मौसम की मार से काम के नए मौके
१८ अक्टूबर २०१८सुंदरबन क्षेत्र के घने मैंग्रोव जंगलों पर मौसम की मार पड़ी है. पिछले एक दशक में आसपास के गांवों में धान की पैदावार करीब आधी हो चुकी है. जलवायु परिवर्तन की वजह से समुद्र का बढ़ता स्तर और तूफान ने फसलों को बर्बाद कर दिया है और नतीजा है कि इन इलाकों के किसान गांव छोड़ने को मजबूर हैं.
हालांकि सुषमा दास और उनके पति के लिए गांव छोड़ना फायदेमंद साबित हुआ. पहले जहां वे धान के खेत में मजदूरी किया करते थे, वहीं अब वे झींगे के फार्म में काम कर रहे हैं और उनकी अच्छी आमदनी हो रही है. पश्चिम बंगाल के कस्बे गोसाबा की रहने वाली 31 वर्षीय सुषमा बताती हैं कि दोनों मिलकर 17 हजार रुपये प्रति महीना कमा रहे हैं.
गांव की कमाई के मुकाबले यह आमदनी दोगुनी है. इस आमदनी की बदौलत उन्होंने अपने घर को दोबारा बनाया, बेटी को स्कूल भेजा और साहूकारों से मुक्ति मिली. सुषमा के मुताबिक, ''अब तक मैं अपनी सारी कमाई पति को देती आई हूं, लेकिन अपनी 12 साल की बेटी की पढ़ाई के लिए ट्यूशन लगवाने पर मैंने जोर दिया.'' वह आगे कहती हैं, ''मैं चाहती हूं कि वह पुलिस अफसर बने. वह बड़े लोगों के साथ काम करेगी."
जलवायु परिवर्तन ने बढ़ाया आप्रवासन
जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया में आप्रवसान और स्थानांतरण को बढ़ा रहा है. बांग्लादेश में खासकर इसका प्रभाव देखने को मिला है, जहां समुद्र स्तर के बढ़ने से निचले इलाकों वाले गांवों के लोग घर छोड़ने को मजबूर हैं. कई लोगों के लिए घर को छोड़ना मुश्किलें पैदा करता है क्योंकि ढाका जैसे घनी आबादी वाले शहर में नया काम करने व मकान ढूंढने की चुनौती होती है. अनिश्चितता और भुखमरी के कारण बाल विवाह और देह व्यापार जैसी सामाजिक कुरीतियों को बढ़ावा मिलता है.
वहीं कुछ परिवार ऐसे भी हैं, जो साल के कुछ महीनों में कहीं और जाना पसंद करते हैं. इससे उनके लिए आमदनी के नए मौके खुलते हैं और वे अपने परिवार की मदद कर सकते हैं. पहले जहां सिर्फ पुरुष ही दूसरे इलाकों में काम करने के लिए गांव को छोड़ते थे, वहीं अब महिलाएं भी काम करने के लिए गांव से बाहर निकल रही हैं. ब्रिटिश और कनाडाई सरकार की मदद से डेल्टा, वल्नरेबिलिटी एंड क्लाइमेट चेंज (डीईसीसीएमए) के एक अध्ययन के अनुसार भारत के सुंदरबन क्षेत्र में हर पांच में से एक घर ऐसा है, जहां का कोई ना कोई सदस्य यहां से बाहर गया है. सुषमा के कस्बे गोसाबा में यह और भी ज्यादा देखा जा सकता है.
डीईसीसीएमए के लिए भारत की कोऑर्टिनेटर सुमोना बनर्जी बताती हैं कि पुरुषों से विपरीत, आप्रवासन करने वाली हर दस में से सात महिलाएं घर पर रही हैं. कुछ कोलकाता में बच्चों और बूढ़ों की देखभाल करने वाली संस्थाओं में काम कर रही हैं. वह कहती हैं कि गोसाबा कस्बा समुद्र स्तर से महज चार मीटर ऊंचा है. यहां हर साल बाढ़ आती है और फसल बर्बाद होती है. उनके मुताबिक इस कस्बे की 80 फीसदी आबादी खेती पर निर्भर है और ज्यादातर लोग गरीब हैं. भारत में मौसम की मार से यह इलाका सबसे ज्यादा प्रभावित है.
बेटियों की पढ़ाई पर जोर
सुषमा बताती हैं कि वह पिछले पांच वर्षों से ओडिशा के गांव बदमहरणा में आ रही हैं. करीब चार महीने तक सुबह से शाम वह अपने पति के साथ धान के खेतों में काम करती हैं. इसके बाद दोनों आधे किलोमीटर दूर स्थित झींगे के फार्म पहुंच कर काम करते हैं.
2011 की जनगणना के मुताबिक, गोसाबा में सिर्फ आधी महिलाएं ही पढ़ सकती हैं. हालांकि कई महिलाएं मानती हैं कि शहर व अन्य इलाकों में काम करके उनकी बेटियों को पढ़ाई-लिखाई के बेहतर मौके मिलेंगे.
सुषमा की शादी किशोरावस्था में ही हो गई थी और अब वह चाहती हैं कि उनकी बेटी पढ़े. वह कहती हैं, ''आज बेटियों को जरूर पढ़ना चाहिए. अगर वे काबिल बनेंगी तो उनके लिए अच्छे रिश्ते खुद-ब-खुद आएंगे.'' दूसरे इलाकों में आप्रवासन करने की वजह से गांव को भी फायदा पहुंचा है. जिन परिवारों से लोग बाहर काम करने गए हैं, उनके घरों के ऊपर सिंगल सोलर पैनल और सैटलाइट टीवी डिश देखा जा सकता है.
आप्रवासन के सकारात्मक पहलुओं के बीच स्थानीय प्रशासन इसके दूसरे पक्ष से रूबरू कराता है. प्रशासन का कहना है कि गांव छोड़कर बाहर काम करने की जरूरत सारी महिलाओं के लिए अच्छी साबित नहीं हुई है. सत्ताधारी दल तृणमूल कांग्रेस से जुड़े सोनागांव के नेता बलराम मैती कहते हैं कि गांव छोड़ने की वजह से किशोरियों व विधवाओं को हिंसा और उत्पी़ड़न का सामना करना पड़ा है. वह बताते हैं कि महिलाएं भले ही काफी पैसे कमाएं, लेकिन अकसर उनका शोषण भी किया जाता है.
वीसी/आईबी (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)