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क्या तंग हैं अदालत के हाथ?

१० सितम्बर २०१३

दिल्ली बलात्कार मामले में चारों आरोपियों को दोषी करार दिए जाने के बाद अब उनकी सजा तय होनी है. लोग सख्त सजा की मांग कर रहे हैं लेकिन क्या अदालत के हाथ बंधे हैं?

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तस्वीर: Reuters

पिछले दिनों इस मामले में नाबालिग आरोपी को तीन साल सुधार गृह में रखे जाने की मामूली सजा दी गई. गैंग रेप में भारत के कानूनी पक्ष को समझने के लिए डीडब्ल्यू ने गुजरात हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज अब्दुल सत्तार कुरैशी से बातचीत की.

डीडब्ल्यूः अदालत ने दिल्ली बलात्कार कांड के चार आरोपियों को दोषी करार दिया है. अब सजा की बहस कितनी अहम होगी?

जस्टिस कुरैशीः इस तरह के अपराध गंभीर हैं. यहां मामला सिर्फ बलात्कार का नहीं है. बलात्कार के साथ हत्या का मामला भी शामिल है और हत्या के लिए तो मौत की ही सजा है. कम से कम सजा उम्र कैद है लेकिन यह अदालत पर ही निर्भर करता है कि वह क्या फैसला करती है. यह एक असाधारण मामला है और अदालत चारों को मौत की सजा दे सकती है.

डीडब्ल्यूः दिल्ली में तमाम विरोध प्रदर्शनों के बाद भी इस तरह के मामले रुके नहीं. पिछले दिनों मुंबई में भी सामूहिक बलात्कार हुआ. ऐसे में समाज में कड़ा संदेश पहुंचाने के लिए क्या होना चाहिए?

जस्टिस कुरैशीः मामला इतना गंभीर है कि इसमें मौत की सजा होनी चाहिए. हालांकि सिर्फ बलात्कार के लिए मौत की सजा देने के लिए सरकार अपने आपको तैयार नहीं कर पा रही है. इस समय उन पर लोगों का बहुत ज्यादा दबाव है और साथ ही मामले में हत्या भी शामिल है.

डीडब्ल्यूः नाबालिग को दी गई तीन साल सुधार गृह में रहने की सजा को पीड़ित परिवार नाकाफी मान रहा है. आप इस बारे में क्या कहेंगे?

जस्टिस कुरैशीः यह सजा बहुत नाकाफी है. मैं तो मानता हूं कि यह सजा ही नहीं है. कहा जाता है कि सबसे ज्यादा गंभीर अपराध पांचों में नाबालिग का ही था. उसका जन्म प्रशस्तिपत्र भी गलत हो सकता है. उसकी उम्र जांचने के लिए उसकी हड्डियों की जांच होनी चाहिए थी. मुझे लगता है कि 18 साल के होने से कुछ ही महीने कम वाले मामलों में अपराधी को नाबालिग नहीं माना जाना चाहिए, भारत के कानून में संशोधन की जरूरत है.

डीडब्ल्यूः अदालत के हाथ में कितने अधिकार हैं? क्या वह कुछ और कड़ी सजा दे सकती थी?

जस्टिस कुरैशीः अभी तो अदालत इस तरह के मामलों में कोई और फैसला नहीं कर सकती लेकिन इस तरह के मामलों में अदालत दबाव जरूर बना सकती है कि कानून में जरूरी परिवर्तन किए जाएं. अदालत फिलहाल कानून से ऊपर नहीं जा सकती. इस समय लोगों को चाहिए कि वे सरकार पर दबाव बनाएं कि वह इस तरह के गंभीर अपराधों के लिए नाबालिग का मामला भी स्थायी अदालत में चलाए, नाबालिगों की अदालत में नहीं.

डीडब्ल्यूः बलात्कार के मामलों में नाबालिग की आयु सीमा के बारे में भी कई लोगों की नाराजगी है. आप क्या कहेंगे?

जस्टिस कुरैशीः इसे बदलने की बहुत जरूरत है. बलात्कार के मामले में अपराधी को 18 साल से कम उम्र का होने पर नाबालिग नहीं माना जाना चाहिए. जरूरत है कि ऐसे अपराध में 16 साल तक की आयु वाले को ही नाबालिग माना जाए उससे ऊपर की उम्र के व्यक्ति पर स्थायी अदालत में मुकदमा चलाया जाए.

फिलहाल सरकार में उस तरह की राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं है. सरकार अभी लचर है. विधानमंडल का कहना है कि अगर एक दो नाबालिग खराब हों तो सबको एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है. लेकिन हमारी कानून व्यवस्था में बहुत खामियां है. उसमें माना जाता है जब तक व्यक्ति का अपराधी सिद्ध नहीं हो जाता उसे निर्दोष माना जाएगा. इसे बदलना चाहिए. वह न तो अपराधी है न ही निर्दोष.

डीडब्ल्यूः क्या आपको नहीं लगता मौका देने से अपराधी सुधर सकता है, और उसे यह मौका दिया जाना चाहिए?

जस्टिस कुरैशीः अगर मामला सिर्फ बलात्कार का हो तो सुधार की गुंजाइश है. लेकिन उसके साथ हत्या का मामला खास कर जब सामूहिक बलात्कार हो तो वह योजनाबद्ध अपराध होता है. हत्या इससे ज्यादा गंभीर मामला है. ऐसे अपराध के मामले में सुधार का सवाल नहीं है.

इंटरव्यूः समरा फातिमा

संपादनः अनवर जे अशरफ

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