मणिपुर: नाकेबंदियों में पिसते आम लोग
१३ अक्टूबर २०११दो नेशनल हाइवे के जरिए यह राज्य देश के बाकी हिस्सों से जुड़ा है. लेकिन बीती 31 जुलाई को आधी रात से पहले एक हाइवे की नाकेबंदी की गई और फिर 21 दिनों बाद दूसरे की. इन दोनों हाइवे को मणिपुर की जीवनरेखा कहा जाता है. लेकिन नाकेबंदी के दबाव में यह जीवनरेखा लगातार कमजोर होती जा रही है. खाने-पीने के सामान से लेकर रोजमर्रा की जरूरत की तमाम वस्तुएं इनसे होकर ही राज्य में पहुंचती हैं हाइवे पर नाकेबंदी के चलते ट्रकों की आवाजाही ठप है. नतीजतन राज्य में जरूरी वस्तुओं की भारी किल्लत हो गई है. इसकी वजह से आम लोगों की परेशानियां लगातार बढ़ती ही जा रही हैं.
नए जिले पर गतिरोध
दरअसल, यह पूरा विवाद एक नए जिले के गठन के सवाल पर पैदा हुआ है. कूकी जनजाति के लोग लंबे अरसे से सदर सदर हिल्स को नया जिला बनाने की मांग कर रहे हैं. लेकिन जब सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया तो उनके संगठन सदर हिल्स जिला मांग समिति ने 31 जुलाई को एक हाइवे की नाकेबंदी कर दी. दूसरी ओर, राज्य में रहने वाले नगा जनजाति के लोग इस मांग के खिलाफ हैं. उनका कहना है कि नगा बहुल इलाकों को नए जिले में शामिल नहीं करने दिया जाएगा. सदर हिल्स को जिले का दर्जा देने के प्रयासों के विरोध में नगा संगठन यूनाइटेड नगा काउंसिल ने 21 अगस्त से दूसरे और आखिरी हाइवे की नाकेबंदी कर दी है. यह पर्वतीय राज्य अपनी जरूरतों के लिए देश के दूसरे राज्यों पर आधारित है. लेकिन हाइवे की नाकेबंदी के कारण बाहर से सामान यहां नहीं पहुंच पा रहा है. इससे नगालैंड-मणिपुर सीमा पर ट्रकों और माल ढोने वाले दूसरे वाहनों की सैकड़ों मील लंबी कतार लग गई है. आंदोलनकारियों ने राज्य में घुसने की कोशिश कर रहे कई वाहनों को भी जला दिया है. हरियाणा से गेहूं लेकर मणिपुर जाने वाले हरजिंदर बीते 25 दिनों से नाकेबंदी खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं. उनकी तरह सैकड़ों ट्राइवर हाइवे पर दिन काट रहे हैं. सरकार ने सुरक्षा बलों की निगरानी में कुछ जरूरी वस्तुएं मंगाई जरूरी हैं. लेकिन वह मांग के मुकाबले नाकाफी है.
जरूरी चीजों की किल्लत
बाहर से दो महीने से भी ज्यादा समय से जरूरी चीजों की सप्लाई नहीं होने की वजह से बाजार में कुछ भी उपलब्ध नहीं है. नतीजतन जो चीजें हैं उनकी कीमतें आसमान छू रही हैं. मिसाल के तौर पर चार सौ रुपये का रसोई गैस सिलेंडर दो हजार रुपये में बिक रहा है. राजधानी इंफाल में एक गृहिणी वाई चोंबाम कहती हैं, "आखिर हम पैसे कहां से लाएं? हम एक सिलेंडर के लिए दो हजार रुपये खर्च करने की स्थिति में नहीं हैं. समझ में नहीं आता कि आगे क्या होगा? बाकी चीजों का भी यही हाल है." पेट्रोल डेढ़ से दो सौ रुपये लीटर तक मिल रहा है. हालात पर काबू पाने के लिए सरकार ने दिन में महज कुछ घंटों के लिए पेट्रोल पंपों को खोलने की अनुमति दी है. अपनी बारी के इंतजार में तमाम वाहन मालिक दो दो दिनों तक कतार में खड़े इंतजार कर रहे हैं. आलू 50 रुपये किलो बिक रहा है तो प्याज सौ रुपये. दो महीने पहले तक 20-25 रुपये प्रति किलों बिकने वाला चावल के लिए अब कम से कम साठ रुपये खर्च करने पड़ते हैं. सरकार ने व्यापारियों को कालाबाजारी के खिलाफ सख्त चेतावनी दी है. लेकिन हालात जस के तस हैं. आसमान छूती महंगाई से आजिज आकर राज्य की महिलाओं ने राजधानी इंफाल में प्रदर्शन भी किया है.
सरकार की चुप्पी
लंबी आर्थिक नाकेबंदी के बावजूद राज्य में कांग्रेस की अगुवाई वाली साझा सरकार ने अब तक इस मामले में कोई ठोस पहल नहीं की है. विभिन्न संगठनों ने उससे नाकेबंदी खत्म करने की दिशा में ठोस कदम उठाने की अपील की है. लेकिन उसने पूरी तरह चुप्पी साध रखी है. मुख्यमंत्री ओकराम ईबोबी सिंह ने अब तक इस गतिरोध पर कोई टिप्पणी नहीं की है. केंद्र सरकार ने भी सुरक्षा बलों की कुछ बटालियनों को भेज कर अपना कर्त्तव्य पूरा कर लिया है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सरकार की चुप्पी की ठोस राजनीतिक वजह है. राज्य में अगले साल फऱवरी में विधानसभा चुनाव होने हैं. इसलिए सरकार किसी तबके को नाराज नहीं करना चाहती. वह चाहती है कि सांप भी मर जाए और लाठी भी नहीं टूटे. नगा और कुकी में से किसी भी जनजाति की नाराजगी चुनाव में किसी राजनीतिक पार्टी के लिए भारी पड़ सकती है. ऐसे में सरकार चाहती है कि थक हार कर दोनों संगठन खुद ही नाकेबंदी खत्म कर लें.
आर-पार की लड़ाई की तैयारी
हाइवे की नाकेबंदी करने वाले दोनों संगठन इस बार आर-पार की लड़ाई के मूड में हैं. सदर हिल्स जिला मांग समिति के एक प्रवक्त पी. खोंगजाम कहते हैं, "हम लंबे समय से सदर हिल्स को जिले का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं. लेकिन सरकार ने अब तक इस पर ध्यान नहीं दिया है. इसलिए आखिरी विकल्प के तौर पर हमने नाकेबंदी का रास्ता चुना. अब मांग पूरी नहीं होने तक यह लड़ाई जारी रहेगी." समिति का कहना है कि प्रस्तावित जिले का क्षेत्रफल 1,696 वर्ग किलोमीटर और आबादी 1.9 लाख है. दूसरी ओर, नगा संगठन यूनाइटेड नगा काउंसिल ने भी अपने पैर पीछे नहीं खींचने की बात कही है. उसकी दलील है कि जिन इलाकों को मिला कर नया जिला बनाने की बात हो रही है उनमें से ज्यादातर नगा-बहुल है. नगा इलाकों को किसी भी कीमत पर नए जिले में शामिल नहीं किया जा सकता. सदर हिल्स इलाका फिलहाल सेनापति जिले में है.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि किसी भी नए जिले के गठन से पहले कुछ तथ्यों को ध्यान में रखना जरूरी है. पूरे राज्य का क्षेत्रफल असम के एक जिले से भी कम है. इसके अलावा राज्य में पहले से ही नौ जिले हैं. ऐसे में एक और नए जिले का गठन तार्किक नहीं है. इससे राज्य पर आर्थिक बोझ भी बढ़ेगा. पर्यवेक्षक कहते हैं कि दोनों जनजातियों के बीच संभावित हिंसक संघर्ष की आशंका से ही केंद्र या राज्य सरकार नाकेबंदी हटाने के लिए सुरक्षा बलों का इस्तेमाल करने से बच रही है.
पुराना है नाकेबंदी का इतिहास
मणिपुर में नाकेबंदी और पाबंदी का इतिहास काफी पुराना है. यहां विभिन्न संगठन अक्सर सरकार पर दबाव बनाने के लिए इस हथियार का इस्तेमाल करते रहे हैं. वर्ष 2005 में 18 जून को एकता दिवस के तौर पर मनाने के राज्य सरकार के फैसले के विरोध में अखिल नगा छात्र संघ ने राज्य में 52 दिनों तक आर्थिक नाकेबंदी की थी. इसके बाद बीते साल जब सरकार ने अलगाववादी नगा नेता और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड के महासचिव टी मुइवा के मणिपुर में प्रवेश पर पाबंदी लगाई थी तो नगा संगठनों ने 68 दिनों तक नाकेबंदी की थी. इसके अलावा दूसरे संगठन भी जब तब अपनी मांगों के समर्थन में मणिपुर की जीवनरेखा कहे जाने वाले हाइवे का दम घोंटते रहे हैं. राज्य के वित्त विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, ताजा नाकेबंदी के चलते राज्य को ढाई सौ करोड़ से ज्यादा का नुकसान हो चुका है. यह देश का अकेला ऐसा राज्य है जब अपनी मर्जी के मुताबिक खबरें नहीं छपने पर विभिन्न उग्रवादी संगठन मीडिया पर पाबंदी लगा देते हैं. कभी वे किसी अखबार का प्रकाशन रोक देते हैं तो कभी बिक्री.
समाधान कब तक
आखिर नाकेबंदी की मौजूदा समस्या कब खत्म होगी? राज्य के लोग रोज यही सवाल पूछ रहे हैं. लेकिन किसी के पास इस लाख टके के सवाल का कोई जवाब नहीं है. खाने पीने से लेकर तमाम दूसरी वस्तुओं की कीमतें दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही हैं. लेकिन न तो सरकार कुछ कर रही है और न ही कूकी और नगा संगठन अपनी-अपनी नाकेबंदी खत्म करने को तैयार हैं. ऐसे में आम लोग शायद अभी लंबे समय तक दो चक्की के पाटों के बीच पिसने को मजबूर हैं.
रिपोर्ट: प्रभाकर, कोलकाता
संपादन: ओ सिंह