शहरों से सादगी की अपील करते हिम स्तूप
१९ सितम्बर २०१९2,500 मीटर से ज्यादा की ऊंचाई पर मौजूद भारत का लद्दाख इलाका. बर्फ से चमकते पहाड़, सर्द मौसम और रुखी जमीन वाले इस क्षेत्र का भूगोल इसे पर्यटकों के बीच बेहद दिलचस्प बनाता है. अगर सैलानीपन के चश्मे को उतार दें तो लद्दाख में जिंदगी दिनों दिन मुश्किल होती जा रही है. बर्फीले पहाड़ों और ग्लेशियरों वाले लद्दाख में जल संकट का साया बना हुआ है. हर साल गर्मियों में कुछ महीने तक पानी के लिए हाहाकार मच जाता है.
इस किल्लत को टालने का बीड़ा इंजीनियर और आविष्कारक सोनम वांगचुक ने उठाया. उन्होंने पानी को शंकु के आकार में जमा कर कृत्रिम जल भंडार बनाने शुरू किए. तस्वीर में दिख रहा यह एक मानव निर्मित जल भंडार है, जिसे बौद्ध स्तूप की शक्ल में बनाया गया है. बर्फ का स्तूप. भारत के उत्तरी कोने लद्दाख में रहने वाले सोनम वांगचुक ने भौतिक विज्ञान के बहुत ही मूलभूत सिंद्धात का इस्तेमाल किया और एक बड़ी समस्या हल कर दी.
वांगचुक कहते हैं. "शंकु वह आकार है जिसके पृष्ठ का क्षेत्रफल अपने आयात के मुताबिक काफी कम होता है. इसीलिए सूरज इसे उतनी तेजी से नहीं पिघला सकता, जितनी तेजी से वह सपाट बर्फ को पिघलाता है. जैसे ही गर्मियां आने लगती हैं तो यह बर्फ बहुत ही धीमे धीमे पिघलती है और किसानों को पानी देती है."
लद्दाख दुनिया के सबसे ऊंचे ठंडे बियाबान के रूप में विख्यात है. इस इलाके में साल भर में सिर्फ 50 से 100 मिलीमीटर बारिश होती है. सदियों से ग्लेशियर ही यहां जीवन का मुख्य आधार हैं. वे शहरों को पानी मुहैया कराते हैं. 59,146 वर्ग किलोमीटर के इलाके में बसने वाली करीब तीन लाख लोगों की आबादी के लिए ग्लेशियर और उनसे फूटती जलधाराएं ही पानी का स्रोत हैं.
रुखे और सर्द मौसम में किसी तरह खेती करने वाले किसान भी इसी पानी पर निर्भर रहते हैं. लेकिन जलवायु परिवर्तन के चलते बीते 50 साल में इस इलाके के 50 फीसदी हिमनद खत्म हो चुके हैं. गर्मियों में ग्लेशियर पिघलने के बावजूद कुछ समय तक जल संकट बना रहता है. इंजीनियर सोनम वांगचुक कहते हैं, "ज्यादातर लोग ये नहीं समझ पाते हैं कि किसानों के लिए पानी का संकट सिर्फ वंसत में, अप्रैल, मई में होता है. उस वक्त उन्हें पानी की जरूरत पड़ती है और तब ग्लेशियर इतने गर्म नहीं होते कि वे पिघल सकें."
हिम स्तूप के निर्माण के लिए सबसे पहले लचीली और पतली लकड़ियों से एक गुंबदाकार ढांचा तैयार किया जाता है. यही ढांचा हिम स्तूप के लिए कंकाल का काम करता है. सर्दियों में भूमिगत पाइपों की मदद से यहां पहाड़ों पर बहने वाला पानी निचले इलाकों में पहुंचाया जाता है. पाइप में जहां भी छेद किया जाएगा वहां दबाव में अंतर की वजह से पानी ऊपर उछलने लगेगा. यही वांगचुक के तकनीक का अहम बिंदु है, "माइनस 20 डिग्री की हवा के संपर्क में आते ही पानी का ताप बिल्कुल खत्म हो जाता है. वह नीचे गिरता है और शंकु के आकार में जमने लगता है. खूबसूरती तो ये है कि आपको किसी मशीन, पंप, बिजली, ईंधन या प्रदूषण की जरूरत ही नहीं पड़ती. बिल्कुल भी नहीं. यह गुरुत्व बल और आम पाइप हैं."
गर्मियां आ चुकी हैं. यह स्तूप पांच महीने पुराना है, जिसे पास के गांव वालों ने बनाया. इसमें 1.5 करोड़ लीटर पानी जमा है. करीब 50 हजार लीटर रोज मिलेगा. हिम स्तूप से बहते पानी के चलते घाटी के इस गांव के पास समय पर अपने खेतों की प्यास बुझाने के लिए पर्याप्त जल है.
सोनम वांगचुक स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट सेकमोल के सहसंस्थापक भी हैं. एक दिन इलाके का भविष्य इन्हीं युवाओं के हाथ में होगा, लिहाजा ये जरूरी है कि वे किसानों को हिम स्तूपों से मिल रही मदद के बारे में विस्तार से समझें. हालांकि ऐसे कृत्रिम ग्लेशियर लंबे समय के लिए ठोस इंतजाम नहीं हो सकते.
सोनम वांगचुक दुनिया भर के लोगों से अपील करते हुए कहते हैं, "हिम स्तूप सिर्फ पानी बनाने का तरीका ही नहीं हैं, ये दुनिया के बड़े शहरों के लोगों को पहाड़ों का एक संदेश भी हैं. बड़े शहरों में रहते हुए पर्यावरण को बचाना भी उतना ही जरूरी है, इसके लिए अपनी जीवनशैली बदलनी होगी. तो मेरा संदेश साफ है: कृपया दुनिया के बड़े शहरों में सादगी से रहिए ताकि हम पहाड़ों में आसानी से जी सकें."
अब इलाके में 25 हिम स्तूप हैं. उन्हें बनाने के लिए बस कल्पनाशक्ति और मेहनत की जरूरत थी. दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भी इसके अलावा और क्या चाहिए.
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(खत्म हो रहे हैं दुनिया के ग्लेशियर)