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सड़कों के बच्चे देखते हैं स्कूल का सपना

१ जून २०११

भारत की राजधानी नई दिल्ली में कई बच्चे सड़कों पर रहते हैं और कचरा बेचकर अपना पेट भरते हैं. अब एक संगठन इन बच्चों को स्कूल और सामान्य जिंदगी के लिए तैयार कर रहा है.

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तस्वीर: Pearl Jesra

14 साल का दीपचंद स्कूल में तो है, लेकिन वह पढ़ नहीं रहा, बल्कि क्लासरूम की जमीन पर सो रहा है. रोज सुबह वह उठकर कचरा जमा करने जाता है ताकि उसे बेचकर वह अपना पेट भर सके. जिस थैले में वह कचरा जमा करता है, रात को उसी पर लेटकर अपनी थकान दूर करने की कोशिश करता है. दीपचंद की मां ने उसे बचपन में ही छोड़ दिया था और उसके पिता की कई साल पहले मौत हो गई. लेकिन दीपचंद और उसी की तरह कई बच्चों के लिए सेव द चिल्ड्रेन नाम की संस्था ने एक कार्यक्रम शुरू किया है, जिसका नाम अवीवा स्ट्रीट टू स्कूल सेंटर है. यह कार्यक्रम बीमा कंपनी अवीवा के साथ मिल कर शुरू किया है.

शिक्षा से जरूरी पैसा

Kindergarten
तस्वीर: DW/Hartmann

कार्यकर्ता प्रदीप कुमार कहते हैं, "इन्हें पढ़ाना कभी कभी बहुत मुश्किल हो जाता है, ये इतने थके रहते हैं." भारत में लाखों बच्चों की जिंदगी इसी तरह सड़कों पर गुजरती है. भारत सरकार ने हाल ही में शिक्षा के अधिकार का कानून लागू किया, लेकिन इन बच्चों को अब तक इसका फायदा नहीं मिला है. इन हालात में अवीवा जैसे संगठन बच्चों की मदद करते हैं. वे कोशिश करते हैं कि बच्चों को धीरे धीरे पढ़ाकर स्कूल तक पहुंचने की स्थिति में ला सकें.

लेकिन कई गरीब परिवारों का मानना है कि शिक्षा से कोई फायदा नहीं. नौ साल के सुलेमान का कहना है, "मेरे पिता तो कहते हैं कि कचरा जमा करो, लेकिन मैं स्कूल जाना चाहता हूं." बच्चों को पढ़ा रही निवेदिता चोपड़ा कहती है कि बच्चों के मां-बाप को पैसा कमाने की इतनी जरूरत होती है कि वे शिक्षा के फायदों को पहचान नहीं पाते. "लेकिन अगर उन्हें पता चले कि उनका बच्चा अच्छा कर रहा है और इससे उनकी जिंदगी सुधर सकती है तो इससे उनकी सोच बदल सकती है."

Street kids play football in a water puddle, in Bombay, India,e Monday June 29, 1998. Heavy rains over the last three days have flooded most low-lying areas of Bombay but has not been able to dampen the spirits of the street urchins who emulate the stars at the World Cup. (AP Photo/Sherwin Crasto)
तस्वीर: AP

कानूनों का पालन नहीं

कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे कुछ बच्चे पहले स्कूल जा चुके हैं लेकिन ज्यादातर बच्चों को कुछ नहीं आता. शिक्षक रेखा कहती हैं, "कभी कभी तो हमें इन्हें यह भी सिखाना पड़ता है कि पेंसिल को किस तरह पकड़ा जाता है. यह बच्चे बाकी बच्चों जैसे ही हैं, वे स्कूल जाना चाहते हैं, स्कूल यूनिफार्म पहनना चाहते हैं लेकिन इन्हें मौका नहीं मिलता."

भारतीय कानून के मुताबिक सारे राज्यों को 14 साल की उम्र तक बच्चों को मुफ्त पढ़ाना होगा लेकिन 29 राज्यों में से केवल आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, उड़ीसा, सिक्किम और मणिपुर ने इसे लागू किया है. संस्था नैशनल कोएलिशन फॉर एजुकेशन के उमेश गुप्ता कहते हैं, "शिक्षा का कानून अब भी कागजों तक ही सीमित है. कुछ नहीं बदला है." कुमार कहते हैं कि शिक्षक वैसे भी मौजूद नहीं रहते और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में दो लाख शिक्षकों की जरूरत है.

आलोचकों का कहना है भारत में बाल मजूदूरी को खत्म करने के कानून भी कागजों तक सीमित रह गए. भारत की सवा एक अरब की आबादी में 50 प्रतिशत की उम्र 25 साल से कम है. इनसे देश को तो फायदा हो ही सकता है लेकिन अगर शिक्षा और बच्चों से संबंधित कानूनों को लागू नहीं किया तो भविष्य में बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है.

रिपोर्टः एएफपी/एमजी

संपादनः ए कुमार

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