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शरणार्थी पड़ोसी के घर ही अच्छे

२० जुलाई २०१३

जर्मनी में हाल के दिनों में शरणार्थियों के विरोध में कई बार प्रदर्शन हुए. राजधानी बर्लिन में शरणार्थियों के लिए बनाए जाने वाले अपार्टमेंट का कड़ा विरोध हो रहा है उधर म्यूनिख में शरणार्थी अधिकारों के लिए अनशन पर हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

कुल मिला कर जर्मनी के लोगों और शरणार्थियों दोनों में असंतुष्टि बढ़ रही है और विरोध प्रदर्शनों की संख्या भी. बर्लिन के हेलेर्सडॉर्फ के निवासियों में इन दिनों चिंता है. वे अपने घरों, गलियों में शांति और बच्चों की सुरक्षा को लेकर परेशान हैं. वे नहीं चाहते कि उनके इलाके के पास शरणार्थियों को बसाया जाए. विदेशियों से नफरत दिखाती ये दलीलें शरणार्थियों के लिए अपार्टमेंट के प्रोजेक्ट के खिलाफ हैं. बर्लिन के दूसरे इलाके के निवासियों ने कुछ ही दिन पहले हस्ताक्षर जमा कर के शरणार्थियों के लिए बनाए जा रहे आपात निवास का विरोध किया था. जबकि इनकी बहुत जरूरत है. बर्लिन में आने वाले शरणार्थियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. इस साल बर्लिन में छह हजार शरणार्थी पहुंचे हैं.

लोग ही नहीं बड़ी पार्टियों के नेता भी कुछ मामलों में विदेशियों के खिलाफ बयान दे रहे हैं. प्रो असिल संस्था के बैर्न्ड मेसोविच बताते हैं, "कुछ मेयर, जैसे कि एसेन या ल्यूबेक के, इस मुद्दे को बहुत आक्रामक तरीके से पेश कर रहे हैं. कुछ नेताओं की दलील है कि शरणार्थियों को किसी इलाके में बसाने पर समस्या पैदा हो सकती है." समस्याओं में सबसे पहले गिनाया जाता है अपराध. मेसोविच ने डॉयचे वेले के साथ बातचीत में कहा कि दक्षिणपंथी एनपीडी पार्टी के सदस्य इस बहस को विवाद बनाना चाहते हैं. विरोध करने वाले लोगों की संख्या बढ़ाने के लिए निवासियों में उग्र दक्षिणपंथी भी शामिल हो जाते हैं.

Hungerstreik von Asylbewerbern in München
तस्वीर: Tilo Mahn

शरणार्थी भी दुखी

जर्मनी में शरणार्थी नीति पर विवाद बढ़ रहा है और विदेशियों के प्रति नफरत भी. 2012 के एक सर्वे के मुताबिक जर्मनी की एक चौथाई जनता इसी भावना से भरी है. समाज विज्ञानी एल्मार ब्रैहलर ने दूसरे शोधकर्ताओं के साथ मिल कर फ्रीडरिष एबर्ट प्रतिष्ठान के साथ सर्वे किया कि देश में उग्र दक्षिणपंथी विचारधारा कितनी फैली हुई है. ब्रैहलर बताते हैं कि आधे से ज्यादा पूर्वी जर्मन चाहते हैं कि विदेशियों को उनके घर भेज दिया जाए क्योंकि जर्मनी में रोजगार कम है. जानकार इस तरह के डर को इससे भी जोड़ते हैं कि जर्मनी के पूर्वी हिस्से के लोग विदेशियों से कम संपर्क में हैं. पश्चिमी हिस्से में ये लोगों के आम जनजीवन का हिस्सा है. विदेशी मूल के लोग ऑफिस, दोस्तों या परिवार का हिस्सा बन चुके हैं.

हालांकि विरोध और गुस्सा सिर्फ जर्मनी के लोगों में ही नहीं शरणार्थियों में भी लगातार बढ़ रहा है. शरणार्थी खुले आम आजादी कम होने का विरोध कर रहे हैं, विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. जैसे ईरान से आने वाले लोग खुद को पीड़ित की श्रेणी में नहीं रखना चाहते. युवा और ऊर्जा से भरपूर पढ़े लिखे ईरानी यहां भी खुद को आजादी के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता ही मानते हैं ठीक जैसे वो ईरान में थे.

Flüchtlingscamp Oranienplatz Berlin Kreuzberg
तस्वीर: picture-alliance/dpa

बर्लिन की ओर

पूरे मामले में निर्णायक मोड़ ईरानी शरणार्थी की आत्महत्या करने बाद आया. 2012 में एक ईरानी व्यक्ति ने खुद को फांसी लगा ली थी. इसके बाद बाकी शरणार्थियों ने खुद को एकजुट करना शुरू किया. पिछले साल उन्होंने वुर्जबुर्ग से बर्लिन विरोध के तौर पर मार्च भी किया. इन लोगों की मांग थी कि एक ही जगह पर रहने का नियम बदल दिया जाए. प्रो एसिल के मेसोविच कहते हैं, "जो हमने पिछले साल देखा इतना पहले कभी नहीं था."

उधर म्यूनिख में जून के आखिर में 90 शरणार्थी भूख हड़ताल पर बैठे. उनकी मांग थी कि उनका शरणार्थी आवेदन स्वीकार किया जाए. एक सप्ताह बाद पुलिस ने उन्हें वहां से हटा दिया. मेसोविच का मानना है कि कारण सामने ही है. जर्मनी ने शरणार्थियों की संख्या को कम आंका. "जर्मनी में ऐतिहासिक रूप से कम आने वाले शरणार्थियों के हिसाब से ही नीतियां बनाई गई. कुछ साल पहले तक ये सही था तब साल में सिर्फ 30 से 40 हजार शरणार्थी ही आते थे. लेकिन इस साल इनकी संख्या 90 हजार हो सकती है."

यह संख्या बहुत नाटकीय नहीं है लेकिन आप्रवासन और शरणार्थी विभाग ने जरूरी लोग इस काम पर नहीं लगाए. नतीजा यह है कि शरणार्थी अपने आवेदन पर फैसले के लिए साल भर से इंतजार कर रहे हैं. इस दौरान उनकी आजादी कम हो जाती है. अलग थलग, अनजान देश में उन्हें अकेला रहना पड़ता है.

शरणार्थी आवेदन पर समाज में बहस होना संवाद बनाने के लिए अच्छा हो सकता है और शरणार्थियों के लिए काम करने वाली संस्थाओं के लिए अच्छा भी. लेकिन चुनाव के दौर में सभी पार्टियां यह भी अपील कर रही हैं कि इस विषय का गलत इस्तेमाल नहीं किया जाए.

रिपोर्टः यूलिया माहन्के/एएम

संपादनः एन रंजन

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