्हें बहुत खुशी देता है. वो मानते हैं, आने वाली नस्लें शायद कागज की छुअन, अहसास और भावनाओं को नहीं समझेंगी लेकिन तब भी किताबें पढ़ी और लिखी जाएंगी.
रिपोर्टः सबीने ओएत्जे/एनआर
संपादनः महेश झा