1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

लुट गया रुपया

२२ अगस्त २०१३

सुधारों का अभाव, बेलगाम भ्रष्टाचार, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, ये सभी वो कारण हैं जिन्होंने भारत के रुपये को रसातल पर पहुंचा दिया है. देश गहरे आर्थिक संकट में है, आर्थिक विकास का बुलबुला फोड़ दिया गया है

https://p.dw.com/p/19UPG
तस्वीर: AP

जब पिछले महीने जुलाई, 2013 में भारतीय मुद्रा रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले लगातार लुढ़क कर 60 रुपये प्रति डॉलर की दर से भी नीचे पहुंच गया था, तब लगा कि उसके गिरने की अंतिम सीमा आ गई है और अब वह ऊपर ही चढ़ेगा. लेकिन अभी उसे और अधिक मनोवैज्ञानिक सदमे सहने थे. 16 अगस्त से 20 अगस्त के बीच वह 61.81 से गिरकर 64 रुपये प्रति डॉलर से भी कम मूल्य पर आ टिका. ब्रिटिश पाउंड के मुकाबले तो उसकी कीमत 100 से भी कम हो गई. एक जमाना था जब सरकार द्वारा रुपये का अवमूल्यन किया जाना बहुत बड़ा राजनीतिक आर्थिक फैसला माना जाता था और सरकार की स्थिरता ऐसे फैसलों पर निर्भर होती थी, लेकिन अब हर दिन उसे संभालने की कोशिशों का भी असर नहीं हो रहा. इस साल के अभी आठ माह भी नहीं बीते हैं और अब तक रुपये की कीमत में 17 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है. यानि अब आयात पहले के मुकाबले बहुत महंगा होता जा रहा है.

अर्थव्यवस्था के लिए इसका क्या मतलब है यह इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि भारत तेल की अपनी 80 प्रतिशत जरूरत अन्य देशों से तेल आयात करके पूरी करता है. यही नहीं, वह हर साल 800 टन सोना भी विदेशों से मंगवाता है. स्वयं अर्थशास्त्री और अनुभवी आर्थिक प्रशासक होने के बावजूद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी सरकार या देश के केन्द्रीय बैंक भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा ऐसी कोई नीति लागू नहीं करा पा रहे हैं जो रुपये की इस ढलान को रोकने में सहायक हो. वे वर्तमान आर्थिक संकट का कारण अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को बता रहे हैं, लेकिन उनके इस तर्क को लोग इसलिए मानने के लिए तैयार नहीं क्योंकि विश्व अर्थव्यवस्था अपने संकट से अब बहुत कुछ उबर चुकी है और उसमें उछाल का रुझान देखने में आ रहा है. इसके बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर गिरकर अब केवल पांच प्रतिशत के आसपास पहुंच रही है. यदि वह इससे कुछ अधिक भी रही तो भी उसके छह प्रतिशत तक पहुँचने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे.

Manmohan Singh
मनमोहन के दांव नाकामतस्वीर: AFP/Getty Images

आर्थिक विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका के फेडरल रिजर्व के अध्यक्ष बेन बेरनैनके के हालिया बयानों के बाद यह माना जा रहा था कि उभर रही अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राओं में भारी अस्थिरता आएगी. ऐसे में मुद्रा बाजार की आवाज को सुनने के बजाय भारतीय रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय ने उसके मुंह में कपड़ा ठूंस कर उसे बंद करने की नीति अपनाई. चालू खाते में घाटा यूं ही बहुत अधिक है, ऊपर से रुपये की परिसंपत्तियों को खरीदने में लोगों की दिलचस्पी कम हो गई क्योंकि सरकार अनेक तरह के नियंत्रणों के जरिये रुपये की कीमत को स्थिर रखने की नाकाम कोशिश में लगी थी. लोगों के लिए मुद्रा बाजार के जोखिम को कम करने के रास्ते बंद हो गए. नतीजतन वित्तीय बाजार के उदारीकरण के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता भी संदिग्ध होती गई. विश्लेषकों का यह भी मानना है कि सरकार को कम ब्याज दर और रुपये की स्थिरता में से एक को चुनना चाहिए था. उसने दोनों को चुनने की कोशिश की और इस कोशिश में उसे मुंह की खानी पड़ी. यदि सरकार चाहती है कि आर्थिक विकास दर गिरने के बजाय ऊपर उठे, तो उसे व्यापार, वित्त और खाता उदारीकरण के क्षेत्र में आर्थिक सुधारों की दिशा को विपरीत दिशा में मोड़ने वाले नीतिगत फैसलों को वापस लेना होगा. आर्थिक नीति के क्षेत्र में विचारों के अभाव का आलम यह है कि पिछले सप्ताह विदेशी मुद्रा के बाहर जाने को रोकने के लिए सरकार ने 71 वर्ष बाद कुछ ऐसे नियंत्रण लगाने की घोषणा की जो द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश सरकार ने लगाए थे. माना जा रहा है कि इससे मुद्रा बाजार में गलत संकेत गया और रुपये के लुढ़कने की गति और भी तेज हो गई. अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इस स्थिति को अर्थव्यवस्था में संरचनागत कमजोरी को दूर किए बिना नहीं सुधारा जा सकता.

Symbolbild - Währung Rupie
तस्वीर: Fotolia/thomasp24

यह डर भी व्यक्त किया जा रहा है कि देश एक बार फिर उसी मुकाम पर आ खड़ा है जहां वह 1991 में था. यह वह समय था जब कर्ज चुकाने के लिए भारत को अपना स्वर्णभंडार अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचना पड़ा था. पिछले वर्षों में सरकार द्वारा भारी खर्च करने के कारण राजकोषीय घाटा और चालू खाता घाटा—दोनों ही में रिकॉर्डतोड़ बढ़ोतरी हुई है जो देश की आर्थिक क्षमता में क्षरण का संकेत है. इस स्थिति का सामना अर्थव्यवस्था को और अधिक उत्पादक बना कर ही किया जा सकता है. इसके लिए राजनीतिक नेताओं और अफसरशाही को अर्थव्यवस्था के सूक्ष्म-प्रबंधन करना होगा और अपना ध्यान सार्वजनिक हित के क्षेत्रों मसलन शिक्षा और स्वास्थ्य पर केन्द्रित करना होगा. भारत में कोयले के पर्याप्त भंडार हैं लेकिन वह अपने विद्युत संयंत्रों को चलाने के लिए महंगे कोयले का आयात कर रहा है. यह खनन के क्षेत्र में सरकार द्वारा व्यापक स्वीकृति प्राप्त नीति बनाने में असफल रहने का नतीजा है. इसलिए अर्थव्यवस्था के साथ-साथ शासनतंत्र में भी संरचनागत सुधार किए जाने की जरूरत है. रुपये का लुढ़कना बीमारी नहीं, बीमारी का लक्षण है. जब तक बीमारी का निदान नहीं किया जाएगा, उसके लक्षण समय-समय पर प्रकट होते ही रहेंगे और अर्थव्यवस्था स्वस्थ नहीं रह पाएगी. अर्थशास्त्रियों का मानना है कि 1991 और वर्तमान स्थिति में सतही समानता है. इस समय हालात 1991 की तुलना में काफी बेहतर हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए साहसिक आर्थिक सुधार अनिवार्य हो गए हैं.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार, नई दिल्ली

संपादन: ओंकार सिंह जनौटी

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

और रिपोर्टें देखें