विवाद के रिकार्ड बनाता बंगाल का पंचायत चुनाव
११ मई २०१८इस चुनाव ने विवादों की वजह से इतनी सुर्खियां बटोरी हैं जितनी आम तौर पर विधानसभा या लोकसभा चुनावों को भी नहीं मिलतीं. आखिर में मतदान के चार दिन पहले सुप्रीम कोर्ट और कलकत्ता हाईकोर्ट के फैसलों ने इन चुनावों पर छाई अनिश्चितता दूर कर मतदान की राह साफ की है.
शुरुआत से ही विवाद
दरअसल, बीते महीने राज्य चुनाव आयोग ने जब तीन चरणों में पंचायत चुनाव कराने का फैसला किया था तभी से इस पर विवाद शुरू हो गया. विपक्षी बीजेपी, कांग्रेस व सीपीएम ने पहले तो सुरक्षा का सवाल उठाते हुए चुनावों के दौरान केंद्रीय बलों की तैनाती की मांग उठाई. उसके बाद नामांकन पत्र दाखिल करने की प्रक्रिया के दौरान बड़े पैमाने पर हिंसा के आरोप लगे. विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की भारी हिंसा की वजह से हजारों विपक्षी उम्मीदवारों को नामांकन पत्र ही दायर करने दिया गया है. चुनाव-पूर्व हिंसा में विभिन्न स्थानों पर कम से कम एक दर्जन लोगों की मौत से भी विपक्ष के आरोपों को बल मिला. इस मुद्दे पर विभिन्न विपक्षी दलों की ओर से सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में एक दर्जन से ज्यादा याचिकाएं भी दायर की गईं.
विपक्षी दलों के आरोपों के बाद राज्य चुनाव आयोग ने नामांकन पत्र दाखिल करने की समय सीमा एक दिन के लिए बढ़ा दी थी. लेकिन फिर अगले ही दिन उस आदेश को वापस ले लिया गया. विपक्ष का आरोप था कि राज्य सरकार व तृणमूल कांग्रेस के दबाव में ही चुनाव आयोग ने बढ़ी हुई समय सीमा वापस ली है. इसके खिलाफ दायर याचिकाओं के आधार पर कलकत्ता हाईकोर्ट ने बाद में नामांकन पत्र दायर करने की तारीख और एक दिन के लिए बढ़ा दी. लेकिन उस दिन भी जमकर हिंसा हुई. एक गैर-सामाजिक संगठन ने यह कहते हुए अदालत में याचिका दायर की कि तृणमूल कांग्रेस के आतंक की वजह से कई लोग नामांकन पत्र दाखिल करने संबंधित दफ्तर में नहीं जा सके. उन्होंने व्हाट्सएप के जरिए अपने नामांकन पत्र आयोग को भेजे हैं. अदालत ने आयोग को व्हाट्सएप के जरिए भेजे गए 11 नामांकन पत्रों को स्वीकार करने का निर्देश दिया. यह एक ऐतिहासिक फैसला था.
अदालती विवाद लंबा खिंचने की वजह से चुनावों पर अनिश्चितता लगातार बढ़ती रही. इस बीच, हाईकोर्ट के निर्देश पर चुनाव आयोग ने नई तारीखों का एलान किया. लेकिन सरकार के दबाव के चलते उसने 14 मई को एक ही दिन मतदान कराने का फैसला किया. विपक्ष ने इसके खिलाफ भी अदालत का दरवाजा खटखटाया. दूसरी ओर, सीपीएम की एक याचिका के आधार पर हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने आयोग को ई-मेल से भेजे गए नामांकन पत्रों को भी स्वीकार करने का निर्देश दिया. खंडपीठ ने कहा कि ई-मेल से नामांकन पत्र दाखिल करने से हिंसा, जान-माल के नुकसान और आरोपों से बचा जा सकता था. अदालत ने कहा कि अगर उम्मीदवार चुनाव लड़ने के लिए नामांकन पत्र दाखिल करने में नाकाम रहता है तो यह उसके लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन है. जजों ने कहा कि लोगों के पास नामांकन पत्र दाखिल करने का तरीका चुनने का विकल्प होना चाहिए.
अदालतों में राजनीतिक लड़ाई
आयोग ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. उसकी दलील थी कि अब चुनावों में इतना कम समय बचा है कि नए मतपत्रों की छपाई संभव नहीं है. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए आयोग को अपनी मर्जी से चुनाव कराने को कहा. लेकिन शीर्ष अदालत ने साथ ही निर्विरोध चुने गए उम्मीदवारों की जीत का एलान करने पर पाबंदी लगा दी. उसने कहा कि इस मामले में नोटा का विकल्प इस्तेमाल करने वाले वोटरों का ध्यान नहीं रखा गया है. ध्यान रहे कि 58 हजार में से 18 हजार से ज्यादा सीटों पर तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार निर्विरोध जीत चुके हैं. विपक्ष का आरोप है कि उनके उम्मीदवारों को नामांकन पत्र ही दाखिल नहीं करने दिया गया.
विपक्ष की दलील थी कि एक ही दिन चुनाव कराने की स्थिति में पर्याप्त सुरक्षा देना संभव नहीं है. कलकत्ता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली एक खंडपीठ ने आखिर बृहस्पतिवार को आयोग को पर्यप्त सुरक्षा व्यवस्था के तहत एक ही दिन चुनाव कराने का निर्देश दिया. लेकिन साथ ही अदालत ने साफ कर दिया कि हिंसा और जान-माल के नुकसान की स्थिति में दिए जाने वाले मुआवजे का पैसा उन अधिकारियों के वेतन से काटा जाएगा जिन लोगों ने सुरक्षा व्यवस्था पर्याप्त होने की रिपोर्ट दी है. वेतन से पूरा नहीं हुआ तो उनको रिटायरमेंट के समय मिलने वाली रकम से पैसा कटेगा. उससे भी नहीं हुआ तो बाकी रकम सरकार को चुकानी होगी. इससे पहले हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति बी.समाद्दार और न्यायमूर्ति ए.मुखर्जी की एक अन्य खंडपीठ ने बीते सप्ताह पंचायत चुनावों की प्रक्रिया के मामले में चुनाव आयोग के रवैए के लिए उसकी खिंचाई करते हुए कहा कि वह अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियां ठीक से निभाने में नाकाम रहा है.
विपक्ष के आरोप
विपक्षी राजनीतिक दल शुरू से ही तृणमूल कांग्रेस पर बड़े पैमाने पर हिंसा और आतंक फैलाने का आरोप लगाते रहे हैं. उनका आरोप है कि तृणमूल के कथित बाहुबलियों ने विपक्षी उम्मीदवारों को नामांकन पत्र ही दायर नहीं करने दिया. बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव राहुल सिन्हा कहते हैं, "बंगाल में सीपीएम ने बिना चुनाव लड़े जीतने की परंपरा शुरू की थी. अबकी ममता ने इसका रिकार्ड बनाया है." कांग्रेस तो बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग कर रही थी. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी कहते हैं, "राष्ट्रपति शासन लागू किए बिना यहां पंचायत चुनावों में कोई भी व्यक्ति अपने मताधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकता. तृणमूल कांग्रेस यहां लोकतंत्र का गला घोंटने का प्रयास कर रही है." सीपीएम नेता विकास रंजन भट्टाचार्य कहते हैं, "नामांकन दायर करने के दौरान हुई हिंसा राज्य के चुनावी इतिहास में एक नया रिकार्ड है. तृणमूल कांग्रेस के शासनकाल में मुक्त व निष्पक्ष चुनाव संभव ही नहीं हैं."
दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस ने विपक्ष के तमाम आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है. पार्टी प्रमुख ममता बनर्जी सवाल करती हैं कि अगर विपक्ष के आरोप सही हैं तो उनके हजारों उम्मीदवारों ने नामांकन कैसे दाखिल किया है? वह कहती हैं कि विपक्ष तरह-तरह के बहाने बना कर इन चुनावों में बाधा पहुंचाने का प्रयास कर रहा है. पार्टी महासचिव पार्थ चटर्जी कहते हैं, "राज्य के लोगों का ममता बनर्जी के प्रति पूरा भरोसा है. विपक्षी दलों का कोई जनाधार नहीं होने की वजह से ही वे बार-बार चुनाव प्रक्रिया को रोकने के लिए अदालतों की शरण में जा रहे थे."
राजनीतिक पर्यवेक्षक विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, "अगले साल लोकसभा चुनावों से पहले आखिरी चुनाव होने की वजह से तमाम दलों के लिए यह पंचायत चुनाव काफी अहम हो गए हैं. इससे खासकर ग्रामीण इलाकों में उनको अपनी ताकत का अनुमान लगाने में सहायता मिलेगी." बंगाल में ग्रामीण क्षेत्र की सीटों को ही सत्ता की चाबी माना जाता है. यही वजह है कि तृणमूल कांग्रेस के साथ ही मुख्य विपक्षी दल की जगह लेती बीजेपी ने इन चुनावों में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है.