पाकिस्तान में तालिबान के लिए बढ़ता समर्थन
३० जुलाई २०२१रैलियों में अफगानी घुसपैठियों के प्रति समर्थन जतलाने के लिए तालिबानी झंडे लहराते और इस्लामी नारे लगाते पाकिस्तानी नागरिकों के वीडियो, सोशल मीडिया में घूम रहे हैं. ये सब तब हो रहा है जबकि अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की सितंबर में पूरी तरह वापसी से पहले तालिबान तेजी से हावी होने लगा है.
तालिबान के पक्ष में रैलियां कैसे हुईं मुमकिन
देश के विभिन्न हिस्सों में मौलवी अफगानी तालिबान के लिए समर्थन जुटा रहे हैं और डोनेशन की अपील कर रहे हैं. क्वेटा शहर और बलुचिस्तान सूबे के पिशिन जिले में कई स्थानीय लोगों और चश्मदीदों ने डीडब्लू को बताया कि उनके इलाकों में तालिबान को समर्थन देने वाली गतिविधियां बढ़ गई हैं. नाम न जाहिर करने की शर्त पर एक बाशिंदे ने डीडब्लू को बताया, "तालिबान को हमारे इलाके में अच्छा-खासा सपोर्ट हासिल है, लेकिन प्रशासन के समर्थन के बिना तो रैलियां मुमकिन नहीं हैं.” उसके मुताबिक, "पहले मौलवी मस्जिदों में अफगानी तालिबान के लिए डोनेशन मांगते थे लेकिन वे अब ‘अफगानी जिहाद' के लिए फंड जुटाने घर घर आ रहे हैं.”
पाकिस्तान के उत्तरपश्चिमी कबीलाई इलाकों से एक तरक्कीपसंद विपक्षी सांसद मोहसिन डवार कहते हैं, "तालिबान, क्वेटा समेत पाकिस्तान के अलग अलग हिस्सों में मजे से घूम रहे हैं.” उनका कहना है, "राज्य की मदद के बिना तो ये मुमकिन नहीं.”
उधर सरकारी अधिकारियों का कहना है कि तालिबान के पक्ष में हुई रैलियों और डोनेशनों के बारे में रिपोर्ट निराधार हैं. पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता जाहिद हफीज चौधरी ने डीडब्लू को बताया, "ऐसा कुछ भी नहीं है.”
यूं तो तहरीके-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) पर देश में आधिकारिक तौर पर प्रतिबंध लगा है. लेकिन जानकार कहते हैं कि पाकिस्तानी सरकार का अफगान तालिबान को कथित समर्थन, इस गुट को भी खाद-पानी मुहैया करा रहा है.
पाकिस्तान में ‘तालिबान जनाजे'
अफगानिस्तान में तालिबानियों को मिल रहा फायदा, पाकिस्तानी कट्टरपंथियों को भी लड़ाई से तबाह देश में उनकी मदद को उकसा रहा है. स्थानीय स्रोतों के मुताबिक दर्जनों पाकिस्तानी पिछले कुछ महीनों के दरमियान अफगानिस्तान में तालिबान के बगलगीर होकर वहां की फौज के खिलाफ लड़ाई में जान गंवा चुके हैं.
विश्लेषकों का कहना है कि पाकिस्तानी अधिकारियों ने उनकी आवाजाही को रोकने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की है. उनकी लाशें जब उनके घरों को लौटीं तो सोशल मीडिया में उनके अंतिम संस्कार को लेकर की जारी घोषणाओं और सूचनाओं की बाढ़ आ गई.
उत्तरपश्चिमी खैबर पख्तूनखवा और दक्षिणीपश्चिमी बलूचिस्तानी सूबों के कई हिस्सों में पाकिस्तानी लड़ाकों के जनाजों में सैकड़ों लोग शामिल हुए थे. इस महीने अफगानिस्तान के ननगरहर में मारे गए 22 साल के तालिबानी सपोर्टर अब्दुल रशीद का अंतिम संस्कार 11 जुलाई को हुआ था. ऐसी रिपोर्टें आई हैं जिनसे पता चलता है कि रशीद के जनाजे में इस्लामी कट्टरपंथियों ने तालिबान के समर्थन में नारे लगाए और सैकड़ो लोगों ने उसके परिवार को बेटे की "शहादत” पर मुबारकबाद दी.
वॉशिंगटन स्थित विल्सन सेंटर में दक्षिण एशिया के लिए उप-निदेशक और सीनियर एसोसिएट माइकल कुगेलमान ने डीडब्लू को बताया, "पाकिस्तान को तालिबान पर बढ़त इसलिए हासिल है कि उसने न सिर्फ उसके नेताओं को सुरक्षित ठिकाने मुहैया कराए है बल्कि तालिबानी लड़ाकों के लिए मेडिकल सुविधाएं और उनके परिवारों के लिए सपोर्ट भी वह हासिल कराता है.”
वह कहते हैं, "पाकिस्तानी सरकार पहले ये कह चुकी है कि तालिबान के साथ उसके रिश्ते, घुसपैठियों और अमेरिकियों के बीच और हाल हाल में अफगान सरकार के साथ बातचीत कराने में उसकी भूमिका को मजबूत बनाते हैं. लेकिन जब वह कहती है कि कुछ हद तक ही उसे इस मामले में बढ़त हासिल है तो वो अपने ही बयान को काट रही होती है. पाकिस्तान में तालिबान के लिए जन समर्थन रहा है और हाल के वर्षो में पाकिस्तानी नागरिक उनके वॉलन्टियर लड़ाके बने रहे हैं.”
सामरिक विरोधाभास
बहुत से अफगान और पश्चिमी अधिकारी पाकिस्तानी सरकार पर तालिबान को पनाह और सैन्य सहायता देने का आरोप लगाते हैं. ऐसी शिकायतों से पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय साख को और धक्का लग सकता है.
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक अम्बर रहीम शम्शी ने डीडब्लू को बताया, "तालिबान के पक्ष में हुई रैलियां दो चीजों की ओर संकेत करती हैः सैन्य अभियानों के बाद अगले कदम के रूप में हिंसक उग्रवाद का मुकाबला करने की राज्य की अक्षमता और अनिच्छा. सियासी और सामरिक विरोधाभासों के चलते सरकार ने इस्लामी मदरसों और चरमपंथी गुटों को मुख्यधारा में लाने के लिए कुछ खास नहीं किया है.”
वह कहती हैं, "ये एक विरोधाभास है कि अधिकारी अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सामने एक बात कहते रहते हैं, जबकि जमीनी हकीकत कुछ और ही तस्वीर दिखाती है. ये सच है कि इंटरनेशनल बिरादरी ने राजनीतिक रूप से जोड़े रखने की जो रणनीति अपनाई है उससे तालिबान को वैधता ही हासिल हुई है और पाकिस्तान को अफगानिस्तान में उभरते संकट का खामियाजा भुगतना पड़ा है.”
राजनीतिक विश्लेषक कमर चीमा का कहना है कि तालिबान के पक्ष में हुई रैलियां "पाकिस्तानी संप्रभुता का हनन हैं.” वो कहते हैं "लेकिन यही रैलियां पाकिस्तानी समाज में तालिबानी विचारधारा के प्रति समर्थन को भी दर्शाती हैं. अधिकारी उनके नैरेटिव का तोड़ निकालने में नाकाम रहे हैं.”
पाकिस्तानी सोसायटी में तालिबान को मिल रहे समर्थन के बारे में विश्लेषक कुगेलमान की भी यही राय है. वह कहते हैं, "कई पाकिस्तानी, तालिबान को राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार के बेहतर विकल्प के रूप में देखते हैं. खासकर इस नजरिए के चलते कि अफगानिस्तान में पाकिस्तानी हितों की बेहतर परवाह वही कर सकता है. लिहाजा, अगर पाकिस्तान में अफगान तालिबान के हवाले से रैलियां निकलती हैं तो इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए.”
'सरकार नजर रखे हुए है'
राजनीतिक विश्लेषक रहीमुल्लाह युसूफजई ने डीडब्लू को बताया कि पाकिस्तानी लोग, अफगान तालिबान फौज में शामिल तो नहीं होंगे, कम से कम उतनी बड़ी तादाद में तो कतई नहीं, जैसे वो अफगानिस्तान में 1979 से 1989 के दरमियान सोवियत संघ के खिलाफ लड़ाई में शामिल हुए थे.
युसूफजई के मुताबिक, "हालात अब बिल्कुल जुदा है क्योंकि सरकार नजर रखे हुए है. वो अपने लोगों को अफगानिस्तान सीमा में दाखिल होकर तालिबानियों के पक्ष में लड़ने की इजाजत नहीं देगी.” हालांकि वो ये भी कहते हैं कि "अफगान सीमा के करीब के दूरस्थ इलाकों में लोग लड़ने जा सकते हैं और डोनेशन भी इकट्ठा कर सकते हैं.”
वह कहते हैं, "पाकिस्तानी मदरसों मे पढ़ रहे कुछ अफगान विद्यार्थी तालिबान को सपोर्ट कर सकते हैं और अफगानिस्तान का रुख कर सकते हैं. उन्हें तालिबान की जीत नजर आ सकती है और हालात उनके पक्ष में हैं.”
पेशावर स्थित विश्लेषक समीना अफरीदी मानती है कि पाकिस्तान की कथित कबीलाई पट्टी में अफगान तालिबान का सपोर्ट खिसक रहा है. उन्होंने डीडब्लू को बताया, "उत्तरी और दक्षिणी वजीरिस्तान के कुछ हिस्सों में अफगान तालिबान के लिए समर्थन है लेकिन खैबर पख्तूनख्वा के दूसरे हिस्सों मे बहुत से लोग स्कूल, अस्पताल, सड़क और बुनियादी सुविधाओं की बहाली चाहते हैं, चरमपंथ नहीं. चाहे वो अफगान तालिबान की ओर से हो या किसी दूसरे ग्रुप की ओर से.”
अफरीदी का कहना है कि अफगान तालिबान के प्रति सहानुभूति रखने वाले मौलवी भर्ती शुरू कर सकते हैं या डोनेशन इकट्ठा कर सकते हैं लेकिन ऐसी हरकतों का, पख्तून तहाफुज मूवमेंट जैसे युद्ध विरोधी जमीनी संगठनों की ओर से पुरजोर विरोध होना लाजिमी है.