एनएसयू मुकदमे का फैसला
१५ अप्रैल २०१३म्यूनिख के हाईकोर्ट और मीडिया के बीच हफ्तों चले विवाद के बाद जर्मनी में अपनी तरह के इस अनोखे मामले का अंत हो गया है. तुर्क दैनिक सबह ने संवैधानिक अदालत में अपील की थी. संवैधानिक अदालत ने फैसला सुनाया है कि एनएसयू मुकदमे के दौरान तुर्की और ग्रीस के पत्रकारों को उचित संख्या में जगह दी जानी चाहिए. अदालत का कहना था कि ऐसा नहीं होने पर मीडिया संस्थानों के बराबरी के अधिकार का हनन होगा.
जर्मनी के तकरीबन सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं ने इस फैसले का स्वागत किया है. बॉन यूनिवर्सिटी के राजनीतिशास्त्री टिलमन मायर कहते हैं, "जर्मनी ने कानून सम्मत राज्य के रूप में अच्छा प्रभाव छोड़ा है, एक समस्या थी और कानूनी राज्य ने उसका हल निकाला." इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा, "निश्चय ही यह एक समस्या है कि फैसले में इतना वक्त लगा."
काफी नहीं पचास कुर्सियां
इसके पहले तुर्की और ग्रीस के पत्रकारों को मुकदमा देखने की अनुमति नहीं मिली थी क्योंकि उन्होंने फटाफट इसके लिए अर्जी नहीं दी थी. तुर्की की मीडिया की इस मुकदमे में काफी दिलचस्पी है क्योंकि एनएसयू के आतंकवादियों के हाथों मारे गए दस लोगों में 8 तुर्क मूल के थे. म्यूनिख हाईकोर्ट, जहां संदिग्ध आतंकवादी बेआटे चैपे और उसके चार साथियों के खिलाफ मुकदमा चलेगा, तुर्की या ग्रीस के पत्रकारों को अदालत में कुर्सी देने को तैयार नहीं था. चैपे पर उग्रदक्षिणपंथी आतंकी गिरोह नेशनल सोशलिस्ट अंडरग्राउंड (एनएसयू) के हाथों हुई हत्याओं में शामिल होने का आरोप है.
अदालत में 100 कुर्सियां हैं जिनमें से 50 को हाईकोर्ट ने मीडिया के प्रतिनिधियों को बांटा था. अदालत के अनुसार कुर्सियां का बंटवारा अर्जियों के आने के आधार पर किया गया. पहले अर्जी देने वाले पत्रकारों को पहली 50 कुर्सियां मिल गई, जिंहोने बाद में अर्जी दी उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा. कुर्सी पाने में सफल रहने वाले मीजिया संस्थानों में तकरीबन सभी जर्मन मीडिया के थे. उनमें सार्वजनिक रेडियो स्टेशनों के ही छह लोग थे.
अदालत में सीटों का बंटवारा करने के लिए विंडहुंड सिद्धांत अपनाया गया. टिलमन मायर का कहना है कि इस सिद्धांत के अनुसार पहले आओ पहले पाओ के आधार पर जो पहले आता है, उसे पहले सीट मिली. यह जर्मन अदालतों में पत्रकारों के लिए सीट बांटने की सामान्य प्रक्रिया है. मायर कहते हैं, "इसकी शर्त यह है कि सबके लिए शुरुआती परिस्थितियां एक हों, लेकिन इस मामले में लगता है कि ऐसा नहीं था."
तुर्की के पत्रकार समय से अर्जी नहीं दे पाए, लेकिन ऐसा हुआ कैसे कि विंडहुंड सिद्धांत का उन्हें नुकसान उठाना पड़ा? मायर कहते हैं कि तुर्क पत्रकारों ने बार बार अदालत के प्रेस ऑफिस से पूछा कि अर्जी लेने की शुरुआत कब से होगी और उन्हें बताया गया कि अभी उसका समय नहीं आया है. जब अर्जी लेने की शुरुआत की गई तो इसका सभी पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को पता नहीं था.
अपील का डर
मुकदमे में हिस्सा लेने की अर्जी देने में देरी के बावजूद अब तुर्की के पत्रकार मुकदमे को करीब से देख पाएंगे और उस पर रिपोर्ट कर पाएंगे. मायर इससे सहमत नहीं हैं कि सीटों के बदले बंटवारे के कारण मुकदमे को चुनौती दी जा सकती है, "दरअसल उल्टा है, क्योंकि इसका आधार रखा गया है कि मुकदमे को चुनौती देने वाली याचिका सफल नहीं होगी." उनका कहना है कि संवैधानिक अदालत ने निगरानी की अपनी भूमिका निभाई है और पूरी तरह साफ है कि एक निष्पक्ष मुकदमा चलेगा.
मायर कहते हैं, "उसके पीछे स्वाभाविक रूप से प्रतिष्ठा का सवाल है. कहा जा सकता है कि जर्मनी यहां विश्व के सामने खराब परिस्थिति में होगा यदि वह निष्पक्षता की गारंटी नहीं देगा. इसलिए राजनीतिक रूप से भी संवैधानिक अदालत से अपेक्षाएं थीं और वह इस मामले में फैसला लेने वाला अंतिम संस्थान था."
मुकदमे की शुरुआत इस हफ्ते बुधवार को होने वाली थी. क्या सचमुच उस दिन मुकदमा शुरू हो पाएगा, यह साफ नहीं है. मायर का कहना है कि यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि बाकी की जगहें कैसे बांटी जाएंगी. संवैधानिक अदालत ने अपने फैसले में हाईकोर्ट को सीटों के बंटवारे पर ठोस निर्देश नहीं दिए हैं. इसलिए संभव है कि विदेशी पत्रकारों को तीन अतिरिक्त जगहें दी जाएं. इसका फैसला हाई कोर्ट को करना होगा. अतिरिक्त सीटों को लॉटरी के जरिए बांटा जा सकता है या फिर पहले अपनाए गए विंडहुंड सिद्धांत के आधार पर.
मायर कहते हैं कि यदि सुनवाई वाले कमरे में तीन अतिरिक्त सीटें लगा दी जाएं तो कोई समस्या नहीं होगी. "लेकिन यदि सभी सीटों का फिर से बंटवारा किया जाएगा तो मुझे संदेह है कि यह थोड़े समय में संभव होगा." वैसी स्थिति वे पत्रकार अपील कर सकते हैं जिन्हें पिछले बंटवारे में जगह मिली थी, लेकिन नए बंटवारे में उन्हें खाली हाथ रहना पड़ेगा.
रिपोर्टः श्टेफानी होएपनर/एमजे
संपादनः निखिल रंजन