सोशल मीडिया पर होगी अब चुनाव आयोग की नजर
११ मार्च २०१९पिछले दो-तीन दिनों से देश भर में जिस तरह से ताबड़तोड़ शिलान्यास, राज्यों में अधिकारियों के ट्रांसफर और कुछ नियुक्तियां हो रही थीं, उन्हें देखकर ये साफ हो गया था कि चुनावी तारीखों की घोषणा दस मार्च को खत्म हो रहे सप्ताह तक अवश्य हो जाएंगी और ऐसा ही हुआ.
बीते रविवार शाम पांच बजे जैसे ही मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने चुनावी कार्यक्रम जारी किया, तमाम शहरों में लगे नेताओं के पोस्टर-बैनर, होर्डिंग्स इत्यादि पुलिस और प्रशासन वालों ने हटाने शुरू कर दिए. ऐसा इसलिए क्योंकि अब आदर्श आचार संहिता लागू हो गई है और अब हर चुनावी गतिविधि आचार संहिता के दायरे में आएगी और हर खर्च पर अब चुनाव आयोग की नजर रहेगी.
हालांकि इस बार आचार संहिता में कुछ संशोधन भी किए गए हैं. आचार संहिता के दायरे में अब सोशल मीडिया को भी लाया गया है. मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने मीडिया को बताया कि इस बार सोशल मीडिया पर कड़ी नजर रखी जाएगी. उन्होंने कहा, "सोशल मीडिया पर प्रचार के लिए राजनीतिक दलों की ओर से किए गए खर्चों भी जोड़ा जाएगा. सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को किसी भी राजनीतिक पार्टी के विज्ञापन को जारी करने की जानकारी देनी होगी और स्वीकृति मिलने के बाद ही वह ऐसा कर सकते हैं. गूगल और फेसबुक को भी ऐसे विज्ञापन दाताओं की पहचान करने के लिए कहा गया है.”
इस बार फेक न्यूज और हेट स्पीच पर नियंत्रण एवं निगरानी के लिए भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों से कोई अधिकारी नियुक्ति करने को कहा गया है.
दरअसल, लोकसभा या फिर राज्यों के विधानसभा चुनाव जब होने वाले होते हैं तो चुनाव आयोग तारीखों की घोषणा के साथ-साथ आचार संहिता भी लागू कर देता है. इसके लागू होते ही सरकार और प्रशासन पर कई तरह की बंदिशें लग जाती हैं. चुनाव खत्म होने तक राज्य के सरकारी कर्मचारी चुनाव आयोग के कर्मचारी बन जाते हैं और उसी के दिशा-निर्देशों पर काम करने लगते हैं.
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र का आधार हैं. इसमें मतदाताओं के बीच अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को रखने के लिए सभी उम्मीदवारों तथा सभी राजनीतिक दलों को समान अवसर दिए जाते हैं. इस संदर्भ में आदर्श आचार संहिता का उद्देश्य सभी राजनीतिक दलों को प्रचार, चुनावी सभा इत्यादि के लिए समान अवसर प्रदान करना, प्रचार अभियान को निष्पक्ष रखना और राजनीतिक दलों के बीच झगड़ों तथा विवादों को टालना है. ये भी मकसद होता है कि इस दौरान केंद्र या राज्यों की सत्ताधारी पार्टी आम चुनाव में अनुचित लाभ न ले सकें और न ही सरकारी मशीनरी का चुनाव प्रचार में दुरुपयोग कर सकें.
एक बार चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद केंद्र सरकार या राज्य सरकार के कोई भी मंत्री किसी तरह की कोई घोषणा, उद्घाटन या शिलान्यास नहीं कर सकते हैं. ऐसा करने पर आचार संहिता का उल्लंघन माना जाएगा और इसके खिलाफ आयोग उन्हें नोटिस भी जारी कर सकता है. यही नहीं, उम्मीदवार और पार्टी का जुलूस निकालने, रैली या बैठक करने के लिए चुनाव आयोग से अनुमति लेनी होती है और इसकी जानकारी निकटतम थाने में देनी होती है.
आदर्श आचार संहिता के तहत ऐसे ही कई नियम बनाए गए हैं जिनका सभी राजनीतिक दलों, उनके उम्मीदवारों और निर्दलीय उम्मीदवारों को भी पालन करना होता है. प्रचार के लिए आयोग की ओर से तय की गई समय सीमा, वाहनों की संख्या, खर्च करने वाली धनराशि जैसी बातों में भी सीमाओं का भी पालन करना होता है और इसकी जानकारी देनी होती है.
आचार संहिता के तहत यह सुनिश्चित करने की भी कोशिश होती है कि कोई भी दल या उम्मीदार ऐसे भाषण नहीं देगा या फिर ऐसे कोई काम नहीं करेगा, जिससे किसी विशेष समुदाय के बीच तनाव पैदा हो. वोट पाने के लिए कोई भी दल या उम्मीदार किसी विशेष जाति या धर्म का सहारा नहीं लेगा और चुनाव के दौरान धार्मिक स्थलों का इस्तेमाल नहीं होगा.
वोटरों को किसी भी तरह का लालच या रिश्वत देना, मतदान केंद्र से सौ मीटर के दायरे में प्रचार पर रोक और मतदान से एक दिन पहले किसी भी बैठक पर रोक जैसी बातें भी आचार संहिता के दायरे में आती हैं. आचार संहिता के तहत सत्ताधारी राजनीतिक दलों के लिए खास हिदायतें भी दी गई हैं और यह भी सुनिश्चित किया गया है कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद कोई भी सत्ताधारी नेता कोई नई योजना या कोई नया आदेश जारी नहीं कर सकता.
दरअसल, आदर्श आचार संहिता राजनीतिक दलों, खासकर चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों के लिए आचरण और व्यवहार का मानक है. संविधान के अनुच्छेद 324 में चुनाव आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने के लिए ऐसे नियम बनाने के अधिकार जरूर मिले हैं लेकिन आदर्श आचार संहिता का विकास राजनीतिक दलों की सहमति से ही अस्तित्व में आया और विकसित हुआ.
साल 1960 में केरल विधानसभा चुनाव के लिए पहली बार अस्तित्व में आई आदर्श आचार संहिता में यह बताया गया कि उम्मीदवार क्या करें और क्या न करें. 1962 में लोकसभा के आम चुनावों में आयोग ने इस संहिता को सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों में वितरित किया तथा राज्य सरकारों से अनुरोध किया गया कि वे राजनीतिक दलों से इसकी सहमति प्राप्त करें. लेकिन साल 1991 में आचार संहिता को काफी मजबूती प्रदान की गई और इसके मौजूदा स्वरूप में इसे फिर से जारी किया गया. उस समय टीएन शेषन देश के मुख्य चुनाव आयुक्त थे और चुनाव सुधार के लिए उनके कई प्रयासों में से इसे भी एक अहम प्रयास माना जाता है.
हालांकि यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि आचार संहिता का पालन यदि न किया जाए तो क्या होगा? आदर्श आचार संहिता को सुप्रीम कोर्ट से भी मान्यता मिली हुई है और यदि कोई प्रत्याशी या राजनीतिक दल आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करता है तो चुनाव आयोग नियमानुसार कार्रवाई कर सकता है.
चुनाव आयोग उम्मीदवार को चुनाव लड़ने से रोक सकता है, यदि उस श्रेणी का हो तो आपराधिक मुकदमा भी दर्ज कराया जा सकता है और इसके उल्लंघन के मामले में जेल जाने तक के प्रावधान हैं, लेकिन व्यावहारिक स्थिति कुछ अलग है.
वरिष्ठ पत्रकार भारत भूषण का मानना है, "आचार संहिता के मामले में आयोग सिर्फ नोटिस जारी कर सकता है, इससे ज्यादा कुछ नहीं. उसे किसी को सजा देने का अधिकार नहीं है. इस नोटिस का प्रभाव सिर्फ ये होता है कि नोटिस की बात आम जनता तक पहुंच जाती है और नेता के ऊपर एक नैतिक और जन दबाव पड़ता है. आयोग के पास ऐसे मामलों में किसी भी तरह की सजा देने का कोई अधिकार नहीं है.”
हालांकि कई बार ये सवाल भी उठता है कि आदर्श आचार संहिता को वैधानिक दर्जा देकर इसे और मजबूत किया जा सकता है. साथ ही लोगों में इसे लेकर खौफ भी पैदा किया जा सकता है लेकिन कई विशेषज्ञ इस बात से बहुत सहमत नहीं हैं.
देश के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे एसवाई कुरैशी कहते हैं, "चुनाव प्रक्रिया ज्यादा से ज्यादा डेढ़ महीने चलती है और आदर्श आचार संहिता ही तब तक अस्तित्व में रहती है. ऐसे में वैधानिक स्थिति देना मामले को पेचीदा बनाएगा और यदि आयोग चुनाव संबंधी मामलों की सुनवाई करके किसी को सजा देता भी है तो चुनाव प्रक्रिया खत्म होने के बाद वो सब बेमानी हो जाएगा. हां, इस दौरान यदि कोई आपराधिक कृत्य करता है तो उसके खिलाफ कानूनी प्रक्रिया के तहत कार्रवाई होती ही है.” इसलिए आदर्श आचार संहिता के मामलों का निपटारा फिलहाल चुनाव आयोग के ही जिम्मे दिया गया है.
वरिष्ठ पत्रकार भारत भूषण भी इसे ठीक मानते हैं, "यदि ये अधिकार भी कोर्ट को दे दिया गया तो फिर आदर्श आचार संहिता की बात ही बेमानी हो जाएगी क्योंकि अदालत में ये तय होने में ही सालों लग जाएंगे कि आचार संहिता का उल्लंघन हुआ है या नहीं.”