सबका बोझ उठाने वालों का बोझ कोई नहीं उठा रहा
२७ अप्रैल २०२०देश में कोरोना लॉकडाउन की वजह से असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की रोजी-रोटी खतरे में हैं. इनमें रेलवे स्टेशनों पर काम करने वाले कुली भी शामिल हैं. इन कुलियों, जिनको रेलवे की भाषा में अब सहायक कहा जाता है, के बिना रेलवे स्टेशन की कल्पना करना भी मुश्किल है. लेकिन अब पश्चिम बंगाल समेत देश भर के रेलवे स्टेशनों पर दिन-रात काम करने वाले इन कुलियों की आजीविका खतरे में पड़ गई है. जब ट्रेनें ही बंद हैं तो इनको भला रोजगार कहां से मिलेगा? अब ऐसे तमाम कुली सूने रेलवे स्टेशनो पर दोबारा सिग्नल के हरे होने यानी ट्रेनों की आवाजाही शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं. लेकिन फिलहाल यह अनिश्चित है.
"हम पीढ़ी-दर-पढ़ी सारी दुनिया का बोझ उठाते रहे हैं. हमाके बाप-दादा भी हावड़ा स्टेशन पर यही काम करते थे. लेकिन अब महीने भर से हमारी कमाई पूरी तरह ठप है. कभी ऐसे दिन देखने की कल्पना तक नहीं की थी", यह कहते हुए हावड़ा स्टेशन पर बीते 22 साल से कुली का काम करने वाले बेगूसराय के रामआसरे की आंखें कहीं शून्य में खो जाती हैं. वह बताते हैं कि पहले रोजाना औसतन सात-आठ सौ रुपए तक की कमाई हो जाती थी. अपना खर्च निकाल कर जो बचता था उसे घर भेज देते थे. उसी से गांव में नौ लोगों का परिवार चलता था. लेकिन अब जब अपने पेट के ही लाले पड़े हैं तो घर-गांव की सुध कैसे लें? अब तमाम कुली कभी रेलवे या कभी किसी स्वयंसेवी संगठनों की ओर से मिलनेवाले भोजन से पेट भर रहे हैं. लेकिन उसकी भी कोई गारंटी नहीं है. किसी-किसी दिन तो पानी पीकर ही सो जाना पड़ता है.
पश्चिम बंगाल में कुल 563 रेलवे स्टेशन हैं जिनमें से पांच तो अकेले कोलकाता में हैं. इन स्टेशनों पर लाइसेंसी कुलियों की तादाद एक हजार से ऊपर है. पूरे देश के रेलवे स्टेशनों का हिसाब करें तो इन कुलियों की तादाद हजारों में होगी. इनके अलावा गैर-लाइसेंसी कुलियों की तादाद तो एक लाख से ऊपर है. उत्तर बंगाल के एक प्रमुख रेलवे स्टेशन न्यू जलपाईगुड़ी पर लॉकडाउन शुरू होने से पहले इन कुलियों को सांस लेने तक की फुर्सत नहीं रहती थी. देश के बाकी हिस्सों से असम समेत पूर्वोत्तर जाने वाली तमाम ट्रेनें इसी स्टेशन से गुजरती हैं. इसके अलावा दार्जिलिंग, सिक्किम और भूटान से जैसे पर्यटन स्थलों के लिए अकेला स्टेशन होने की वजह से रोजाना भारी तादाद में देश के कोने-कोने से लोग यहां पहुंचते थे. लेकिन अब इलाके के इस व्यस्ततम स्टेशन पर सन्नाटे का राज है. यहां 35 साल से यह काम करने वाले भोला पासवान बताते हैं, "एक महीने से एक ढेले की कमाई नहीं हुई है. अब तो जेब में भी पैसा नहीं बचा है."
वैसे, इन कुलियों को कभी बचत की आदत नहीं रही. जो भी कमाया, उसे दो-चार सप्ताह में किसी के हाथों घर भेज दिया. दरअसल, ऐसी मुसीबत की किसी ने कल्पना तक नहीं की थी जब ट्रेनें भी बंद हो जाएंगी. भोला के पिता केदार को रेलवे की हड़ताल की याद है. हालांकि वह भी इतनी लंबी नहीं चली थी. लेकिन अब तो जीना दूभर होता जा रहा है. केदार कहते हैं, "हमारा भविष्य अनिश्चित है. पता नहीं आगे क्या होगा. कोरोना से बच भी गए तो भूखों मर जाएंगे."
हावड़ा और सियालदह के लाइसेंसी कुलियों ने रेलवे अधिकारियों से मिल कर मदद की गुहार लगाई थी. लेकिन रेलवे ने भी कुछ दिनों तक खाना-पानी देने के बाद हाथ खड़े कर लिए हैं. पूर्व रेलवे के एक अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं, "हमने कुछ दिनों तक इन कुलियों के खाने के इंतजाम करने का भरोसा दिया था. लेकिन बाद में वह लोग आर्थिक मदद मांगने लगे. ऐसा करना हमारे वश में नहीं है."
केंद्र सरकार ने असंगठित क्षेत्र के लिए राहत पैकेज का एलान जरूर किया है. लेकिन कुली का काम करने वाले लोग अब तक इससे वंचित ही हैं. रामआसरे कहते हैं, "राज्य व केंद्र सरकार ने कई कल्याण योजनाओं का एलान किया है. लेकिन अब तक हमें कोई सहायता नहीं मिली है." कुलियों ने सरकार से विशेष पैकेज या वैकल्पिक रोजगार की मांग की है ताकि रोजी-रोटी जारी रह सके. बंगाल में इन कुलियों के संगठन के नेता देवाशीष सान्याल कहते हैं, "कुलियों की कमाई अचानक ठप हो गई है. इनमें से कई लोग यहां अपने परिवार के साथ रहते हैं. ऐसे लोगों को भारी दिक्कतों से जूझना पड़ रहा है. सब कुछ बंद होने की वजह से वह लोग घर भी नहीं जा पा रहे हैं. ऐसे में उनकी हालत न घर का न घाट का वाली हो गई है."
साउथ वेस्टर्न रेलवे लगेज सहायक्स एसोसिएशन के अध्यक्ष सी उदय कुमार कहते हैं, "देश भर में भारतीय रेलवे के साथ लगभग 50 हजार लाइसेंसी कुली हैं. इनके अलावा बाकियों की तादाद एक लाख से ऊपर होगी. यह लोग रोजी-रोटी के लिए ट्रेनों पर ही निर्भर हैं. लेकिन अब इनकी आजीविका खतरे में है. सरकार को इनके लिए शीघ्र राहत पैकेज का एलान करना चाहिए."
सीपीएम से जुड़े ट्रेड यूनियन सीटू के नेता सुभाष मुखर्जी कहते हैं, "सरकार ने असंगठित क्षेत्र के लिए पैकेज का एलान जरूर किया है. लेकिन इन कुलियों को कोई आर्थिक सहायता नहीं मिल सकी है. इनमें से ज्यादातर के पास राशन कार्ड नहीं होने की वजह से मुफ्त राश की सुविधा भी नहीं मिल रही है." वह कहते हैं कि यह लोग अपनी मेहनत से रोजी-रोटी कमाते रहे हैं. अब महामारी की इस स्थिति में सरकार को इनकी जिम्मेदारी उठानी चाहिए. कांग्रेस से जुड़े इंटक के नेता मोहम्मद कमर कहते हैं, "कुलियों को कहीं से कोई सहायता नहीं मिल रही है. इनकी ओर न तो केंद्र सरकार व रेलवे का ध्यान है और न ही राज्य सरकार का." इन नेताओं का आरोप है कि जमीनी स्तर पर कुप्रबंधन व धांधली की वजह से इन लोगों तक सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच पा रहा है. सीटू ने इस मुद्दे पर केंद्र व राज्य सरकारों को पत्र लिखा है.
पहले कुलियों को उम्मीद थी कि 21 अप्रैल से ट्रेनों की आवाजाही शुरू हो जाएगी. लेकिन लॉकडाउन बढ़ जाने से उनकी उम्मीदों को करारा झटका लगा है. अब इन लोगों को अपना और परिवार का पेट पालने के लिए उस दिन का बेसब्री से इंतजार है जब स्टेशनों पर इंजनों की सिटी दोबारा गूंजेगी.
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