लोकतंत्र में जिम्मेदारी जरूरी
११ जुलाई २०१४हर खेल के कुछ नियम होते हैं जिनका पालन सभी खिलाड़ियों को करना पड़ता है. ऐसा नहीं हो सकता कि एक टीम तो नियमों का पालन करे और दूसरी न करे. अक्सर देखा जाता है कि यदि एक टीम फाउल करने पर उतर आती है तो फिर दूसरी टीम भी यही करने लगती है. लोकतंत्र भी एक ऐसा ही खेल है जिसे हर टीम और हर खिलाड़ी को स्वस्थ खेलभावना के साथ खेलना होता है. लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं.
पिछले एक दशक से भारतीय संसद में सांसदों का जैसा आचरण देखने में आ रहा है, उससे यह स्पष्ट है कि विरोध प्रदर्शन करने का एकमात्र तरीका असंसदीय आचरण और संसद की कार्यवाही ठप्प करने को माना जाने लगा है. ऐसा नहीं कि पहले संसद की कार्यवाही बाधित नहीं होती थी, लेकिन ऐसा तभी होता था जब विपक्ष को लगता था कि उसकी उचित बात को भी नहीं सुना जा रहा है. पीठासीन अधिकारी के आसन के सामने इकट्ठा होकर नारेबाजी करना अपवादस्वरूप था और उसे अच्छा नहीं समझा जाता था. संसद में बहस का स्तर भी काफी ऊंचा होता था और पक्ष हो या विपक्ष, सभी का अधिक जोर नीतियों पर चर्चा करने पर रहता था. लेकिन पिछले एक दशक में स्थिति में भारी बदलाव आया है.
2004 में सत्ता से बेदखल होने के बाद भारतीय जनता पार्टी को इस सचाई को पचाने में काफी समय लग गया. 2009 में एक बार फिर हारने के बाद तो उसने तय कर लिया कि कोई-न-कोई बहाना बनाकर संसद की कार्यवाही को ठप्प करना है. संसद का सत्र शुरू होने से पहले ही संवाददाता सम्मलेन करके घोषणा की जाती थी कि सरकार की नीतियों के खिलाफ विरोध प्रकट करने के लिए हम संसद का कामकाज नहीं होने देंगे. या तो सरकार हमारी बात माने और या फिर संसद के ठप्प होने के लिए तैयार रहे. कई बार ऐसा हुआ कि पूरे सत्र में एक भी विधायी काम नहीं हो पाया जबकि संसद का काम ही देश के लिए कानून बनाना है. संसद को ठप्प करना राजनीतिक रणनीति का अनिवार्य अंग बन गया था.
दूसरे दलों का आचरण इससे बेहतर नहीं था, लेकिन सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के कारण बीजेपी की जिम्मेदारी सबसे अधिक थी. लेकिन उसने एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाने के बजाय अपने लिए गैर-जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका को चुना. संसद को चलाना सत्ता पक्ष की प्राथमिक जिम्मेदारी है, लेकिन यदि विपक्ष उसे न चलने देने पर आमादा हो जाए तो कुछ नहीं किया जा सकता. संसद को सुचारू ढंग से चलाने के लिए सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी है कि वह विपक्ष की राय का सम्मान करे और उसे सदन में अपनी बात रखने का पूरा मौका दे. साथ ही उसकी जायज मांगों पर सकारात्मक रवैया अपनाए.
यदि ऐसा नहीं होता, तो विपक्ष भी नकारात्मक रुख अपनाने पर विवश हो जाता है. लोकतंत्र आदान-प्रदान और सामंजस्य स्थापित करने के सिद्धांत पर आधारित प्रणाली है. इसमें बहुमत प्राप्त सत्तापक्ष को भी यह आजादी नहीं होती कि वह मनमानी करे. संसद में इसीलिए प्रत्येक विधेयक पर चर्चा होती है और विपक्ष को पूरा मौका दिया जाता है कि वह उस पर अपनी राय रखे और उसमें संशोधन भी सुझाए. ऐसा नहीं है कि विधेयक पेश करने के तुरंत बाद बहुमत के आधार पर सत्तापक्ष उसे पारित करा ले.
लेकिन जिस तरह से राजनीति और सार्वजनिक जीवन में मूल्यों में गिरावट आई है, उसी तरह से संसद की कार्यवाही का स्तर भी पहले के मुकाबले काफी नीचे आया है. मंगलवार को बीजेपी के एक सांसद हरिनारायण राजभर ने तृणमूल कांग्रेस के महिला सांसदों के बारे में कोई अशोभनीय टिप्पणी की क्योंकि वे महंगाई और रेल बजट के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रही थीं. बाद में केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि विपक्षी सांसदों को याद रखना चाहिए कि बीजेपी को भारी जनादेश मिला है. पिछले एक माह से बीजेपी के नेता विरोधियों का मुंह बंद करने के लिए इसी तर्क का इस्तेमाल कर रहे हैं.
लेकिन जब दूसरी पार्टियों को प्रचंड बहुमत मिलता था, तब क्या वे विपक्षी पार्टी के रूप में अपना विरोध प्रकट नहीं करते थे? राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को जैसा बहुमत मिला था, वैसा आज तक किसी भी नेता या पार्टी को नहीं मिला. लेकिन उसकी परवाह न करते हुए उस समय विपक्ष राष्ट्रपति जैल सिंह से उनकी सरकार को बर्खास्त करने की मांग करता रहा, और बोफोर्स मामले में कोई सबूत न होने के बावजूद ‘गली-गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है' के नारे संसद के भीतर और बाहर बुलंद करता रहा. इस अभियान में बीजेपी भी सक्रिय भूमिका निभा रही थी. उस समय जनादेश के सम्मान का विचार बीजेपी के नेताओं के मन में नहीं आया.
कांग्रेस ने घोषणा कर दी है कि जिस तरह से बीजेपी ने विपक्ष की भूमिका निभाई थी, वह भी उसी तरह से निभाएगी. संसदीय लोकतंत्र के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि प्रमुख राजनीतिक दलों को संसदीय कामकाज के महत्व का एहसास नहीं रह गया है. लेकिन यदि सत्तारूढ़ बीजेपी विपक्ष को साथ लेकर चलने की ईमानदार कोशिश करे और बहुमत के दंभ को छोड़ दे, तो शायद आगे बढ्ने के लिए कोई राह निकाल सकती है.
ब्लॉग: कुलदीप कुमार
संपादन: महेश झा