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मुश्किल है कांग्रेस और सीपीएम में गठजोड़

प्रभाकर, कोलकाता१९ फ़रवरी २०१६

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों से पहले बीजेपी के प्रसार को रोकने को बेताब राज्य के दो प्रमुख विपक्षी दलों सीपीएम और कांग्रेस ने आपस में चुनावी गठजोड़ के पर्याप्त संकेत दिए हैं, लेकिन ये राह इतनी आसान नहीं.

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प्रकाश करात और बुद्धदेव भट्टाचार्यतस्वीर: DW/P. Tewari

महीने भर से अब तक बंगाल में एक दूसरे की कट्टर विरोधी पार्टियों के बीच पहले आप पहले आप का चक्कर कट रहा है, लेकिन साथ मिलकर चुनाव लड़ने की कोई औपचारिक घोषणा नहीं हुई है. दोनों पक्ष बार-बार गठजोड़ की गेंद एक-दूसरे के पाले में धकेलते हुए अपने तमाम विकल्प तौलने में जुटे हैं. इनमें से भी कोई इस चुनावी जुए में पहली चाल चलने से बच रहा है. यही वजह है कि पूरी कवायद अब तक निरर्थक ही साबित हुई है, हालांकि बिहार चुनाव के अनुभव बिखरे विपक्षी दलों के लिए फायदेमंद साबित हुए हैं.

प्रदेश कांग्रेस के नेता बीते महीने दिल्ली जाकर पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी को तमाम राजनैतिक हालात से अवगत करा सीपीएम से हाथ मिलाने की वकालत कर चुके हैं. इसके लिए जहां सीपीएम को भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाए रखने के अपने पूर्वघोषित सिद्धांत को तिलांजलि देनी होगी, वहीं केरल का डर भी उसे सताए जा रहा है. यही वजह है कि पार्टी के केंद्रीय नेताओं ने पहले इस मुद्दे पर फैसला करने की जिम्मेदारी बंगाल प्रदेश समिति पर डाल दी. प्रदेश समिति ने जब इस बारे में हामी भरते हुए गठजोड़ के सवाल पर कांग्रेस से चर्चा करने की बात कही तो यह मामला पोलित ब्यूरो को भेज दिया गया.

लेकिन पार्टी पोलित ब्यूरो ने भी इस मुद्दे पर कोई फैसला करने की बजाय गेंद केंद्रीय समिति के पाले में डाल दी. हालांकि केंद्रीय समिति ने बंगाल प्रदेश समिति को इस तालमेल के लिए बातचीत की हरी झंडी दिखा दी है. लेकिन दो विपरीत विचारधाराओं वाली राजनीतिक पार्टियों के बीच इस तालमेल की राह आसान नहीं है. पोलित ब्यूरो की छह घंटे चली बैठक में मूलतः एक ही सवाल पर बहस होती रही कि जो पार्टी केरल में प्रमुख प्रतिद्वंद्वी है उससे बंगाल में हाथ मिलाना कहीं राजनीतिक आत्महत्या तो नहीं साबित होगी. यही वजह है कि पार्टी का एक तबका, केरल इकाई के नेता और लेफ्टफ्रंट के दूसरे घटक इस गठजोड़ के खिलाफ हैं.

Ghulam Ali Sänger aus Pakistan
पाकिस्तानी गायक गुलाम अली के साथ ममता बनर्जीतस्वीर: DW

चुनावी गणित

दोनों दलों के नेताओं के मन में सबसे अहम सवाल यह है कि क्या इस गठजोड़ से ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करना संभव होगा? फिलहाल किसी के पास इसका कोई जवाब नहीं है. राजनीति के गणित में दो और दो मिल कर हमेशा चार नहीं होते. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में विधानसभावार वोटों को ध्यान में रखें तो तृणमूल कांग्रेस को 39.8 फीसदी वोट मिले थे और वह 214 विधानसभा क्षेत्रों में आगे थी. लेफ्ट फ्रंट ने 30 फीसदी वोटों के साथ 28 सीटें जीती थी जबकि कांग्रेस 9.7 फीसदी वोटों के साथ 28 सीटों पर आगे थी. कांग्रेस के मुकाबले भाजपा 17.06 फीसदी वोट के साथ 24 सीटों पर बढ़त के साथ बेहतर स्थिति में थी.

अगर यह समीकरण नहीं बदला तो कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट के साझा वोट उनको सौ से ज्यादा सीटें दिला सकते हैं. इस समीकरण के तहत तृणमूल को 179 सीटें तक मिल सकती हैं. ऐसे में उसे परेशान होने की जरूरत नहीं है. लेकिन अगर इस बात को ध्यान में रखें कि बीजेपी को नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के चलते वोट मिले थे और वह लोकप्रियता अब गिरावट पर है तो ऐसे में उसके वोट अगर लेफ्ट-कांग्रेस खेमे में चले गए तो ममता के लिए चिंता की बात हो सकती है. लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि क्या ऐसा होगा? शायद इसीलिए ममता कह चुकी हैं कि चुनावी फायदे के लिए अपने सिद्धांतों और आदर्शों का बलिदान कर आपस में तालमेल की कांग्रेस और लेफ्ट की कवायद एक बड़ी राजनीतिक गलती है.

Indien - Sonia Gandhi und Rahul Gandhi
राहुल और सोनिया गांधीतस्वीर: picture-alliance/dpa

संशय में दोनों दल

सीपीएम के प्रदेश नेता भले तालमेल की वकालत कर रहे हों, उनके मन में इसके नतीजों को लेकर बेहद संशय है. उसका सवाल यह है कि क्या इस तालमेल से उसे वर्ष 2011 के चुनावों में मिली 62 से ज्यादा सीटें मिलेंगी? क्या इससे महज कांग्रेस को फायदा होगा और सीपीएम का वोट बैंक बिखर जाएगा? यह बात तो माकपा भी मानती है कि उसमें अकेले अपने बूते चुनाव जीतने की कूवत नहीं है. उसका अपना आकलन है कि फिलहाल तृणमूल कांग्रेस के वोटों का प्रतिशत 35 से 37 फीसदी के बीच है. माकपा के आकलन पर भरोसा करें तो हिंदू वोटर तृणमूल से दूर गए हैं. लेकिन कितनी दूर? इस सवाल का जवाब उसके पास नहीं है.

तालमेल के सवाल पर सीपीएम को कई प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझना पड़ा रहा है. इस मुद्दे पर अनावश्यक देरी से उसकी बेचैनी बढ़ रही है. पहले तो लेफ्टफ्रंट के घटक दल भी कांग्रेस के साथ तालमेल पर सहमत नहीं हैं. इसकी एक प्रमुख वजह केरल का चुनाव है जहां उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस ही है. दूसरी ओर, कांग्रेस की चुप्पी के चलते पार्टी दूसरे विकल्प नहीं तलाश पा रही है. बीते महीने पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कांग्रेस को सार्वजनिक रूप से गठजोड़ का न्योता दिया था. लेकिन उसने अब तक इस अपील पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई है.

दूसरी ओर, कांग्रेसी भी इस मुद्दे पर पूरी तरह आश्वस्त नहीं है कि वामपंथियों के साथ गठजोड़ की स्थिति में उसका पारंपरिक वोट बैंक अटूट रहेगा. पार्टी के कुछ नेताओं को डर है कि वाम-कांग्रेस गठजोड़ की स्थिति में तृणमूल कहीं भाजपा को साथ नहीं ले ले. कांग्रेस के सामने भी वही धर्मसंकट है जो सीपीएम के सामने. कांग्रेस को भी बंगाल के साथ केरल में भी विधानसभा चुनावों का सामना करना है जहां वह सत्ता में है और माकपा ही वहां उसकी प्रमुख प्रतिदंवद्वी है. ऐसे में माकपा से हाथ मिलाना केरल में उसकी राह का कांटा बन सकता है.

मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में इन दोनों दलों के बीच तालमेल की राह में कई ‘लेकिन', ‘किंतु' और ‘परंतु' हैं. क्या इससे उबरते हुए दोनों पार्टियां तालमेल का राजनीतिक दांव खेलेंगी? इस सवाल का जवाब तो आने वाले दिनों में ही मिलेगा.