अपने ही जाल में फंसी सरकार
२४ दिसम्बर २०१३भारत में सरकार के लिए पिछले पांच साल का सफर सियासी दांव पेंच की गुत्थियों में उलझने से भरा रहा. कभी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तो कभी सामाजिक आंदोलनों से निपटने में राजनीतिक नासमझी सरकार के लिए सिरदर्द बनती रही. अब चुनावों से पहले समलैंगिक अधिकारों का मामला उसे डरा रहा है.
पृष्ठभूमि
यौन स्वच्छंदता को निजता से जोड़कर कानूनी अधिकार देने की मांग 21वीं सदी की शुरुआत से ही दुनिया भर में जोर पकड़ने लगी थी. मुठ्ठी भर लोगों की इस मांग से भारत भी अछूता नहीं था. मगर इसे सरकार की नासमझी ही कहेंगे कि हुकूमत में बैठे तमाम कानूनविद आज कानूनी दांव पेंच के बुने अपने ही जाल में फंसे नजर आ रहे हैं. वह भी समलैंगिकता जैसे उस मामूली से मसले पर जिसका वास्ता एक छोटे से समुदाय से है. लेकिन बात जब अधिकार की हो तो संख्याबल महत्वहीन हो जाता है खासकर कानून की नजर में.
यौन स्वच्छंदता का कानूनी अधिकार देने की मांग सरकार और समूची सियासी जमात के लिए सिरदर्द बन जाएगी, इसका एहसास भारतीय विधि आयोग ने वर्ष 2000 में ही करा दिया था. मगर सरकार चलाने वालों की यथास्थितिवादी फितरत ने पिछले 13 सालों में सरकार को बार बार अपना रुख बदलने पर मजबूर कर दिया.
मुद्दा मामूली मगर मुसीबत बड़ी
परंपराओं की लकीरों को तोड़कर नए रास्ते बनाने की बात होने पर दुनिया के मानचित्र में पश्चिम और पूरब का तरीका साफ नजर आ जाता है. समलैंगिक अधिकारों को कानूनी मान्यता देने की मुहिम पश्चिम के विकसित देशों में भारत से कहीं अधिक मुखर अंदाज में चल रही है. मगर इसे कानून के जरिए आसानी से सुलझाने का जो आसान रास्ता अदालतों ने भारत में सुलभ कराया उसका अभाव पश्चिमी देशों में चर्च के माकूल दखल की वजह से साफ तौर पर देखा जा सकता है. किंतु भारत में सरकारें अपने ढुलमुल रवैये के कारण समय की मांग को समझते हुए इस अवसर का लाभ उठाने से चूक गईं. इतना ही नहीं भविष्य अभी भी धुंधला ही नजर आता है.
भारत की स्थिति
दरअसल भारत जैसे परपंरावादी देश में समलैंगिकता को अप्राकृतिक यौनाचार की श्रेणी में मानते हुए गंभीर अपराध के दायरे में रखा गया है. लगभग 150 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में समलिंगी सेक्स को अपराध बताते हुए इसके दोषी को आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है. आजादी के बाद 1950 में अपनाए गए कानून के तहत धारा 377 को भारतीय सांस्कृतिक परिवेश का हवाला देकर यथावत रखने का फैसला किया गया.
90 के दशक में शुरू हुई उदारीकरण की बयार में समलिंगी अधिकारों की वकालत पश्चिम से होते हुए भारत भी पहुंची. अब तक दबी जुबान होने वाली चर्चाओं को मुखर होता देख कानूनविदों ने समय की मांग को तभी समझ लिया था. वर्ष 2000 में विधि आयोग ने अपनी 172वीं रिपोर्ट में सरकार को आईपीसी से धारा 377 को हटाने का सुझाव दिया था. आयोग के अध्यक्ष बीपी जीवनरेड्डी ने तत्कालीन कानून मंत्री राम जेठमलानी को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सहमति से कायम होने वाले किसी भी प्रकार के यौन संबंध निजता के दायरे में आते हैं. जबकि निजता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 में 'प्रदत्त प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता' की परिधि में रखे गए अधिकारों में शुमार है. ऐसे में संविधान की आत्मा माने गए अनुच्छेद 21 से विरोधाभाषी होने के कारण आईपीसी की धारा 377 किसी भी सूरत में कानून की किताब से बाहर होनी चाहिए. आयोग की यह सिफारिश कानून मंत्रालय में आज भी धूल फांक रही है.
कैसे फंसी सरकार
समय की मांग से मुंह फेरे बैठी सरकार के लिए मुसीबत का दूसरा दौर दिल्ली हाई कोर्ट में धारा 377 की वैधानिकता को चुनौती देने के साथ शुरु हुआ. इस मामले का 2009 में फैसला आने तक सरकार अपने महाधिवक्ता के मार्फत अदालत में भारत की सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थितियों और शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर धारा 377 को बरकरार रखने की दलील देती रही. दरअसल सरकार की दलीलें विधि आयोग की 42वीं रिपोर्ट पर टिकी थीं जो धारा 377 को कायम रखने की सिफारिश कर रही थी.
जस्टिस एपी शाह ने अपने साहसिक फैसले में विधि आयोग की सिफारिश, समाजशास्त्रियों और चिकित्साविदों की स्वतंत्र राय के आधार पर धारा 377 को असंवैधानिक घोषित कर दिया. पिछले चार साल से निष्क्रिय पड़ी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में भी यह मामला उठाए जाने पर अपना पुराना राग अलापना जारी रखा. मामले की सुनवाई पूरी होने से कुछ समय पहले महाधिवक्ता जीई वाहनवती ने धारा 377 में से जुड़े कुछ तथ्य उजागर करने वाला एक हलफनामा पेश किया. अदालत में सरकार के इस हलफनामे ने मामले का रुख ही बदल दिया. सरकार ने बताया कि 120 करोड़ की आबादी में समलैंगिकों की संख्या महज 25 लाख के आसपास है और धारा 377 के तहत 150 साल में 200 लोगों को सजा दी गई है. जस्टिस जीएस सिंघवी और एसजे मुखोपाध्याय ने इन तथ्यों के आधार पर धारा 377 के दुरुपयोग की अभियोजन की दलील को नहीं माना. सुप्रीम कोर्ट ने महज दुरुपयोग के आधार पर धारा 377 को खत्म करने की मांग को खारिज किया. हकीकत तो यह है कि इस धारा की संवैधानिकता का मसला तो सुप्रीम कोर्ट में उठा ही नहीं.
इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि धारा 377 अपने कानूनी रूप में दुरुस्त है लेकिन समय की मांग को देखते हुए इसकी कानून में मौजूदगी बरकरार रखने या हटाने का अधिकार और दायित्व संसद का है, अदालत का नहीं.
फैसले के बाद मामले का राजनीतिकरण होते देख कांग्रेस अध्यक्ष और उपाध्यक्ष द्वारा धारा 377 को गैरजरूरी बताने के बाद सरकार अब अपने ही घर में घिरी नजर आ रही है.
पुनर्विचार क्यों संशोधन क्यों नहीं
सरकार ने अब अपने पुराने रुख को बदलकर 20 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर कर एक बार फिर अपनी किरकिरी कराने का पक्का मन बना लिया है. सरकार अब हाई कोर्ट के उसी फैसले को बरकरार रखने की मांग सुप्रीम कोर्ट से कर रही है जिसके फैसले के खिलाफ उसने दलीलें दी थीं. दूसरा सुप्रीम कोर्ट द्वारा अगले साल जनवरी में इस अर्जी पर सुनवाई के दौरान सरकार अपने उस हलफनामे पर क्या जवाब देगी जिसमें इस धारा के दुरुपयोग न होने की दलीलें देकर उसने इसे बरकरार रखने की मंशा जताई थी. तीसरा बड़ा सवाल भी उठेगा कि आखिरकार सरकार संसद के माध्यम से कानून में संशोधन करने से क्यों बच रही है. जबकि यह उसका अधिकार ही नहीं दायित्व भी है. अलबत्ता सन 1950 के बाद से अब तक आईपीसी में लगभग 30 संशोधन हो चुके हैं. सबसे ताजा संशोधन निर्भया कांड के बाद इसी साल यौन हिंसा से निपटने के लिए आईपीसी की धारा 375 और 376 में किए गए. जबकि इससे जुड़ी धारा 377 को सरकार ने अछूता ही रखा.
सरकार के सामने राजनीतिक मजबूरी भी है. बीते सालों में लगातार झटके झेलने के बाद समलैंगिकता जैसे मसले को संसद में न लाना उसकी मजबूरी है. हर मुद्दे पर राजनीति करने वाले दल इस पर भी राजनीति करेंगे, चुनाव से पहले परंपराओं की दुहाई दी जाने लगेगी. जो पार्टी इसके पक्ष में बात करेगी वो अकेली खड़ी होगी, बाकी दल अपने मानसिक पिछड़ेपन को राजनीति की आड़ में छुपाएंगे.
ब्लॉग: निर्मल यादव
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी