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जर्मनी आने वालों को नौकरी की मुश्किल

३० जुलाई २०१२

जर्मनी में शरणार्थियों को पहले साल काम करने की इजाजत नहीं मिलती. यूरोपीय संघ ने इसे घटा कर छह महीने करने का फैसला किया है. बावजूद इसके जर्मनी में कठिनाई दूर होती नहीं दिख रही.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

फॉर्म भरना, अधिकारियों की अनुमति का इंतजार और किसी तरह समय काटना जर्मनी में राजनीतिक शरणार्थियों का दिन ऐसे ही गुजरता है. यहां की संघीय सांख्यिकी विभाग के मुताबिक 130,000 शरणार्थियों में से सिर्फ 3.7 फीसदी ऐसे हैं जिनके पास नौकरी है. उनमें से भी एक तिहाई ही पूरे वक्त काम करते हैं बाकियों के पास पार्ट टाइम जॉब है.

ऐसा नहीं कि ये लोग काम नहीं करना चाहते. वो तो के लिए परेशान हैं लेकिन सरकार से इजाजत नहीं मिलती. जर्मनी आने के पहले 12 महीनों में तो बिलकुल नहीं. इसके बाद अधिकारी चाहें तो उन्हें वर्क परमिट दे सकते हैं लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है. यूरोपीय संघ का नया दिशा निर्देश इसे भविष्य में बदल सकता है. इसके मुताबिक केवल नौ महीने बाद ही शरणार्थियों को पूरे यूरोपीय संघ में कहीं भी काम की इजाजत दे दी जाएगी. इस फैसले को सभी 27 सदस्य देशों ने मंजूरी दे दी है.

आर्थिक प्रवासियों पर रोक

यूरोपीय संघ ने नए दिशा निर्देश के जरिए बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की है. यूरोपीय आयोग काम न करने की अवधि को घटा कर छह महीने करना चाहता था जबकि जर्मनी इसे 12 महीने पर ही बनाए रखने पर अड़ा था. जर्मनी की दलील है कि वह शरणार्थियों के अधिकार के दुरुपयोग को रोकना चाहता है. जर्मन गृह मंत्री ने डीडब्ल्यू से कहा कि जर्मनी नहीं चाहता कि, "सिर्फ आर्थिक वजहों से यहां शरण लेने वालों को रोकना है."

आलोचक लंबे समय से ऐसे नियमों का विरोध कर रहे हैं. शरण लेने वालों को सरकार की दया पर जीना पड़ता है. बिना काम के उनके लिए जर्मन समाज में घुल मिल पाना मुश्किल होता है. इसके साथ ही नीरस और निरर्थक जिंदगी उन्हें अपमानित करती है. शरणार्थियों की मदद करने वाले गैरसरकारी संगठन प्रो एसाइल से जुड़े बर्न्ड मेसोविच का कहना है कि शरणार्थी आर्थिक वजह से किसी देश का चुनाव करें, ऐसा बहुत कम होता है, "प्रवासियों का आना इस बात पर निर्भर है कि क्या वो वहां जा सकेंगे और उस देश के साथ उनका रिश्ता कैसा होगा." ज्यादातर लोग ऐसे देश में जाना चाहते हैं जहां उन्हें दोस्त और रिश्तेदार मिल सकें, वो वहां की भाषा बोल सकें.

मेसोविच का कहना है कि ऐसी कोई चिंता नहीं कि शरणार्थी जर्मन लोगों से मुकाबला कर उनकी नौकरी हथिया लेंगे. उनका कहना है कि ज्यादातर लोगों के पास तो इतनी योग्यता भी नहीं, न तो उनके पास डिग्री है, न पेशेवर कुशलता और अगर हो भी तो जर्मनी में उसकी मान्यता नहीं. मेसोविच कहते हैं, "बाजार खुद ही अपने आप को नियंत्रित कर लेगा." जर्मन नीति के दूसरे आलोचकों की तरह मेसोविच ने भी शरणार्थियों के नौकरी पर पाबंदी हटाने की मांग की है.

रोजगार की दिक्कत

जमीनी स्तर पर जर्मनी में किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं है. जर्मनी आने के पहले चार सालों में रोजगार देने वाली एजेंसी किसी भी नौकरी के लिए देखती है कि उस काबिल कोई जर्मन या यूरोपीय संघ का नागरिक तो मौजूद नहीं है. मेसोविच के मुताबिक, "ऐसे में बाहरी लोगों को नौकरी मिलना बेहद मुश्किल है." इसके अलावा शरणार्थी देश के दूसरे हिस्से में नहीं देख पाते कि वहां क्या हो रहा है क्योंकि उन्हें किसी एक जगह पर ही अपनी मौजूदगी दर्ज करानी होती है. मेसोविच का कहना है कि इसके अलावा भी नौकरी पाने की राह में बहुत सारी दिक्कतें हैं. उनका कहना है कि शरणार्थियों को नौकरी के लिए ट्रेनिंग की व्यवस्था होनी चाहिए.

जर्मनी का गृह मंत्रालय यूरोपीय संघ के नए दिशा निर्देशों की वजह से कोई बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं कर रहा है. मंत्रालय के प्रवक्ता के मुताबिक वो शरण मांगने के आवेदनों में ज्यादा इजाफा होने की भी उम्मीद नहीं कर रहे. इसकी एक वजह यह भी है कि जर्मनी में आवेदन की प्रक्रिया बहुत लंबी है जिसके पूरा होने में छह महीने तक लग जाते हैं.

यूरोपीय संघ के फैसले पर आधिकारिक फैसला इस साल अक्टूबर तक आने की उम्मीद है. इसके बाद यूरोपीय संघ की संसद इस पर बहस कर अपना फैसला सुनाएगी. जाहिर है कि इसे फैसले पर अमल होने में सालों लगेंगे.

रिपोर्टः क्रिस्टीना रुता/ एनआर

संपादनः ए जमाल

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