कतर विश्व कपः 'सुधार नहीं पीआर'
११ नवम्बर २०२२आसमान साफ चमकता नीला है, दूर दूर तक बादलों के निशान नहीं. करीब 35 डिग्री सेल्सियस की गर्मी हवा को तपा रही है. दोहा के अल-साद जिले की तंग सड़कों पर असंख्य कारें एक दूसरे से चिपकती हुई खिसक रही हैं. उमस है और कारों और इमारतों में एयर कंडिश्निग फुल स्पीड में चल रहे हैं. एक चौराहे पर कुछ मजदूरों ने धूप से बचने के लिए अपने सिरों और चेहरों पर स्कार्फ ओढ़ लिए हैं. कुछ लोग छोटा सा ब्रेक लेकर छाया में जाकर बैठ गए हैं. 20 नवंबर को विश्व कप का आगाज हो रहा है, और दोहा एक विशाल निर्माण स्थल की तरह दिखता है.
मरुस्थलीय देश की राजधानी में सड़कों पर कोलतार बिछाया जा रहा है, इमारतों को संवारा जा रहा है और फुटपाथ पर पत्थर लग रहे हैं. छोटे से देश कतर में शुरुआती टीमों, अधिकारियों और प्रशंसकों के आने से पहले निर्माण कार्य पूरा करना जरूरी है. लेकिन समय कम है. 2022 के फुटबॉल विश्व कप की मेजबानी कतर को सौंपे हुए फीफा को 12 साल हुए. फुटबॉल की इस आधिकारिक संस्था के इतिहास में, मेजबानी को लेकर शायद ये सबसे ज्यादा विवादास्पद फैसला था.
ह्युमन राइट्स वॉच (एचआरडब्लू) से जुड़े वेन्जेल मिचालस्की के मुताबिक ये फैसला भ्रष्टाचार और अवैध जुगाड़बाजी से संभव हुआ था जिसकी वजह से विरोध और आलोचना की लहर दौड़ पड़ी. देश में आज तक इसे लेकर स्थिति ज्यादा बदली नहीं है.
मिचालस्की ने डीडब्ल्यू को मानवाधिकार हनन के मामले गिनाते हुए कहा, "कतर में मानवाधिकारों की मौजूदा स्थिति बुरी है. समलैंगिकों के वृहद समुदाय (एलजीबीटीक्यू) के लोगों को कोई अधिकार नहीं है और उन पर जुल्म ढहाए जाते हैं. मारा-पीटा जाता है, यातनाएं दी जाती हैं और जेल में ठूंस दिया जाता है. प्रेस की आजादी पर प्रतिबंध है. कानून का राज नहीं है. कतर में विरोध प्रदर्शन और ट्रेड यूनियनों की इजाजत नहीं है. और तो और औरतों के अधिकार सीमित हैं और वे सशक्त नागरिक नहीं हैं."
ये हालात तब हैं जबकि पुरुष संरक्षक प्रणाली, औरतों पर पुरुषों की हुकूमत को हाल में आधिकारिक तौर पर खत्म कर दिया गया था. मिचालस्की के मुताबिक, ये कदम सिर्फ कागजी है. वास्तविकता तो बिल्कुल ही अलग है.
2010 में विश्व कप की मेजबानी हासिल करने के बाद कतर ने बाहरी दुनिया के सामने अपनी एक उदार, सहिष्णु छवि पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. आधिकारिक लाइन तो यही कहती है कि एलजीबीटीक्यू प्रशंसकों का भी स्वागत होगा.
कतर के विदेश मंत्री मुहम्मद बिन अब्दुलरहमान अल थानी ने जर्मनी के फ्रांकफुर्टर आल्गेमाइने त्साइटुंग (एफएजेड) अखबार से बात करते हुए अपने देश के आलोचकों को आड़े हाथों लिया. खासकर यूरोप से आ रही आलोचना को लेकर वे खासे आक्रोशित थे और उन आलोचनाओं को उन्होंने "दंभी और नस्ली" करार दिया. देश में सुधारों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि सुधार विश्व कप के बाद भी जारी रहेंगे.
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लेकिन इस बयान के कुछ ही दिन बाद, उनका दावा फीका पड़ता नजर आया जब कतर के विश्व कप दूत खालिद सलमान ने जर्मनी के सार्वजनिक प्रसारक जेडडीएफ से कहा कि समलैंगिकता "हराम" है- एक गुनाह है- और "दिमागी खराबी का संकेत है." खालिद पूर्व अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल खिलाड़ी रह चुके हैं.
'हर मौत बड़ी है'
कतर में प्रवासी मजदूरों के हालात की भी हाल के वर्षों में खासी कड़ी आलोचना हुई है. बेशुमार पत्रकारों और गैर सरकारी संगठनों ने कतर का दौरा किया है. और शेल्टरों और निर्माण स्थलों पर जीवनयापन के कभी कभी नारकीय हालात दर्ज किए हैं. डीडब्ल्यू को दिए इंटरव्यू में मैल्कम बिडाली ने बताया कि "मैंने ऐसे शेल्टर देखे हैं जहां 12 लोग एक साथ एक छोटे से कमरे में ठुंसे हुए थे. बेहद दयनीय हाल में था उनका जीना." 29 साल के बिडाली को एक सुरक्षा कंपनी ने दोहा में नौकरी दी थी. उनका काम था सबवे निर्माण ठिकानों की चौकसी जहां से विश्व कप के दर्शक-प्रशंसक स्टेडियमों में आएंगे.
असहनीय जीवन के अलावा, बताया जाता है कि हजारों आप्रवासी मजदूरों ने हाल के वर्षों में अपनी जान गंवा दी. हालांकि मौतों की वास्तविक संख्या अलग अलग बताई जाती है. कतर में आप्रवासी मजदूरों के उत्पीड़न को अपने ब्लॉगों के जरिए उजागर करने वाले बिडाली कहते हैं, "हम देखते हैं कि मरने वालों में ज्यादातर 18 से 40 की उम्र के युवा स्वस्थ लोग थे. उनके मृत्यु प्रमाणपत्रों पर भी यही दिखाया गया था कि उनकी मौत प्राकृतिक कारणों से हुई थी. लेकिन संख्या चाहे कितनी भी ज्यादा क्यों न हो, एक एक मौत बहुत भारी है बहुत ज्यादा है."
'ना के बराबर कोशिश'
लंबे समय तक, कतर की आलोचना और विश्व कप की मेजबानी को फीफा और कतर सरकार दोनों नजरअंदाज करती आई थी. सुधार रोक दिए गए थे या उनकी गति बहुत ही धीमी थी. लेकिन बदलाव होते रहे हैं. मिचालस्की समझाते हैं, "कागज पर तो बहुत कुछ बदल गया है. नियोक्ताओं पर कर्मचारी की पूरी निर्भरता का कफाला सिस्टम आधिकारिक तौर पर खत्म किया जा चुका है. लेकिन इस सिस्टम के कुछ हिस्से अभी भी अमल में हैं. अपेक्षा के हिसाब से सुधार लागू ही नहीं किए गए. जो कुछ हुआ है वो बहुत कम है और उसमें भी बहुत देर कर दी गई है."
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नेपाल में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगनठ (आईएलओ) में नेपाल की ट्रेड यूनियन फेडरेशन की एक प्रतिनिधि बिंदा पांडे के मुताबिक सुधार दिखते हैं, लेकिन वे नाकाफी हैं. पांडे मानती हैं कि करीब पांच लाख लोग नेपाल से प्रवासी मजदूर के रूप में कतर गए हैं. वो कहती हैं, "कुछ बड़ी कंपनियां और कुछ सरकारी कंपनियां नये श्रम कानूनों का पालन कर रही हैं. लेकिन छोटे और मंझौले उद्यम नहीं करते हैं. वेतन अब बैंक खाते में जाता है और कतर बड़ी संख्या में लेबर इंस्पेक्टरों को ट्रेनिंग दे रहा है."
लेकिन वो ये भी कहती हैं, जो भी हो रहा है, "वो बिल्कुल ही नाकाफी है."
सिर्फ दिखावे के सुधार
विश्व कप की मेजबानी से कतर दुनिया में अपनी हैसियत बढ़ाना चाहता था. और अपनी अतंरराष्ट्रीय छवि भी सुधारना चाहता था. उसे उम्मीद नहीं थी कि हाल के वर्षों में उसे इस कदर आलोचना का सामना करना पड़ेगा.
मिचालस्की कहते हैं कि, "मीडिया, अंतरराष्ट्रीय नागरिक बिरादरी और मानवाधिकार समूहों की ओर से आ रहे बड़े भारी दबाव का मतलब है कि उससे उठ रही आलोचना से कतर की साख को नुकसान होगा. इसीलिए पीआर यानी जनसंपर्क कारणों से सुधार किए जा रहे हैं." मिचालस्की ये भी कहते हैं कि इस इच्छा के कोई संकेत नजर नहीं आते कि विश्व कप से कुछ ही सप्ताह पहले भी कोई वास्तविक बदलाव आ पाएगा.
18 दिसंबर को जब विश्व कप के समापन के बाद क्या बचा रह पाएगा? क्या कतर को सौंपी गई मेजबानी उसके लोगों के काम आ पाएगी या नहीं? बिंदा पांडे को लगता है कि इन तमाम बहसों ने कम से कम ध्यान तो खींचा ही है. न सिर्फ कतर में बल्कि उनके अपने देश नेपाल में भी जहां से हजारों प्रवासी मजदूरों का, रोजीरोटी कमाने कतर जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी है.
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बिंदा पांडे कहती हैं, "इस बारे में उठी तमाम बहसों और आईएलओ और अन्य संगठनों के सुझाए बदलावों की वजह से हम लोग नेपाल के प्रवासी मजदूरों की समस्याओं पर भी बात कर पा रहे हैं."
वो कहती हैं, "उदाहरण के लिए, एक सहायता कोष की स्थापना की गई है जो मजदूरों को वित्तीय मदद मुहैया करता है. और हम लोग कुछ परिवारों के बच्चों को स्कूली पढ़ाई में भी मदद करते हैं. या फिर किन्हीं प्रवासी मजदूरों को विदेश में बहुत कम पगार मिल रही होती है तो तो हम कोष से उसकी भरपाई कर सकते हैं. अब हमारे सीधे संपर्क बन गए हैं और हमारे पास प्रवासी मजदूरों के लिए नेपाल में श्रम मामलों के वकील भी हैं."
सहायता राशि के नाम पर 'पब्लिसिटी स्टंट'
वैसे कतर में, इसी किस्म के एक कोष को श्रम मंत्री अली बिन समीख अल मारी ने खारिज कर दिया था. समाचार एजेंसी एएफपी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने उसे "पब्लिसिटी स्टंट" करार दिया. लेकिन मिचालस्की का कहना है कि इस तरह का सहायता कोष, कतर सरकार और फीफा जैसे नियोक्ताओं की एक न्यूनतम जरूरत और दायित्व है कि वे घायल मजदूरों और उनके परिवारों को मुआवजा दें. मिचालस्की को डर है कि इस बारे में कोई ठोस या टिकाऊ सुधार नहीं होंगे.
कतर को मेजबानी सौंपने के विवादास्पद फीफा फैसले को 12 साल हो चुके हैं. समय ही बताएगा कि कतर में हो रहे कथित सुधार कितने टिकाऊ साबित होते हैं. खतरा ये है कि एक बार खेल खत्म होने की आखिरी सीटी बजी नहीं कि सबका ध्यान हट जाएगा, आलोचनाएं दब जाएंगी और कतर पर दबाव कम हो जाएगा.
आईएलओ नेपाल से जुड़ीं बिंदा पांडे जोर देकर कहती हैं, "हमें आलोचनात्मक रहना ही पड़ेगा. अगर कतर को विश्व कप की मेजबानी न सौंपी जाती तो वहां कुछ भी नहीं बदलता. लेकिन हमें विश्व कप के बाद भी क्रिटिकल बने रहना होगा."