1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

बूढ़े होते जर्मनी को कामगारों की सख्त जरूरत

१४ अगस्त २०११

जर्मनी की जनसंख्या 8 करोड़ है जो 2050 तक बढ़कर सिर्फ 12 करोड़ हो पाएगी. यानी ज्यादातर लोग बूढ़े होंगे. तब काम कौन करेगा? क्या जर्मनी इस बात को समझ रहा है?

https://p.dw.com/p/12GG9
तस्वीर: AP

सिमेंस में काम कर रहे भारतीय मूल के प्रोग्रामर मोहन सहदेवन को बर्लिन में एक अन्य सॉफ्टवेयर कंपनी में नौकरी मिल गई. सहदेवन ने इसके लिए जब मौजूदा नौकरी छोड़नी चाही तो उन्हें बताया गया कि ऐसा नहीं हो सकता. उन्हें जर्मनी छोड़ना होगा क्योंकि उनका वर्क परमिट ट्रांसफर नहीं किया जा सकता.

40 साल के सहदेवन ने आखिरकार बर्लिन में नई नौकरी हासिल कर ली. लेकिन इस सब से निपटने में उन्हें पांच महीने लगे. और कानूनी पचड़े सुलझाने पड़े सो अलग. वह बताते हैं, "असल में जब मैंने इस्तीफा दिया तो मेरा वर्किंग वीजा अमान्य हो गया."

जर्मनी इस वक्त दो तरह की समस्याओं से जूझ रहा है. यूरोपीय संघ के बाहर से आने वाले कुशल कामगारों के लिए सख्त नियम और इंजीनियरों व अन्य कुशल कामगारों की भारी किल्लत. ऐसा माना जा रहा है कि देश की बूढ़ी होती जनसंख्या और घटती जन्मदर के कारण यह समस्या और बढ़ेगी.

कहां कहां दिक्कत

मोहन सहदेवन की नई कंपनी डाटानगो के वाइस प्रेजीडेंट स्टीफान डाहल्के कहते हैं, "जब भी हम यूरोपीय संघ के बाहर से किसी व्यक्ति को नौकरी पर रखते हैं तो हमें दुनिया भर की दफ्तरशाही से गुजरना पड़ता है. इसमें वक्त तो बहुत खराब होता ही है, पैसा भी बहुत खर्च होता है."

मौजूदा जर्मन नियमों के तहत अगर कोई कंपनी किसी विदेशी को नौकरी पर रखना चाहे, तो सबसे पहले उसे यह साबित करना होता है कि यूरोपीय संघ में उस नौकरी के लिए उसे कोई काबिल आदमी नहीं मिला. इसके अलावा यूरोपीय संघ से बाहर के लोगों को वीजा तभी मिलता है जब नौकरी देने वाली कंपनी उन्हें कम से कम 66 हजार यूरो सालाना की तन्ख्वाह दे. यह जर्मनी की औसत सालाना आय का दोगुना है.

Angela Merkel Gruppenbild Thema Integration Flash-Galerie
तस्वीर: AP

यूरोपीय संघ के बाकी देशों में तो और भी सख्त नियम हैं. इमिग्रेशन एक्सपर्ट कहते हैं कि यह सख्ती कुशल विदेशी कामगारों को यूनाइटेड किंगडम या आयरलैंड जैसे मुल्कों की ओर जाने को मजबूर कर रही है जहां उनके लिए ज्यादा सुविधाएं हैं.

जर्मनी की हालत

जर्मनी की हालत तो यह है कि पिछले साल यूरोपीय संघ के बाहर से सिर्फ 691 कुशल और प्रशिक्षित कामगारों ने स्थायी निवास के लिए अर्जी दी. जर्मनी में इंजीनियर्स के संघ वीडीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक जून महीने में देश में इंजीनियरों के लिए 76 हजार खाली जगहें थीं. 2009 में यह तादाद सिर्फ 30 हजार थी. संघीय श्रम विभाग कहता है कि यह किल्लत डॉक्टरों, फार्मासिस्टों, आईटी स्पेशलिस्ट, सामाजिक कार्यकर्ताओं और स्वास्थ्य से जुड़े दूसरे कामों में भी फैल रही है.

जर्मनी चैंबर्स ऑफ इंडस्ट्री एंड कॉमर्स (डीआईएचके) के एक सर्वे के मुताबिक 32 फीसदी कंपनियों का मानना है कि कामगारों की कमी उनकी तरक्की की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है. पिछले साल ऐसा मानने वाली कंपनियों की तादाद 16 फीसदी थी. डीआईएचके के अध्यक्ष हांस हाइनरिष ड्रिफ्टमान बताते हैं, "जर्मन कंपनियों को अपने यहां खाली जगह भरने में खासी दिक्कत आ रही है."

संवेदनाएं और राजनीति

जर्मनी में इमिग्रेशन यानी प्रवासन एक संवेदनशील और राजनीतिक रूप से गर्म मुद्दा है. अमेरिका और रूस के बाद जर्मनी प्रवासियों की जनसंख्या के लिहाज से दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश बन चुका है. यहां एक करोड़ से ज्यादा प्रवासी रहते हैं. 1960 और 1970 के दशक में रूस और जर्मनी ने बाहर से जमकर कामगारों को बुलाया था. इनमें 30 लाख तो तुर्की से ही आए थे. लेकिन अब यह सवाल अक्सर उठता है कि ये लोग समाज में घुलमिल पाए या नहीं.

Fragezeichen
यही है वह 'सवाल का निशान' जिसे आप तलाश रहे हैं. इसकी तारीख़ 15/08 और कोड 4219 हमें भेज दीजिए ईमेल के ज़रिए [email protected] पर या फिर एसएमएस करें +91 9967354007 पर.तस्वीर: picture-alliance

पिछले साल आई एक किताब ने प्रवासियों के बारे में जर्मनी के विचारों को उघाड़ दिया. राजनेता थिलो सारात्सिन की इस किताब में कहा गया कि तुर्क और अरब मूल के परिवार जर्मन संस्कृति के लिए खतरा हैं.

देश के दक्षिणपंथी राजनेता और कॉन्फेडरेशन ऑफ जर्मन ट्रेड यूनियन्स (डीजेवी) चाहते हैं कि सरकार को नौकरियों के वास्ते बेरोजगार जर्मनों को ही ट्रेनिंग देनी चाहिए. वे लोग इमिग्रेशन के नियमों में बदलाव का विरोध करते हैं. जर्मनी में इस वक्त 7 फीसदी लोग बेरोजगार हैं. दो दशक पहले जब संयुक्त जर्मनी में पहली बार बेरोजगारी के आंकड़े जारी किए गए, तब से यह सबसे कम स्तर पर है. दक्षिणपंथी पार्टी क्रिश्चियन सोशल यूनियन के सांसद गेऑर्ग नुएसलाइन कहते हैं, "जिसके लिए पूरे यूरोपीय संघ के कामगार उपलब्ध हों और जहां दो करोड़ लोग बेरोजगार हों, वहां आपको यूरोपीय संघ के बाहर से लोग लाने की जरूरत है? मैं ऐसा नहीं मानता."

लेकिन, मसला और है

विशेषज्ञ कहते हैं कि बात इतनी साफ नहीं है जितनी ये लोग बना रहे हैं. असल में ये लोग कुशल कामगारों के आने को कम कुशल या अकुशल कामगारों के आने के साथ उलझा रहे हैं. जबकि दोनों अलग अलग बाते हैं. इसलिए कुशल कामगारों के आने में अड़ंगा डालना सही नहीं है. बर्लिन इंस्टिट्यूट फॉर पॉपुलेशन एंड डिवेलपमेंट के राइनेर क्लिंगहोल्त्स कहते हैं, "इमिग्रेशन के बारे में हम हमेशा गुजरे जमाने की दिक्कतों की बात करते हैं. लेकिन भविष्य की चुनौती यही है कि हमें बाहर से लोगों की जरूरत है."

सरकार कामगारों की कमी की इस दिक्कत से वाकिफ है. जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल नियमों में ढील देने का समर्थन करती हैं. मसलन डॉक्टरों या इंजीनियरों को नौकरी देने के लिए यह साबित न करना पड़े कि पूरे यूरोपीय संघ में काबिल उम्मीदवार नहीं है या फिर तन्ख्वाह की सीमा घटाकर 40 हजार यूरो सालाना तक कर दी जाए. लेकिन जानकार इस ढील को काफी नहीं मानते.

संघीय श्रम मंत्रालय के साथ काम करने वाले अर्थशास्त्री और इमिग्रेशन एक्सपर्ट हर्बर्ट ब्रूएकर कनाडा जैसी व्यवस्था के समर्थक हैं जहां प्रवासियों को शिक्षा, अनुभव और भाषा की जानकारी के आधार पर नंबर दिए जाते हैं. वह कहते हैं, "डॉक्टर और इंजीनियरों के लिए ये नियम बड़े पैमाने पर इमिग्रेशन को बढ़ावा नहीं देंगे. अगर हम हर साल एक हजार लोग भी बुला सकें, तो काफी होगा."

लेकिन जब तक ये नियम बदले नहीं जाएंगे या मुद्दे को सही तरीके से समझा नहीं जाएगा, जर्मनी तो समस्या से जूझता ही रहेगा, बाहरी लोग भी उलझन में रहेंगे. सहदेवन अपने 17 साल के बेटे को पढ़ने के लिए जर्मनी बुलाना चाहते हैं. लेकिन वह कहते हैं, "पता नहीं, वीजा मिलेगा या नहीं."

रिपोर्टः एजेंसियां/वी कुमार

संपादनः एन रंजन

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

और रिपोर्टें देखें