नॉर्डिक देशों ने कैसे सुलझाई बेघरी की समस्या
५ मई २०२२होमलेस वर्ल्ड कप फाउंडेशन के मुताबिक भारत में बेघरों की संख्या लगभग 18 लाख है. 2019 के इन आंकड़ों के हिसाब से 73 प्रतिशत बेघर शहरी इलाकों में हैं. हालांकि अपनी रिपोर्ट में फाउंडेशन ने जोड़ा है कि देश में लगभग साढ़े सात करोड़ परिवार ऐसे भी हैं जिनके पास कहने को घर तो है लेकिन वह इंसानों के रहने लायक सम्मानजनक स्थान नहीं है.
लोगों का बेघर हो जाना, सड़कों पर रहना विकासशील देशों के लिए भी एक बड़ी समस्या है. अमेरिका में साढ़े पांच लाख से ज्यादा लोग यानी आबादी का 0.2 प्रतिशत हिस्सा बेघर है. क्राइसिस ऐंड हेरियट वॉट यूनिवर्सिटी के अध्ययन के मुताबिक पिछले साल ब्रिटेन में दो लाख 30 हजार से ज्यादा लोग बेघर थे. इसी तरह ऑस्ट्रेलिया में 2016 में हुई जनगणना के मुताबिक करीब सवा लाख से ज्यादा लोगों के पास छत ना होने की बात सामने आई थी.
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ऑस्ट्रेलिया के कुछ विशेषज्ञों ने बेघर लोगों को घर देने के लिए नॉर्डिक देशों के पद्चिन्हों पर चलने की सलाह दी है. नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड और डेनमार्क ने हाउसिंग कोऑपरेटिव के जरिए बेघर लोगों को छत उपलब्ध कराई है. इस संबंध में नॉर्डिक पॉलिसी सेंटर ने एक शोध प्रकाशित किया है, जिसमें बताया गया है कि कैसे नॉर्डिक देशों ने अपने यहां इस समस्या को हल किया और उसका इस्तेमाल बाकी देश कैसे कर सकते हैं.
फिनलैंड की मिसाल
फिनलैंड को इस मामले में अगुआ देश माना जाता है. 1980 के दशक में वहां 16,000 से ज्यादा लोग बेघर थे जो 2020 में घटकर 4,500 रह गए. 55 लाख की आबादी वाले देश में अब प्रति एक लाख लोगों पर बेघरों की संख्या एक से भी कम हो गई है जबकि ऑस्ट्रेलिया में हर एक लाख पर लगभग पांच बेघर हैं.
शोध कहता है कि 2007 में फिनलैंड की सरकार ने ‘हाउसिंग फर्स्ट' यानी ‘पहले घर' नाम की एक नीति अपनाई. इस नीति में कहा गया है कि लोगों को रहने के लिए एक सम्मानजनक जगह का अधिकार है. यूं तो कई अन्य देशों में भी ऐसी ही नीतियां हैं लेकिन ऑस्ट्रेलिया की डीकिन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एंड्रयू स्कॉट, न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी की हेदर होल्स्ट, और न्यू कासल यूनिवर्सिटी के सीनियर लेक्चरर सिडसेल ग्रिमश्टाट ने द कनर्वसेशन पत्रिका में लिखा है कि फिनलैंड की नीति अन्य देशों के मुकाबले ज्यादा आक्रामक और उग्र रूप से समावेशी थी.
इस लेख के मुताबिक अन्य देशों में कोऑपरेटिव हाउसिंग को नीति का केंद्रीय हिस्सा नहीं माना जाता है लेकिन नॉर्डिक देशों ने इसे अपनी नीति के केंद्र में रखा और किरायेदारों व मकानमालिकों दोनों के लिए विकल्प उपलब्ध करवाए.
लेख कहता है, "स्वीडन में कुल घरों का 22 प्रतिशत कोऑपरेटिव हाउसिंग में है. नॉर्वे में 15 प्रतिशत घर कोऑपरेटिव हाउसिंग के तहत हैं, और राजधानी ओस्लो में तो इनकी संख्या 40 प्रतिशत है. डेनमार्क में 20 फीसदी आबादी कोऑपरेटिव घरों में रहती है.”
क्या होता है कोऑपरेटिव हाउसिंग?
ऑस्ट्रेलियाई विशेषज्ञ समझाते हैं कि यूं तो कोऑपरेटिव हाउसिंग कई तरह से काम करता है लेकिन मोटा-मोटी कहा जा सकता है इसमें कुछ लोग एक समूह बनाकर घर खरीदते या किराये पर लेते हैं ताकि अपने लिए छत पा सकें. यहां साथ आने का मतलब संपत्ति जमा करना नहीं बल्कि रहने के लिए जगह हासिल करना होता है.
विशेषज्ञों के मुताबिक, "किरायेदारों के कोऑपरेटिव में वहां रहने वाले किरायेदारों को फैसले लेने की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से हिस्सेदार बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. वे प्रबंधन और रख-रखाव का हिस्सा होते हैं. किराये से होने वाली किसी भी तरह की आय को भवन के रख-रखाव में ही खर्च किया जाता है.”
अरबों खर्च कर बेघरों को होटलों में बसा रहा है कैलिफोर्निया
डेनमार्क में समाज के कई तबकों को कोऑपरेटिव हाउसिंग के जरिए घर उपलब्ध करवाए गए हैं. इनमें विकलांग, बुजुर्ग और अन्य कमजोर तबकों के लोग शामिल हैं. विशेषज्ञ कहते हैं कि इस पूरी कोशिश का मकसद मुनाफा कमाना नहीं बल्कि घरों के निर्माण का खर्च कम करना और किराये कम करना होता है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग घर में रहना वहन कर सकें.