क्या बेरोजगार इंजीनियरों से वोट बटोर पाएंगे मोदी?
१४ मार्च २०१९संतोष गौरव ने तकरीबन छह महीने पहले अपनी इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की. कॉलेज जरूर साधारण ही था लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि डिग्री पूरी होने के बाद वह इंडस्ट्रियल ऑटोमेशन में करियर बना पाएंगे. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. आज संतोष पुणे की एक दुकान में मिक्सर, पंखे जैसी घरेलू चीजों को सुधारने का काम करते हैं.
वहीं कभी कबाड़ी या पुराने सामानों को बेचने वाले दुकानदारों से उन्हें खराब एलईडी लाइटें मिल जाती हैं जिसे वह सुधार कर दोबारा बेच देते हैं. इससे उन्हें तकरीबन 3500 रुपये मिल जाते हैं और उनका कमरे का किराया निकल आता है. संतोष कहते हैं कि अब तक उन्होंने अपना तीन लाख का एजुकेशन लोन भरना शुरू नहीं किया है.
ये कहानी सिर्फ संतोष की नहीं है, बल्कि उनके जैसे हजारों छात्र हैं जो नौकरियों के लिए दर-दर भटक रहे हैं. सिविल इंजीनियरिंग से लेकर कंप्यूटर कोडिंग की पढ़ाई करने वाले छात्रों को न केवल नौकरी की चिंता है, बल्कि एजुकेशन लोन भी किसी मानसिक तनाव से कम नहीं है.
प्रधानमंत्री की चिंता
नौकरियों की कमी सिर्फ बेरोजगार युवाओं के लिए ही परेशानी का सबब नहीं है, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी यह परेशानी खड़ी कर सकता है. साल 2014 में सत्ता में आई एनडीए सरकार ने लाखों नई नौकरियों का वादा किया था. ऐसी नौकरियों की बात करते हुए केंद्र सरकार ने अपनी महत्वाकांक्षी योजना मेक इन इंडिया को भी बड़े शोर-शराबे के साथ लॉन्च किया था. अपने भाषणों में मोदी इस पर खूब बातें करते रहे. उन्होंने साल 2022 तक देश भर में 10 करोड़ नौकरियां पैदा करने का वादा कर दिया.
लेकिन चार साल बाद मेक इन इंडिया अभियान का कुछ खास असर नहीं दिखता है. निर्माण क्षेत्र और अन्य सेक्टरों में भूमि और श्रम सुधारों के चलते सुस्ती का आलम है. भारतीय थिंक टैंक सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट कहती है कि भारत में बेरोजगारी दर साल 2018 की तुलना में 2019 में बढ़ी है. फरवरी 2018 में जहां बेरोजगारी दर 5.9 थी, वहीं ये फरवरी 2019 में बढ़कर 7.2 फीसदी तक पहुंच गई है. कई अर्थशास्त्री इस डाटा को सरकारी डाटा के मुकाबले अधिक विश्वसनीय मानते हैं. आलोचक मान रहे हैं देश में बेरोजगारों की बढ़ती फौज प्रधानमंत्री मोदी की सरकार के लिए सत्ता के रास्ते कठिन कर सकती है.
कौशल में कमी
माना जा रहा है कि 40 साल पहले जिस मैन्युफेक्चरिंग बूम ने चीन को आर्थिक प्रगति का रास्ता सुझाया था, वह भारत में इतना कारगर नहीं होगा. कंपनियां अब महज सस्ते श्रम पर भरोसा नहीं कर रही हैं, बल्कि कुशल श्रमिकों को तवज्जो दे रहीं हैं. बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर समेत तकनीकी इनोवेशन और उत्पादकता पर जोर दिया जा रहा है.
स्किल एसेसमेंट कंपनी एस्पायरिंग मांइड्स के सह संस्थापक वरुण अग्रवाल कहते हैं कि नियोक्ता कौशल में कमी की भी शिकायत करते हैं. इनके सर्वे बताते हैं कि भारत में हर साल तैयार होने वाले 80 फीसदी इंजीनियर नौकरी पाने योग्य नहीं हैं. वरुण कहते हैं, "नौकरी पाने की क्षमता पिछले सात सालों में नहीं सुधरी है. कुछ इंजीनियर कोड भी नहीं लिख सकते."
अब तक जिस आईटी इंडस्ट्री को मध्यवर्गीय परिवारों की सफलता का सूत्र माना जा रहा था उसमें अब आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस (एआई) और रोबोटिक्स ने धाक जमाना शुरू किया है. एआई और रोबोटिक्स के चलते अब नौकरियों में कटौती होने लगी है.
अंग्रेजी भी रोड़ा
तकनीकी क्षमता के अलावा अंग्रेजी में दक्षता की कमी भी युवाओं के लिए बड़ी समस्या बन गई है. जो छात्र गांव, देहात या कस्बों से आते हैं या जिन्होंने अपने विषय अंग्रेजी में नहीं पढ़े होते, उन्हें भी कंपनियां नौकरी देने में हिचकिचाती हैं. नियोक्ता और उम्मीदवार के बीच पनपती इस गहराई को अब भरने की जरूरत है. इंजीनियरिंग में मास्टर्स करने वाली 24 साल की गायत्री कहती हैं कि अब नौकरियां ही नहीं है. एक कंपनी ने हाल में उसे 10 हजार के वेतन वाली कस्टमर सर्विस पोजिशन ऑफर की थी.
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हिंमाशु कहते हैं, "बेरोजगार इंजीनियरों की समस्या कोई नई नहीं है और ये शायद हजारों असंतुष्ट किसानों की समस्याओं के सामने छोटी नजर आती है. लेकिन ये एक बड़ा मुद्दा है."
एए/आईबी (रॉयटर्स)