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विदेशी जर्मन ज्यादा गरीब

१२ जुलाई २०१३

भले ही वह बरसों से जर्मनी में रह रहे हों, भले ही वहां बरसों बरस काम किया हो. लेकिन जब गरीबी की मार पड़ती है, तो विदेशी बुजुर्ग जर्मनों के मुकाबले इसके ज्यादा शिकार हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

पूर्वी और दक्षिणी यूरोप के लाखों लोग 1960 और 1970 के दशक में जर्मनी पहुंचे. ज्यादातर लोग अपने ही देश की गरीबी से भागना चाहते थे, जबकि उस वक्त जर्मनी की अर्थव्यवस्था विकास के दौर में थी और यहां मजदूरों की बेतहाशा जरूरत थी. जर्मनी ने बाहें खोल कर मेहमान मजदूरों का स्वागत किया, जिनका इस्तेमाल यहां के स्टील, खान और मोटर कार उद्योग में जबरदस्त तरीके से हुआ. लेकिन इनमें से कम लोग ही सम्पन्न हो पाए.

कौन है गरीब

हंस बोएकलर फाउंडेशन की ताजा रिपोर्ट बताती है कि रिटायरमेंट की उम्र तक पहुंचते पहुंचे 40 फीसदी से ज्यादा प्रवासियों को गरीबी झेलनी पड़ती है. जर्मन नागरिकों में यह दर सिर्फ एक तिहाई है. यूरोपीय संघ की परिभाषा के मुताबिक औसत राष्ट्रीय आय के 60 फीसदी से कम कमाने वाले गरीब कहे जाते हैं. इस आधार पर जर्मनी में अकेले रहने वाले अगर महीने में 848 यूरो से कम कमा रहे हों या मियां बीवी की जोड़ी 1278 यूरो से कम कमा रही हो, तो वे "गरीब" हुए.

Eser Göklur
तस्वीर: DW

रिपोर्ट में सिर्फ अकेले रहने वालों पर ही नहीं, बल्कि जोड़ों और बड़े परिवारों पर भी नजर डाली गई है. इसे तैयार करने वाले एरिक साइल्स का कहना है, "अगर किसी परिवार में एक शख्स के पास 848 यूरो से ज्यादा हैं और दूसरे के पास कुछ नहीं, तो भी वे गरीब माने जाएंगे."

खराब तनख्वाह, बेरोजगारी की मार

क्या हैं वजह

साइल्स इसकी तीन वजह मानते हैं. 1. हालांकि वे आम तौर पर बड़ी कंपनियों में काम करते हैं, लेकिन वे गैर प्रशिक्षण वाले काम करते हैं, जिसमें कम पैसा मिलता है, 2. बहुत से लोगों को 1980 के दशक में नौकरी से निकाल दिया गया जब उद्योग क्षेत्र सिकुड़ने लगा और सेवा क्षेत्र में विस्तार शुरू हुआ, 3. सरकारी नौकरियों में उनका हिस्सा अत्यंत कम है, ऐसा क्षेत्र, जिस पर गरीबी की कोई मार नहीं पड़ी है.

60 Jahre Bundesrepublik - Gastarbeiter in Hamburg
तस्वीर: picture-alliance/dpa

इसके अलावा कई विदेशी ज्यादा उम्र में जर्मनी पहुंचे, जिसकी वजह से वे लगातार काम नहीं कर पाए क्योंकि यहां काम खोजने में भी उन्हें वक्त लगा. साइल्स कहते हैं, "उन्हें कई बार काम करने के शुरुआती सालों में कोई फायदा नहीं मिल पाया."

किसको मिले फायदा

रिटायरमेंट के वक्त पर आप्रवासियों की मुश्किल माली हालत कोई नई बात नहीं है. जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक रिसर्च की बुजुर्गों पर 2006 की रिपोर्ट ने भी विदेशियों के बीच बुढ़ापे में बढ़ती गरीबी की ओर ध्यान दिलाया था. साइल्स का कहना है कि इसके बाद सिर्फ नंबर बदले हैं, हालात नहीं, "2006 में विदेशी मूल के करीब 1,70,000 लोग बुढ़ापे की गरीबी का शिकार थे. अब उनकी संख्या बढ़ कर 2,70,000 के पास पहुंच गई है." उनका कहना है कि यह संख्या और बढ़ सकती है.

आने वाले समय में ऐसे बुजुर्गों को गरीबी से बचाने के लिए जर्मन राज्य बाडेन वुर्टेमबर्ग की पेंशन संस्था ने धर्मार्थ काम कर रहे कुछ संस्थानों के साथ मिल कर 2009 में एक बड़ी योजना की शुरुआत की.

Migranten Senioren Deutschland
तस्वीर: imago/Caro

प्रोजेक्ट के प्रमुख और राजकीय पेंशन कोष के प्रमुख आंद्रेयास श्वार्त्स का कहना है कि जब उनकी योजनाओं से कुछ खास फायदा नहीं हो पाया, तो उन्होंने "आप्रवासन और सामाजिक सुरक्षा नेटवर्क" तैयार किया, "इसमें खास बात यह है कि लोग अपनी भाषा में रिटायरमेंट सुविधाओं के बारे में सवाल भी पूछ सकते हैं."

पिछले साल उन्होंने पहला कोर्स शुरू किया और इसके अच्छे नतीजे सामने आए. दूसरे जर्मन राज्यों में भी ऐसी पहल की गई है, हालांकि इनके बहुत अच्छे नतीजे नहीं आए हैं. श्वार्त्स का कहना है कि यह खास तौर पर सांस्कृतिक संस्थाओं और प्रवासियों के लिए है लेकिन इसमें कोई भी शामिल हो सकता है.

हालांकि राज्यों की यह शुरुआत प्रवासियों के बहुत काम नहीं आ पा रही है. अगर पेंशन बहुत कम मिल रही हो तो प्रवासी सामाजिक सहायता के लिए आवेदन कर सकते हैं. लेकिन साइल्स का कहना है कि अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि की वजह से कई प्रवासी मदद मांगने में भी "शर्म" महसूस करते हैं.

रिपोर्टः गुंथर बिर्केनश्टॉक/एजेए

संपादनः महेश झा