पीएम को पत्र लिखने वालों के खिलाफ मुजफ्फरपुर में केस क्यों
४ अक्टूबर २०१९मॉब लिंचिंग के विरोध में इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले देश की तमाम मशहूर शख्सियतों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का निर्देश जिला अदालत ने दिया है. मुजफ्फरपुर के स्थानीय वकील सुधीर कुमार ओझा ने दो महीने पहले मुजफ्फरपुर के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट यानी सीजेएम सूर्यकांत तिवारी की कोर्ट में अर्जी दी थी कि इन लोगों ने ऐसा करके देश के प्रधानमंत्री की छवि धूमिल की है जो कि राजद्रोह जैसा जुर्म है, इसलिए इनके खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज होना चाहिए.
सीजेएम ने ओझा की याचिका पिछले महीने बीस अगस्त को स्वीकार कर ली थी जिसके इसके बाद गुरुवार यानी तीन अक्टूबर को सदर पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज हुई. एफआईआर में ओझा ने आरोप लगाया है कि देश की इन जानी-मानी हस्तियों ने देश और प्रधानमंत्री मोदी की छवि को कथित तौर पर धूमिल किया. याचिकाकर्ता ने इन सभी लोगों पर अलगाववादी प्रवृत्ति का समर्थन करने का भी आरोप लगाया.
23 जुलाई को प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्र में विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े देश के तमाम लोगों ने मांग की थी कि मॉब लिंचिंग जैसे मामलों में जल्द से जल्द और सख्त सजा का प्रावधान किया जाना चाहिए. पत्र लिखने वालों में इतिहासकार रामचंद्र गुहा, फिल्मकार मणि रत्नम, अपर्णा सेन, गायिका शुभा मुद्गल, अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा, फिल्मकार श्याम बेनेगल, अनुराग कश्यप सहित विभिन्न क्षेत्रों की कम से कम 49 हस्तियां शामिल थीं.
पुलिस के मुताबिक इस मामले में भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की कई धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज की गई है इसमें राजद्रोह, उपद्रव करने, शांति भंग करने के इरादे से धार्मिक भावनाओं को आहत करने से संबंधित धाराएं लगाई गईं हैं. अब इन लोगों को या तो अग्रिम जमानत लेनी होगी या फिर गिरफ्तार होने के लिए तैयार रहना होगा.
क्या है बिहार कनेक्शन
जिन हस्तियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है उनमें से शायद ही किसी का संबंध बिहार से हो. फिर भी यह मामला बिहार के मुजफ्फरपुर में क्यों दर्ज हुआ, यह सवाल उठना लाजिमी है. हालांकि ऐसे पहले भी कई मामले सामने आते रहे हैं जिनमें वादी का सीधे तौर पर किसी मामले से संबंध न हो और उस जगह का भी संबंध न हो जहां शिकायत की जा रही हो, फिर भी कई बार अदालतों के आदेश पर या सीधे ही पुलिस में एफआईआर दर्ज करा दी जाती है.
सुप्रीम कोर्ट में वकील दुष्यंत पाराशर कहते हैं, "यदि कोई मामला जनहित का हो या फिर देश और समाज के बड़े हिस्से के हितों से सरोकार रखता हो तो उन्हें कोई भी और किसी भी जगह दर्ज करा सकता है. ऐसे में कोर्ट खुद संज्ञान लेती है कि मामले में कितनी गंभीरता है. ऐसे मामलों में न्यायाधिकार क्षेत्र नहीं देखा जाता है.”
दुष्यंत पाराशर कहते हैं कि किसी व्यक्ति के बयान से यदि किसी की भावना आहत होती है तो जरूरी नहीं कि उस व्यक्ति ने जहां बयान दिया है या वो जहां से ताल्लुक रखता है, वहीं केस दर्ज कराया जाए. पीड़ित व्यक्ति या आहत व्यक्ति कहीं भी केस दर्ज करा सकता है. उनके मुताबिक, ये विवेचना और फिर कोर्ट में सुनवाई के दौरान पता चल जाएगा कि मामले में कितना दम है या फिर जिस व्यक्ति की भावना आहत हुई है क्या वह सचमुच ऐसा मामला है जो व्यापक स्तर पर जनसमुदाय की भावनाओं से सरोकार रखता हो.
हालांकि कुछ जानकारों का ये भी कहना है कि ऐसे मामलों में जो प्रार्थना पत्र दिया जाता है उसमें इस बात को स्पष्ट करना जरूरी होता है कि क्या यह मामला सच में जनहित या देशहित से जुड़ा है और इसमें न्यायाधिकार क्षेत्र का मुद्दा नहीं आएगा. उत्तर प्रदेश में अभियोजन विभाग में अतिरिक्त निदेशक रह चुके हरिहर पांडेय कहते हैं, "सामान्य मामलों में तो इस बात का ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि मामला किस न्यायाधिकार क्षेत्र का है लेकिन कुछ मामलों में इसका विस्तार भी होता है और राजद्रोह जैसे मामलों में इसका कोई औचित्य नहीं रह जाता. लेकिन यह भी सच है कि इसमें इस बात को पूरे प्रमाणों और दस्तावेजों के साथ बताना भी पड़ेगा कि ये कैसे राजद्रोह है.”
केस दर्ज करने के कैसे कैसे आधार
वरिष्ठ वकीलों और कानूनी जानकारों के मुताबिक, ऐसे मामलों को कहीं भी दर्ज कराने में कोई दिक्कत भले ही न हो लेकिन इस तरह के मामलों में नोटिस जारी करके या फिर एफआईआर के आदेश देने के पीछे कई बार जजों के ‘चर्चा में आने की ख्वाहिश' भी रहती है.
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील डॉक्टर सुरत सिंह कहते हैं कि जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के मामलों में अदालतों की आलोचना इसीलिए हुई क्योंकि कई ऐसे मामले हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में प्राथमिकता के तौर पर सुने जाने लगे, जो कि जनहित के नाम पर तो लाए गए थे लेकिन उससे भी व्यापक जनहित के मामलों को इनकी तुलना में नजरअंदाज कर दिया गया. ऐसा सिर्फ इसलिए कि उन मामलों की चर्चा होती थी और अखबारों में खबरें छपती थीं.
तीन साल पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निचली अदालत के एक जज को इसलिए निलंबित कर दिया था क्योंकि वो आए दिन किसी न किसी मामले में चर्चित राजनीतिक हस्तियों या फिर ऐसे ही लोगों को नोटिस जारी करके कोर्ट में हाजिर होने का निर्देश देते थे. साल 2016 में महोबा के एक सिविल जज अंकित गोयल को इसलिए निलंबित कर दिया गया था क्योंकि वह न्यायिक कार्यों में अविवेकपूर्ण फैसले लेते थे. उनके खिलाफ यह कार्रवाई इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस के आदेश पर की गई थी.
दरअसल अंकित गोयल ने सितंबर 2015 में समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह के खिलाफ नोटिस जारी कर उन्हें हाजिर होने को कहा था. इसके अलावा उन्होंने तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली को भी किसी मामले में खुद ही संज्ञान लेते हुए उनके खिलाफ धारा 124A और आईपीसी की धारा 505 के तहत मामला दर्ज किया था. उन्होंने तत्कालीन मंत्री आजम खान को भी किसी मामले में हाजिर होने का निर्देश दिया था.
कितना दम है इस मुकदमे में
अंकित गोयल के लगातार ऐसे फैसलों की चर्चा जब मीडिया में हुई तो हाईकोर्ट ने इसका संज्ञान लेते हुए उन्हें निलंबित कर दिया. ऐसे कई मामले उत्तर प्रदेश में भी कई बार आए हैं और यहां से बाहर भी. ज्यादातर मामले ऐसे होते हैं जिनमें गंभीरता कम और मुकदमा दायर करने वाले व्यक्ति की चर्चा में आने की मंशा ज्यादा दिखती है. कानूनी जानकारों की मानें तो अदालतों को खुद ऐसे मामलों को हतोत्साहित करना चाहिए.
वहीं दूसरी ओर, प्रधानमंत्री को किसी मुद्दे पर पत्र लिखने और उसे सार्वजनिक करने जैसे मामले में एफआईआर को भी कानूनी जानकार सही नहीं मानते हैं. दुष्यंत पाराशर कहते हैं कि ऐसे तो फिर ‘वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' बेमानी हो जाएगी. उनका कहना है कि इन लोगों ने जो पत्र लिखा था, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं दिखता जिसमें राजद्रोह जैसी बात दिखे. उनके मुताबिक, "हालांकि यदि ऐसा कुछ नहीं होगा तो अदालत में मामला वैसे ही खारिज हो जाएगा.”
इन लोगों ने प्रधानमंत्री को लिखे जिस पत्र पर हस्ताक्षर किए थे, उसमें लिखा था, ‘मुस्लिमों, दलितों और अन्य अल्पसंख्यकों के साथ हो रही लिंचिंग की घटनाएं तुरंत रुकनी चाहिए. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ें देखकर हम चौंक गए कि साल 2016 में देश में दलितों के साथ कम से कम 840 घटनाएं हुईं. इसके साथ ही हमने उन मामलों में सजा के घटते प्रतिशत को भी देखा.'
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