अब रुकेगी भारत जैसे देशों के परंपरागत ज्ञान की चोरी
१४ मई २०२४कुछ साल पहले इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी लॉ (बौद्धिक संपदा कानून) के जर्मन प्रोफेसर टिम डॉर्निस कैलिफोर्निया गए हुए थे. उस दौरान जर्मन एसोसिएशन फॉर इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी लॉ (जीआरयूआर) के महासचिव ने उनसे संपर्क किया. महासचिव ने उनसे कहा, "जल्द ही हमें जिनेवा में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम देखने को मिलने वाला है, जिस पर हमें नजर रखने की जरूरत है. यहां कुछ अभूतपूर्व हो सकता है.”
दरअसल, विभिन्न समुदायों और समाजों में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ने वाले पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा के लिए गठित की गई संयुक्त राष्ट्र की वर्ल्ड इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूआईपीओ) का मुख्यालय जिनेवा में है. यह संस्था दुनिया भर में इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी (आईपी) को बढ़ावा देती है और उसका संरक्षण करती है. आईपी कानून उन चीजों के कानूनी सुरक्षा और मालिकाना हक से जुड़ा हुआ है जिन्हें लोग अपने दिमाग से बनाते हैं. जैसे, कोई नई खोज करना, किसी तरह की कलाकृति या लेखन वगैरह.
इसलिए, हाल के वर्षों में डब्ल्यूआईपीओ के सम्मेलनों में जीआरयूआर का प्रतिनिधित्व करने वाले डॉर्निस स्विट्जरलैंड गए और इस बात की तहकीकात शुरू कर दी कि आखिर डब्ल्यूआईपीओ में क्या हो रहा था. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "तब मुझे एहसास हुआ कि यह वास्तव में अभूतपूर्व हो सकता है.”
फिलहाल, 13 मई से 24 मई के बीच जिनेवा में एक राजनयिक सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है. इसका लक्ष्य पारंपरिक ज्ञान को लुटने से बचाने के लिए ‘अंतरराष्ट्रीय कानून' बनाना या ‘अंतरराष्ट्रीय समझौता' करना है, ताकि पेटेंट व्यवस्था में ज्यादा पारदर्शिता लाई जा सके. इस समझौते पर बातचीत का दौर शुरू हो चुका है, जिसे इस ऐतिहासिक संधि के लिए अंतिम चरण माना जा रहा है. डब्ल्यूआईपीओ की प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक, इस समझौते का लक्ष्य ‘आनुवंशिक संसाधनों और उनसे जुड़े पारंपरिक ज्ञान से संबंधित ऐसे आविष्कारों के लिए गलत तरीके से पेटेंट दिए जाने से रोकना है जो वास्तव में नए या आविष्कारिक नहीं हैं.'
विकासशील देश लंबे समय से कर रहे थे ऐसे कानून की मांग
करीब 25 वर्षों से अधिक समय से विकासशील देश और स्थानीय जनजातियों के लोग इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी से जुड़े ऐसे कानूनों को लागू कराने का प्रयास कर रहे थे जिनसे उनकी स्थानीय वनस्पति और जीव जंतुओं, पारंपरिक ज्ञान और संस्कृति का बाहरी लोगों द्वारा गलत इस्तेमाल रोकने में बेहतर तरीके से मदद मिल सके.
हाल के सालों में दूसरे देशों या अपने ही देश की स्वदेशी संस्कृतियों के पारंपरिक ज्ञान या सांस्कृतिक विरासत का इस्तेमाल करने वाली कंपनियों पर ज्यादा जवाबदेही तय करने की मांग तेजी से बढ़ी है. फैशन ब्रांडों को अपने कपड़ों में पारंपरिक डिजाइनों का इस्तेमाल करने के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा है. दवा बनाने वाली कंपनियां औषधीय पौधों को दवा में बदलकर बेचने के लिए जांच के दायरे में आ गई हैं.
इस तरीके की आलोचना करने वाले इसे सांस्कृतिक विनियोग यानी कल्चरल एप्रोप्रिएशन कहते हैं. वहीं, जब किसी पौधे या फसल के औषधीय गुणों से जुड़े पारंपरिक ज्ञान को बिना उस समुदाय की सहमति के इस्तेमाल किया जाता है, तो उसे बायोपाइरेसी कहा जाता है. डब्ल्यूआईपीओ में पारंपरिक ज्ञान विभाग के निदेशक वेंड वेंडलैंड ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह ज्ञान वास्तव में मौजूदा आईपी सिस्टम, जैसे कि पेटेंट या कॉपीराइट सिस्टम के ढांचे में फिट नहीं बैठता है.”
हालांकि, इस क्षेत्र में कानूनी सुरक्षा के बारे में चर्चा 1995 में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के गठन के बाद से ही शुरू हो गई थी. इस वजह से डब्ल्यूटीओ के सभी सदस्य देशों में लागू करने के लिए, इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी के अधिकारों के लिए अंतरराष्ट्रीय मानकों वाला नया सेट बनाया गया. हालांकि, यह सिस्टम सभी विकासशील देशों के अनुकूल नहीं था.
उदाहरण के लिए, इस सिस्टम के आने के बाद भारत में एक परेशान करने वाली खोज सामने आई. अमेरिका जैसे औद्योगिक देश उन उत्पादों पर कई पेटेंट करा रहे थे जो भारत में सदियों से चली आ रही परंपराओं का हिस्सा थे. भारत की ट्रेडिशनल नॉलेज डिजिटल लाइब्रेरी (टीकेडीएल) इकाई की प्रमुख विश्वजननी सत्तीगेरी ने डीडब्ल्यू को बताया, "मेरा मतलब घाव भरने के लिए हल्दी का इस्तेमाल करने, फफूंद को हटाने के लिए बासमती चावल का इस्तेमाल करने जैसी चीजों से है.”
विरासत और ज्ञान के नुकसान को रोकना
आखिर असल समस्या क्या है? इसके जवाब में सत्तीगेरी ने कहा, "जब पारंपरिक ज्ञान का पेटेंट किसी तीसरे पक्ष को दिया जाता है, तो वह पक्ष औपचारिक रूप से ऐसे ज्ञान का मालिक बन जाता है. वहीं, दूसरी ओर मूल देश अपनी विरासत और अपना पारंपरिक ज्ञान खो देता है.”
हालांकि, यह स्थिति अब बदल सकती है. मई में, डब्ल्यूआईपीओ के 193 सदस्य देश एक मंच पर बातचीत कर रहे हैं. उम्मीद है कि यह मंच इन पारंपरिक ज्ञान को लुटने से बचाने के लिए ऐतिहासिक संधि पर सहमत होने का अंतिम चरण हो सकता है. डब्ल्यूआईपीओ ने उन चीजों को तीन क्षेत्रों में बांटा है जिन्हें वह मौजूदा सिस्टम के तहत असुरक्षित मानता है: आनुवंशिक संसाधन, पारंपरिक ज्ञान, और पारंपरिक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति. आनुवंशिक संसाधन पौधे और जानवर जैसी जैविक चीजें हैं जिनमें आनुवंशिक जानकारी होती है. जबकि, पारंपरिक ज्ञान समुदायों के भीतर पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही जानकारी है, जिसे आमतौर पर जुबानी बताया जाता है.
इसमें जैव विविधता, भोजन, कृषि, स्वास्थ्य देखभाल आदि के बारे में ज्ञान शामिल हो सकता है. पारंपरिक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में कलात्मक रचनाएं शामिल होती हैं जो किसी समूह की विरासत और पहचान को दिखाती हैं, जैसे संगीत, कला और डिजाइन. डॉर्निस ने कहा, "यह इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी की मूल समझ को बदल देता है. यह उस सिस्टम को खत्म कर सकता है जिसके तहत यह कहा जाता है कि कई चीजें असुरक्षित हैं.”
मौजूदा आईपी कानून के तहत, एक तय समय-सीमा के बाद मूल रचनाओं के लिए कानूनी सुरक्षा समाप्त हो जाती है. हालांकि, कई पारंपरिक प्रथाएं सैकड़ों वर्षों या उससे अधिक समय पहले विकसित हुईं और तब से चली आ रही हैं, तो मौजूदा कानून के तहत इसका मतलब है कि उन्हें अब संरक्षित नहीं किया जाएगा. इन प्रथाओं का कोई एक आविष्कारक भी नहीं होता जिसे श्रेय दिया जा सके. यह सामूहिक ज्ञान होता है और इसे किसी खास समुदाय या क्षेत्र से जोड़ना मुश्किल हो सकता है.
किसी तीसरे पक्ष के लिए दूसरी जगह आना, उस समुदाय के बीच रहकर उनसे ज्ञान हासिल करना, अपने देश लौट जाना और जो सीखा है उसके आधार पर अपने देश में पेटेंट के लिए आवेदन करना आसान होता है. डॉर्निस कहते हैं कि इससे अधिकांश विकसित देशों के लिए यह कहना संभव हो जाता है कि हम आपसे यह ले लेंगे और आपको इसके लिए किसी तरह का भुगतान भी नहीं करेंगे. वहीं, अगर आपको किसी दवा के आविष्कार और ऐसे चिकित्सा उत्पाद की जरूरत है जो उनके आनुवंशिक संसाधन या पारंपरिक ज्ञान पर आधारित है, तो आपको उस दवा के लिए भुगतान करना होगा क्योंकि उसे पेटेंट के तहत सुरक्षित करा लिया गया है.
खुलासा और मुआवजा
मई में हो रही बैठक में सिर्फ आनुवंशिक संसाधनों पर ध्यान दिया जा रहा है. साथ ही, इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि एक ऐसा कानून अपनाया जाए जिसके तहत डब्ल्यूआईपीओ के सदस्य देशों में पेटेंट के लिए आवेदन करने वालों को यह खुलासा करना होगा कि उन्होंने जिस पौधे या संबंधित ज्ञान का इस्तेमाल करने की योजना बनाई है, उसे उन्होंने कहां से हासिल किया और क्या उन्हें इसका इस्तेमाल करने की अनुमति मिली है. अगर यह संधि पारित हो जाती है, तो फिर ध्यान इस बात पर दिया जाएगा कि पारंपरिक ज्ञान और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को क्या माना जाए और इसकी स्पष्ट परिभाषाएं तय की जाएं.
इस मसौदा कानून के तहत ऐसा डेटाबेस बनाने की मांग की गई है जिस तरह से सत्तीगेरी ने तैयार किया है. भारत का टीकेडीएल वैश्विक स्तर पर अपनी तरह का पहला डेटाबेस है. यहां वर्षों से संस्कृत सहित अन्य भाषाओं में लिखे गए प्राचीन भारतीय ग्रंथों का अनुवाद किया जा रहा है. उनसे जानकारी हासिल कर डेटाबेस में इकट्ठा की जा रही है. ऐसा करने से यह डेटाबेस भारत के पारंपरिक ज्ञान का रिकॉर्ड बन गया है, जिसे पेटेंट अधिकारी जांच के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं.
सत्तीगेरी कहती हैं, "हमने आयुर्वेद और यूनानी जैसी भारतीय चिकित्सा प्रणालियों पर विशेष ध्यान केंद्रित किया है. साथ ही, भारतीय योग पद्धति और सौंदर्य प्रसाधन के बारे में भी जानकारी इकट्ठा की है. हमारे पास स्वास्थ्य से जुड़ी कई तरह की जानकारियों का भी रिकॉर्ड है. इनमें जानवरों और पौधों के स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी भी है.”
पेटेंट के लिए किए गए किसी आवेदन की समीक्षा करते समय अधिकारी इस तरह के डाटाबेस की मदद से यह जांच कर सकते हैं कि क्या ऐसा कुछ पहले से मौजूद है या नहीं. डेटाबेस से देशों को उन पेटेंट पर भी नजर रखने में मदद मिलेगी जो उनकी सीमाओं के भीतर हासिल किए गए ज्ञान या संसाधनों पर आधारित हैं.
जैव विविधता से समृद्ध देश दशकों से ऐसी जानकारी देने के नियमों और डेटाबेस बनाने की मांग कर रहे हैं. अगर यह समझौता पारित हो जाता है, तो मुआवजे से जुड़ी नई शर्तों की जरूरत नहीं होगी. हालांकि, मौजूदा पर्यावरण कानून के तहत पहले से ही यह जरूरी है कि आविष्कार से होने वाले किसी भी आर्थिक लाभ को उस देश के साथ साझा किया जाए जहां से यह ज्ञान मिला है. इसलिए, ज्ञान हासिल करने की जगह के खुलासे से जुड़ा कानून बन जाने के बाद इन देशों को अधिक वित्तीय मुआवजा मिल सकता है.
डब्ल्यूआईपीओ से जुड़े वेंडलैंड ने कहा कि कई विकासशील देश इस कानून को ‘एक महत्वपूर्ण कदम' के तौर पर देखते हैं. यही कारण है कि यह उनके लिए काफी मायने रखता है. हालांकि, यह काफी तकनीकी मामला है, लेकिन इसका एक लंबा इतिहास है. यह कई देशों के लिए, विशेष रूप से विकासशील दुनिया के देशों के लिए बहुत प्रतीकात्मक है.