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सचमुच जरूरी हैं भारत में पुलिस सुधार

मारिया जॉन सांचेज
२० नवम्बर २०१७

1947 में भारत तो आजाद हो गया, लेकिन उसकी पुलिस आज तक उसी औपनिवेशिक व्यवस्था और मानसिकता को ढो रही है. अगर पुलिस महानिदेशक सुलखान सिंह की मानें तो आज उसकी कार्यप्रणाली ज्यादा खराब है.

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Indien Symbolbild Polizeigewalt
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Kiran

उत्तर प्रदेश पुलिस के मुखिया यानी महानिदेशक सुलखान सिंह अगले माह की 31 तारीख को सेवानिवृत्त होने वाले हैं. एक बेबाक इंटरव्यू में उन्होंने एक सनसनीखेज स्वीकारोक्ति करते हुए कहा है कि आज की पुलिस के मुकाबले औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन की पुलिस कहीं बेहतर थी. उनकी इस बात में बहुत दम है लेकिन पुलिस के चरित्र का पता इसी बात से चल जाता है कि सुलखान सिंह को यह कहने की हिम्मत तभी हुई है जब उनकी सेवा समाप्त होने वाली है. लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि यदि सरकार चाहे तो उन्हें अभी भी दंडित कर सकती है और सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हें अनेक किस्म की परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. इसलिए उन्होंने जो हिम्मत दिखाई है, वह प्रशंसनीय है.

स्वाधीन भारत के संविधान के तहत कानून-व्यवस्था राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आती है. हर राज्य की अपनी प्रांतीय पुलिस सेवा है और भारतीय पुलिस सेवा केंद्रीय सेवा होते हुए भी उसके अधिकारी अमूमन राज्य सरकारों के अधीन ही काम करते हैं. आज भी पुलिस का कामकाज 1861 में बने कानून के तहत होता है जिसे एक ऐसी औपनिवेशिक पुलिस व्यवस्था तैयार करने के लिए बनाया गया था जो विदेशी शासकों के हितों के लिए देशी जनता को दबा कर रख सके. न केंद्र सरकारों ने और न ही राज्य सरकारों ने पुलिस और जेल सुधारों की ओर जरा-सा भी ध्यान दिया है. 1979 में बने पुलिस सुधार आयोग ने केंद्र सरकार के सामने आठ रिपोर्टें प्रस्तुत कीं लेकिन आज तक उनकी अधिकांश सिफ़ारिशों को अनदेखा किया गया है. 1997 में तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्त ने पुलिस सुधारों के बारे में सभी राज्य सरकारों को पत्र लिखा था लेकिन एक भी राज्य सरकार ने उसका जवाब तक देना जरूरी नहीं समझा. आज स्थिति यह है कि पुलिस बल की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर किसी को भी भरोसा नहीं रह गया है. निर्दोष लोगों को गिरफ्तार करके बरसों तक जेल में सड़ाने, बिलकुल गैर-पेशेवर ढंग से जांच करने, सुबूतों की अनदेखी करने, उन्हें नष्ट करने या फिर फर्जी सुबूत पैदा करने, राजनीतिक दबाव के तहत काम करने और आम नागरिक पर हर तरह का अत्याचार करने के लिए भारत की पुलिस बदनाम हो चुकी है.

पुलिस दोषी है लेकिन उसका भी अपना पक्ष है. पुलिसकर्मियों की सेवा की स्थितियां ख़ासी अमानवीय हैं. उनका वेतन इतना कम है, काम के घंटे इतने लंबे हैं और मिलने वाली सुविधाएं इतनी खराब हैं कि कुछ ही वर्षों की सेवा के दौरान पुलिसकर्मियों का अमानवीकरण हो जाता है. आजकल पुलिस सिपाही की नौकरी पाने के लिए जितनी तगड़ी रिश्वत देनी पड़ती है, उसे देखकर यह स्वाभाविक लगता है कि नौकरी मिलने के बाद पुलिसकर्मी खुलकर रिश्वत लेगा. पुलिसकर्मियों को यह एहसास ही नहीं है कि वे एक लोकतांत्रिक देश की पुलिस का अंग है जिसका काम कानून लागू करना, अपराधों को रोकना और अपराधियों को सजा दिलाना है. भारत में पुलिस खुद में ही कानून है.

आज भी जेलों में बंद कैदियों में से 67 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं जिनमें से अधिकांश को यह भी नहीं पता होता कि उन्हें किस अपराध में जेल हुई है. गरीबी के कारण वे अपना मुकदमा भी नहीं लड़ पाते और जेल में ही दशकों तक सड़ते रहते हैं. अक्सर देखा जाता है कि जमानत मिलने के बावजूद कैदी जेल में ही रह जाता है क्योंकि वह जमानत की रकम का इंतजाम भी नहीं कर पाता. जेलों में जितने कैदियों के लिए जगह है, उससे तीन से चार गुना अधिक कैदी उनमें ठूंसे हुए है. उन्हें सामान्य सुविधाएं भी नहीं मिल पातीं. कानून की नजर में जेल सुधारगृह है, लेकिन अक्सर जेलों के अंदर रहकर कैदी और भी शातिर अपराधी बनकर निकलता है.

हर सरकार पुलिस और अन्य जांच एजेंसियों को अपने हित में इस्तेमाल करती है. सुप्रीम कोर्ट सीबीआई जैसी जांच एजेंसी को पिंजड़े में बंद तोता बता चुका है जो मालिक का सिखाया हुआ ही बोलता है. सीबीआई में भी पुलिस अधिकारी ही नियुक्त होते हैं. इस स्थिति में तभी बदलाव आ सकता है जब राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद पुलिस को सही ढंग से काम करने देने की इच्छा शक्ति दिखाएं. वरना उसके स्तर लगातार आ रही गिरावट इसी तरह जारी रहेगी.