अफगानिस्तान में सुधारों पर तालिबान में दरारें
१० अगस्त २०२२तालिबान की सत्ता अपने पहले संस्करण में अधिकारों और आजादी पर क्रूरता से प्रहार करने के लिए कुख्यात रही. इस बार शासन की गलियों में उतरने के साथ ही उन्होंने खुद को अलग रूप में ढालने भरोसा दिया. ऊपरी तौर पर ही सही लेकिन कुछ मामलों में इस बार बदलाव दिखा भी.
ऊपरी स्तर पर बदलाव
काबुल में अधिकारी तकनीकों को अपना रहे हैं तो क्रिकेट के मैदानों में उमड़ी भीड़ खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ा रही है. तालिबान के पहले शासन में टेलिविजन पर प्रतिबंध था लेकिन अब अफगान लोग इंटरनेट और सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं. लड़कियों को प्राइमरी स्कूलों में जाने की अनुमति है और महिला पत्रकार सरकार के अधिकारियों का इंटरव्यू ले रही हैं. 1990 के दशक में तालिबान सरकार के पहले कार्यकाल में इन बातों की कल्पना करना भी मुश्किल था.
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तालिबान के कट्टर सदस्य जिनमें ज्यादातर पुराने लड़ाके हैं वो वैचारिक तौर पर किसी भी बदलाव के खिलाफ हैं. उन्हें लगता है कि ऐसा करना उनके चिर शत्रु पश्चिमी देशों के आगे समर्पण का संकेत होगा. इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप के साथ काम करने वाले अफगानिस्तान विश्लेषक इब्राहिम बाहिस का कहना है, "आपके पास एक तालिबान का धड़ा है जो सुधारों को लागू करने के लिये दबाव बना रहा है और दूसरी तरफ एक धड़ा है जो मानता है कि, ये जो नाम मात्र के सुधार हुए हैं वही बहुत है."
आम लोगों की मुश्किल
अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने 20 साल तक अफगानिस्तान को चलाने के बाद देश को ग्लोबल बैंकिंग सिस्टम से बाहर कर दिया है और विदेशों में मौजूद अरबों डॉलर की संपत्ति जब्त कर लिया है. वो चाहते हैं कि अफगानिस्तान में और ज्यादा सुधारों को लागू किया जाये.
अफगानिस्तान की हालत सुधारने की दिशा में ज्यादा प्रगति नहीं हुई है और इसका खामियाजा वहां के आम लोग भुगत रहे हैं क्योंकि देश भयानक आर्थिक संकट की चपेट में हैं. बहुत से परिवारों को तो अपने खर्चे के लिए अपने अंग या फिर नवजात बेटियां तक बेचनी पड़ी हैं.
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क्या तालिबान सुधार करने में सक्षम है? इस सवाल पर विश्लेषक कहते हैं कि हाल में नीतियों में जो बदलाव दिखे हैं वो नाम भर से थोड़ा ही ज्यादा हैं. वाशिंगटन के विल्सन सेंटर थिंक टैंक में अफगानिस्तान विशेषज्ञ मिषाएल कुगलमान कहते हैं, "कुछ ऐसे मामले हैं जहां हम नीतियों में कुछ विकास देख सकते हैं लेकिन मैं बहुत स्पष्ट तौर पर कहूंगा कि हम अब भी एक ऐसे संगठन की तलाश में हैं जिसने पुरातनपंथी और हठधर्मी विचारों के परे जाने से इंकार किया हो."
लड़कियों की दुर्दशा
लड़कियों के ज्यादातर सेकेंडरी स्कूल अब भी बंद हैं. बहुत सी महिलाओं को सरकारी नौकरी छोड़ने पर विवश किया गया है जबकि बहुत सी औरतें बाहर जाने और तालिबान की सजा के खौफ में जी रही हैं.
ज्यादातर रुढ़िवादी इलाकों में संगीत, शीशा और ताश खेलने जैसी मामूली चीजों पर कठोर नियंत्रण है. दूसरी तरफ प्रदर्शनों को दबाया जा रहा है और पत्रकारों को नियमित रूप से धमकियां मिल रही हैं या फिर उन्हें हिरासत में लिया जा रहा है.
पश्चिमी देशों की समावेशी सरकार की मांग की अनदेखी की गई है और पिछले हफ्ते अल कायदा के नेता की काबुल में हत्या ने तालिबान के जिहादी गुटों से संबंध की पुष्टि कर दी है.
कौन लेता है तालिबान के फैसले
दक्षिणी कंधार के गढ़ से दिग्गज लड़ाकों और मौलवियों का ताकतवर अंदरूनी घेरा तैयार होता है जो तालिबान के सुप्रीम लीडर हिबातुल्लाह अखुंजादा शरिया की कठोर विवेचना को लागू करने में मदद देता है. इन लोगों के लिये किसी भी बदलाव लाने वाली राजनीतिक या आर्थिक गतिविधियों पर वैचारिक चिंतायें भारी पड़ती हैं. कंधार में अखुंजादा की सलाकार परिषद के सदस्य मोहम्मद ओमर खिताबी कहते हैं, "अफगानिस्तान की जरूरतें आज भी वही हैं जो 20 साल पहले थीं." सुप्रीम लीडर के करीबी अब्दुल रहमान तायबी भी ऐसी ही राय रखते हैं, "हमारे लोगों की बहुत ज्यादा मांगें नहीं हैं जैसी कि दूसरे देशों में हो सकती हैं."
इसी साल मार्च में जब अखुंजादा ने लड़कियों के सेकेंडरी स्कूल खोलने के शिक्षा मंत्रालय के फैसले को पलट दिया तो अफगान परिवार सन्न रह गये. कुछ विश्लेषक मानते हैं कि अखुंजादा इस बात से असहज थे कि कट्टरपंथी इस कदम को लड़कियों के अधिकार को लेकर पश्चिमी सोच के आगे समर्पण के रूप में देख सकते हैं. अंतरराष्ट्रीय धन के आने की उम्मीदें इस कदम के साथ धराशायी हो गईं. काबुल में बहुत से अधिकारियों को भी इससे निराशा हुई और कईयों ने इस फैसले के खिलाफ बोला भी.
पश्चिमी देशों के राजनयिक नियमित रुप से तालिबान के मंत्रियों से मुलाकात करते हैं लेकिन अखुंजादा तक उनकी पहुंच नहीं है. इस वजह से इन देशों के राजनयिकों के साथ रिश्तों को काफी झटका लगा है. कई निर्देश तो देश को तालिबान के पहले शासन की ओर ले गये हैं. सुप्रीम लीडर की सलाहकार परिषद के सदस्य और एक मदरसे के प्रमुख अब्दुल हादी हम्माद कहते हैं, "अब तक (अखुंजादा) ने जो फैसले लिये हैं वो सब धार्मिक विद्वानों की राय पर लिये हैं."
तालिबान में दरार
अखुंजादा तालिबान के अभियान में एकता की जरूरत पर बल देते हैं और बड़ी सावधानी से अलग अलग धड़ों के बीच संतुलन की कोशिश में हैं. इस में वो प्रतिद्वंद्वी गुट भी हैं जो 2021 में अमेरिकी सेना पर जीत के श्रेय पर दावा करते हैं. वैसे तो अखुंजादा के सलाहकारों का दावा है कि तालिबान बिना विदेशी पैसे के भी चल सकता है लेकिन अरबों डॉलर की जब्त संपत्ति को हासिल करना उसके लिये जरूरी होगा.
तालिबान के भीतर कोई अखुंजादा की ताकत को चुनौती देने की हिम्मत नहीं कर सकता लेकिन निचले स्तर पर असंतोष खामोशी से बढ़ रहा है. उत्तरपश्चिमी पाकिस्तान में रह रहे मध्य स्तर के एक तालिबानी अधिकारी नाम जाहिर नहीं करने को कहते हुए बताया, "तालिबान गार्डों को उनका वेतन देर से मिल रहा है और वह बहुत ज्यादा कम है. वो खुश नहीं हैं." तालिबान के एक और सदस्य ने बताया कि बहुत से लोग अपने गांवों में लौट गये हैं या फिर पाकिस्तान जा कर कोई और काम शुरू कर दिया है.
कोयले की खान के जरिये राजस्व बढ़ाने की कोशिशों ने उत्तरी हिस्से में अंदरूनी लड़ाई छेड़ दी और उसे जातीय विभाजनों और धार्मिक संप्रदायिकता से और बढ़ावा मिल रहा है. जाड़े के मौसम अब बस कुछ ही महीने दूर है और तब भोजन की व्यवस्था और जमाने वाली सर्दी का सामना नेताओं पर और ज्यादा दबाव बनायेगी. इन दबावों में यह ताकत है कि वो मतभेदों को और ज्यादा उभार दें हालांकि मिषाएल कुगलमान का कहना है कि इससे नीतियों में कोई नाटकीय बदलाव आयेगा इसकी उम्मीद कम है. कुगलमान ने कहा, "अगर तालिबान का नेतृत्व अपने राजनीतिक अस्तित्व पर सचमुच का खतरा देखेगा तो वह बदल सकता है. हालांकि विचारधारा पर उनका जिस तरह से ध्यान है उसे देख कर ऐसा होगा नहीं."
एनआर/ओएसजे (एएफपी)