सरहदी गांधीः गांधी का फरिश्ता
२३ सितम्बर २०११गाड़ी दिल्ली पहुंची तो लगभग खाली थी. ज्यादा लोग नहीं उतरे. फिर भी महात्मा गांधी ने जिसे लाने भेजा था, वह कहीं नहीं दिखे. उनका भेजा आदमी हर डिब्बे में जा जाकर देखने लगा. एक खाली डिब्बे में एक सज्जन बैठे बैठे सो रहे थे. खान अब्दुल गफ्फार खान को पहचानकर उस आदमी ने उठाया. खां साहब ने माफी मांगते हुए कहा कि लंबा सफर हुआ तो आंख लग गई. उस आदमी ने कहा कि आप लेट क्यों नहीं गए, गाड़ी तो खाली ही थी. खां साहब ने जवाब दिया, "वो मैं कैसे करता, मेरा टिकट स्लीपर का नहीं था ना."
गांधीवाद को इस कदर अपनी जिंदगी में उतारने वाली शायद ही कोई और शख्सियत मिले. खान के बनाए संगठन खुदाई खिदमतगार को भारत में फिर से खड़ा करने वाले फैसल खान याद करते हैं, "गांधीजी के सचिव महादेव देसाई ने एक बार कहा था कि अपनी खूबियों की वजह से गफ्फार खां तो गांधी जी से भी आगे निकल गए हैं."
खान अब्दुल गफ्फार खान की गांधी से तुलना उनकी शुरुआती तकरीर से शुरू हो जाती है. इस तकरीर में वह अहिंसा को इस्लाम की मूल भावना बताते हैं. उनके शब्दों में, "इस पर मेरी रूह यकीन करती है. इस्लाम यही तो है, अमल, यकीन और मोहब्बत."
सरहदी गांधी ने सरहद पर रहने वाले उन पठानों को अहिंसा का रास्ता दिखाया, जिन्हें इतिहास लड़ाके मानता रहा. एक लाख पठानों को उन्होंने इस रास्ते पर चलने के लिए इस कदर मजबूत बना दिया कि वे मरते रहे, पर मारने को उनके हाथ नहीं उठे. नमक सत्याग्रह के दौरान 23 अप्रैल 1930 को गफ्फार खां के गिरफ्तार हो जाने के बाद खुदाई खिदमतगारों का एक जुलूस पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में पहुंचा. अंग्रेजों ने उन पर गोली चलाने का हुक्म दे दिया. 200 से 250 लोग मारे गए. लेकिन प्रतिहिंसा नहीं हुई. सरहदी गांधी ने अपने खुदाई खिदमतगारों को एक सीख दी थी. उन्होंने कहा था, "मैं आपको एक ऐसा हथियार देने जा रहा हूं जिसके सामने कोई पुलिस और कोई सेना टिक नहीं पाएगी. यह मोहम्मद साहब का हथियार है लेकिन आप लोग इससे वाकिफ नहीं हैं. यह हथियार है सब्र और नेकी. दुनिया की कोई ताकत इस हथियार के सामने टिक नहीं सकती." अगर इस सीख को कोई गांधीजी की सीख कहकर बता दे, फर्क कर पाना नामुमकिन है.
जानेमाने गांधीवादी आलोचक और आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर वीके त्रिपाठी मानते हैं कि खान अब्दुल गफ्फार खान ने अपने संघर्ष में गांधीवाद की आत्मा को जिंदा रखा. वह कहते हैं, "दो बातें हैं जो किसी भी संघर्ष को गांधीवादी बनाती हैं. एक तो आंदोलन जनमानस का होना चाहिए और दूसरा उसे अहिंसक होना चाहिए. खान अब्दुल गफ्फार खां ने इस काम को बेहद खूबसूरती से अंजाम दिया."
फैसल खान कहते हैं कि यह बहुत बड़ी बात थी कि खां साहब ने गांधीवाद को इस्लाम से जोड़े रखा. इस वजह से न सिर्फ खां साहब की स्वीकार्यता बढ़ी बल्कि गांधीवाद के दायरे बढ़े. शायद यही वजह है कि एकनाथ ईश्वरन बादशाह खां की जीवनी "नॉन वायलेंट सोल्जर ऑफ इस्लाम" में लिखते हैं कि भारत में दो गांधी थे, एक मोहनदास कर्मचंद और दूसरे खान अब्दुल गफ्फार खां.
असल में बादशाह खान गांधीवादी रास्ते पर चलते नहीं थे. वह गांधी को जीते थे. 1969 में महात्मा गांधी की 100वीं जयंती के मौके पर खां साहब ने भारतीय संसद में भाषण दिया. फैसल खां कहते हैं कि उस भाषण में गांधी ही बोल रहे थे. उन्होंने सांसदों से पूछा, "मैं गांधी का मुल्क देखने आया हूं. मुझे दिखाओ समाजवाद कहां है. मुझे दिखाओ कितने गरीब यहां हैं जिनकी जिंदगी संभली है. मुझे दिखाओ यहां आपस में कितना प्यार बढ़ा है. मैं सुनने नहीं आया हूं, मैं देखने आया हूं."
उनके शब्द कह रहे थे कि बंटवारे और महात्मा गांधी की मौत के बाद भारत गांधी की राह से भटक रहा है. लेकिन सरहदी गांधी ने वह राह नहीं छोड़ी. इसीलिए कनाडा की फिल्मकार टेरी मैकलोहान बादशाह खान को गांधी का अनुयायी मात्र नहीं मानतीं, उनके बराबर खड़ा करती हैं.
अपनी डॉक्युमेंट्री द फ्रंटियर गांधीः बादशाह खान, अ टॉर्च ऑफ पीस के बारे में बताते हुए मैकलोहान ने लिखा है, "दो बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित हुए बादशाह खान की जिंदगी और कहानी के बारे में लोग कितना कम जानते हैं. 98 साल की जिंदगी में 35 साल उन्होंने जेल में सिर्फ इसलिए बिताए कि इस दुनिया को इंसान के रहने की एक बेहतर जगह बना सकें. सामाजिक न्याय, आजादी और शांति के लिए जिस तरह वह जीवनभर जूझते रहे, वह उन्हें नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और महात्मा गांधी जैसे लोगों के बराबर खड़ा करती हैं. खान की विरासत आज के मुश्किल वक्त में उम्मीद की लौ जलाती है."
लेकिन भारत रत्न खान अब्दुल गफ्फार खां की भारत में कोई विरासत है क्या? दिल्ली की जिस गफ्फार मार्किट का नाम खां साहब के नाम पर रखा गया है, कहते हैं वहां दो नंबर का सामान मिलता है.
रिपोर्टः विवेक कुमार
संपादनः ए कुमार