शोर तो करना ही पड़ेगा
२५ जून २०१३भारतीय राज्य उड़ीसा में दुनिया भर की बड़ी बड़ी कंपनियों की खनन में दिलचस्पी किसी से छुपी नहीं है, लेकिन इसके बदले कुर्बान हो रहे हैं आदिवासियों के घर, जंगल और प्रकृति. गांवों में हो रहा विस्थापन आर्थिक विकास की ओर तो इशारा कर सकता है, लेकिन इसके परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं यह उत्तराखंड में आई आपदा में दिख रहा है.
फिल्म निर्माता और सामाजिक कार्यकर्ता सूर्या शरण दाश 2005 से उड़ीसा में आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं और डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाकर दुनिया भर को उनकी स्थिति से अवगत करा रहे हैं. उन्होंने डॉयचे वेले के सालाना ग्लोबल मीडिया फोरम में हिस्सा लिया. उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश
फोरम में वर्कशॉप के दौरान आपने कहा कि भारत में नागरिकों के अधिकारों के लिए कानून तो हैं लेकिन वे उड़ीसा में काम नहीं कर पा रहे हैं. इसके पीछे क्या कारण दिखता है आपको?
भारत में आर्थिक विकास की राह में बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों का सरकार पर भी भारी प्रभाव है. सरकार ने खुद ऐसी कंपनियों के साथ करार कर रखा है जो नागरिक अधिकारों का हनन कर रही हैं. ऐसे में आप कानून के सुचारू रूप से काम करने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? इसमें कई बड़ी समस्याएं शामिल हैं, भ्रष्टाचार के अलावा अंतरराष्ट्रीय आर्थिक बल इतना मजबूत हो गया है कि वह किसी को भी अपनी ओर खींच सकता है और यही भारत में हो रहा है.
सोचने वाली बात यह है कि भारत में अभी भी भूमि अधिग्रहण कानून वही है जो 1894 में अंग्रेजों के जमाने में ज्यादा से ज्यादा जमीन लोगों से सरकार के कब्जे में रखने के उद्देश्य से बना था. इसे बदलने के लिए पिछले तीन सालों से पार्लियमेंट में बात हो रही है लेकिन विदेशी कंपनियों का दबाव वहां भी इतना है कि वे इसे पास होने ही नहीं देना चाहतीं.
आप इस दिशा में क्या कर रहे हैं?
हम उड़ीसा के आदिवासियों पर हो रहे जुल्म को दिखाने वाली तीस से ज्यादा डॉक्यूमेंट्री फिल्में बना चुके हैं, जिन्हें हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं. छोटे छोटे कस्बों से लेकर ऑनलाइन तक इन फिल्मों को दिखा कर हम लोगों को न्याय की इस लड़ाई में शामिल करना चाहते हैं.
कभी इन फिल्मों को आपने सरकार तक पहुंचाने की कोशिश की?
जी हां, हम हमेशा कोशिश करते हैं. लेकिन ऐसा लगता है जैसे सरकार को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता. हालांकि एक बार हमें इसकी मदद से बड़ी सफलता जरूर मिली. ब्रिटिश कंपनी वेदांता रिसोर्सेस के मामले में एक जन सुनवाई हुई, जिसमें कंपनी के गुंडों ने लोगों को मारपीट कर सुनवाई होने ही नहीं दी और उड़ीसा राज्य प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड ने अपनी रिपोर्ट में पब्लिक हियरिंग को संपन्न हुआ दिखाया. लेकिन हमने यह सारा मामला रिकॉर्ड किया था जिसे कि स्वास्थ्य एवं पर्यावरण मंत्रालय में दिखाया गया. इसके बाद उन्होंने इस मामले की छानबीन की और आखिर वेदांता का पर्यावरण क्लियरेंस सर्टिफिकेट रद्द हो गया. तो हां कुछ मामलों में सफलता मिली है जिससे हमारी हिम्मत भी बंधती है लेकिन ज्यादातर मामलों में सरकार की तरफ से भी कोई ढंग की प्रतिक्रिया नहीं मिलती.
इस काम में आपको किसी तरह का कोई खतरा भी है?
हमें बराबर धमकियां मिलती रहती है. मुझ पर भी हमला हो चुका है और पिछले दिनों मेरे एक साथी पर भी हमला हुआ जब वह आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार को रिकॉर्ड करने की कोशिश कर रहा था. मारपीट कर उसे जेल में डाल दिया गया. मेरे एक साथी को छत्तीसगढ़ में माओवादी कह कर जेल में डाल दिया गया. फिर उनको छुड़वाने के लिए भागा भागी करनी पड़ती है. इस काम में हम हर दिन अपनी जान पर खेल रहे होते हैं, पुलिस भी हमारे खिलाफ ही होती है. हर समय हम पर निगरानी रहती है कि हम कब क्या कर रहे हैं, कहां जा रहे हैं और इससे निबटने के लिए अभी तक हमारे पास कोई साधन नहीं है.
आपके इस अभियान से अभी तक कितने लोग जुड़े हैं और क्या फायदा देखने को मिल रहा है?
जैसे कि मैने बताया कि वेदांता प्रोजेक्ट में हमें सफलता मिली. इसके अलावा कई और नौजवान हमसे जुड़ गए हैं. हमारी देखा देखी अब और लोग भी इस तरह के मुद्दों पर फिल्में बनाकर छोटे छोटे शहरों में जाकर लोगों को ये फिल्में दिखा रहे हैं. हमसे प्रेरित होकर पश्चिम बंगाल में भी लोगों ने एकजुट हो कर विरोध करना शुरू किया. हमें भूलना नहीं चाहिए कि हम भारत में हैं जो कि एक लोकतांत्रिक देश है. लोकतंत्र का मतलब है लोगों के लिए और लोगों के द्वारा. असल लोकतंत्र वही है जिसमें सरकार और बड़े निवेषकों के आर्थिक हितों के बजाए जनता के हित की बात हो और इस दिशा में काम करना ही हमारा उद्देश्य है.
आप इस अभियान से जुड़े कैसे?
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं दिल्ली में एक विज्ञापन कंपनी में काम करने लगा जहां मुझे लगा हम उपभोक्ताओँ से झूठ बोल रहे हैं. वह नौकरी छोड़ कर मैं मुंबई फिल्में बनाने चला गया और फिर कुछ समय बाद वापस दिल्ली आकर बतौर पत्रकार काम करने लगा. इसी बीच मुझे एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने के लिए उड़ीसा भेजा गया. वहां जाकर मैंने जब लोगों की स्थिति देखी, उनके साथ हो रही मारपीट, उनके अधिकारों का हनन और आदिवासी लड़कियों के साथ पुलिस वालों की बदसलूकी, तभी मैंने महसूस किया कि मेरी सबसे ज्यादा जरूरत यहीं है. मैं खुद भुवनेश्वर से ही हूं और अपने प्रदेश के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझ कर 2005 से आज तक मैं इसी काम में लगा हूं. कई बार मुझे लगता भी है कि मेरी उम्र के दूसरे लोग चुपचाप एक सुकून की नौकरी कर रहे हैं और किसी पचड़े में नहीं फंसे हैं. लेकिन फिर सोचता हूं जिस काम की जिम्मेदारी उठाई है वह अब बीच में नहीं छोड़ सकता.
आगे क्या उम्मीद है?
जमीन पर भले ही हमारी लड़ाई में लोग हार रहे हों लेकिन उसकी गूंज दूर दूर तक फैल रही है, जो कि एक दिन रंग जरूर लाएगी. यहां ग्लोबल मीडिया फोरम में भी मुझे एक बढ़िया मंच मिला, लोगों के सामने सच्चाई को लाने का और अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान इस ओर खींचने का.
हमारे जैसे छोटे छोटे मोर्चे भारत भर में खुल रहे हैं. परिणाम यह हुआ है कि पुलिस को भी अब कोई भी अत्याचारी कदम उठाने से पहले एक बार सोचना पड़ता है. कुछ फर्क तो पड़ा ही है. लोग धीरे धीरे लोकतंत्र की असल ताकत को समझ रहे हैं.
इंटरव्यू: समरा फातिमा
संपादन: महेश झा