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लीबिया संकट नाटो, अमेरिका और रूस का भी

२२ मार्च २०११

लीबिया पर संयम के साथ बमबारी जारी है, जिसका सैन्य असर तो देखा जा रहा है, लेकिन राजनीतिक असर पर संदेह बना हुआ है. इस बीच लीबिया का संकट नाटो, अमेरिका, जर्मनी, यहां तक कि रूस का भी आंतरिक संकट बन गया है.

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तस्वीर: AP

अमेरिका की घरेलू राजनीति में एक ओर जहां यह डर समाता जा रहा है कि देश अफगानिस्तान और इराक के बाद एक तीसरे मुस्लिम देश में सैनिक रूप से फंस जाएगा, वहीं रिपब्लिकन पार्टी के कुछ तबकों की राय है कि यह गद्दाफी को मिटा देने का एक अच्छा मौका है. संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव में इसका प्रावधान नहीं है और लगभग 110 टोमाहॉक मिसाइलों और बमों से हमलों के बाद लीबियाई वायुसेना की प्रतिरोध क्षमता तो खत्म सी दिखती है, लेकिन इसके बावजूद विद्रोहियों की स्थिति इससे मजबूत नहीं हो पाई है और गद्दाफी की सत्ता को भी तुरंत कोई प्रत्यक्ष चुनौती नहीं मिल रही है.

राष्ट्रपति ओबामा ने कहा है कि अमेरिका चंद दिनों के अंदर लीबियाई अभियान का नियंत्रण सौंप देगा. लेकिन किसे? अब तक ब्रिटेन और फ्रांस लीबिया के खिलाफ सैनिक अभियान की वकालत करते रहे हैं. और इस मामले में उनका रुख बिल्कुल अलग अलग है. ब्रिटेन चाहता है कि नाटो इस अभियान की अगुआई करे. लेकिन फ्रांस इसके खिलाफ है, वह अपना बर्चस्व कायम रखना चाहता है. फ्रांस के विदेश मंत्री ऐलेन जुप्पे ने कहा है कि अरब देश नाटो की अगुआई को स्वीकार नहीं करेंगे. जर्मनी और तुर्की भी नाटो के हस्तक्षेप के खिलाफ हैं, हालांकि उनके तर्क फ्रांस से अलग हैं. दोनों देश नहीं चाहते कि लीबिया में सैनिक हस्तक्षेप का एक लंबा दौर शुरू हो और मुस्लिम देश तुर्की हवाई हमलों में असैनिक नागरिकों के हताहत होने से चिंतित है.

सोमवार को नाटो की बैठक में कोई निर्णय नहीं लिया जा सका. मंगलवार को फिर से बैठक हो रही है. सबसे चिंता का विषय है कि इस सवाल पर नाटो के देश अपनी धूरी खो बैठे दिखते हैं. पहली बार नाटो के महासचिव बैठक से बाहर निकल आए. उनकी गैर मौजूदगी में बैठक चलती रही. इसके अलावा एक साथ बातचीत के बदले अक्सर देखा गया कि कुछ सदस्य देशों के ग्रुप आपस में बात कर रहे हैं.

यहां तक कि रूस में भी इस सवाल पर मतभेद उभर कर सामने आ गया है. फौलादी प्रधानमंत्री व्लादिमीर पुतिन ने संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव की आलोचना करते हुए कहा था कि यह अमेरिकी सैनिक हस्तक्षेप की बढ़ती रुझान की मिसाल है. उन्होंने मध्य युग के ईसाई क्रुसेड के साथ इसकी तुलना की थी. इस बीच राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने टेलीविजन पर कहा है इस संदर्भ में क्रुसेड जैसे शब्द का इस्तेमाल कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता. उन्होंने कहा कि किसी भी हालत में ऐसे शब्द स्वीकार नहीं किए जा सकते, जिनसे सभ्यताओं के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो.

मतभेद खत्म नहीं हुए हैं, बढ़ सकते हैं.

रिपोर्ट: उज्ज्वल भट्टाचार्य

संपादन: ए कुमार

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