मिशन बन चुकी है राधा की जिंदगी
२० मई २०११राधा पौडेल भी इसी कोशिश में लगी हैं. उनकी कोशिशों में मुश्किलें कम नहीं है. शर्ट, पैंट पहने और काला चश्मा लगाए राधा आम नेपाली औरतों से अलग दिखती हैं. राधा बेहद निडर महिला हैं. नेपाल में दस साल तक माओवाद के कारण तनाव रहा. पर ऐसे हालात में भी राधा अकेले बाहर निकलने से नहीं डरती, आधी रात को भी किसी को जरूरत हो, तो बस पहुंच जाती हैं.
नेपाल में स्कूलों की बुरी हालत
37 वर्षीय राधा पौडेल नेपाल के चित्तोवन जिले की रहने वाली हैं. 15 सालों से वह नेपाल में महिलाओं और बच्चों के विकास के लिए काम कर रही हैं. पेशे से नर्स होने के नाते वह अस्पतालों में डॉक्टरों को मदद पहुंचाती हैं और साथ ही कई एनजीओ के साथ मिल कर स्कूलों सुधार के लिए भी काम करती हैं. नेपाल में स्कूलों की हालत के बारे में राधा बताती हैं, "मैं एक प्राइमरी स्कूल के बारे में बता सकती हूं जहां केवल एक ही टीचर है. वहां चौथी क्लास तक के बच्चे हैं. सिर्फ एक कमरे वाले इस स्कूल में टीचर को 230 से अधिक बच्चों को अकेले ही पढ़ना पड़ता है. एक दूसरा स्कूल हैं, वहां भी हालात ऐसे ही हैं. उन्होंने नाम के लिए कुछ किताबें तो रखी हैं पर उन्हें उनके इस्तेमाल के बारे में कुछ मालूम ही नहीं है. टीचरों को कोई ट्रेनिंग ही नहीं मिलती है. माता पिता भी बच्चों को स्कूल भेजना जरूरी नहीं समझते."
पिता की रोक टोक
राधा कहती हैं कि बचपन से ही ऐसे कई वाकए हुए जहां उन्हें इस बात का एहसास कराया गया कि वह लड़की हैं. वह पढ़ाई में अच्छी थीं, स्कूल में हमेशा अव्वल आती थीं, तो सबने उन्हें स्कूल के बाद एक्स्ट्रा क्लास आयोजित करने के लिए कहा, लेकिन उनके पिता ने इनकार कर दिया, क्योंकि शाम को लड़की का बाहर रहना सुरक्षित नहीं होता. स्कूल के बाद राधा फॉरेस्ट्री की पढ़ाई करना चाहती थीं, लेकिन उनके पिता ने उन्हें इसकी आज्ञा भी नहीं दी. क्योंकि जंगल में जाकर काम करना भी लड़की के लिए सुरक्षित नहीं है. "जब मेरे पिता ने मुझे एक्स्ट्रा क्लास के लिए जाने से मना कर दिया, तब मुझे समझ आया कि मैं लड़की हूं, और मुझे अपने फैसले लेने का कोई हक नहीं है. धीरे धीरे मुझे अकेले बाहर जाने में भी डर लगने लगा, मैं कभी शाम को बाहर नहीं निकलती थी. दसवीं क्लास से पहले तो मैं कभी बस में भी नहीं चढ़ी थी."
संयुक्त राष्ट्र से मिली ट्रेनिंग
पिता के कहने पर नर्सिंग का कोर्स किया और 1994 में कोर्स पूरा करने के बाद राधा पहली बार एक ट्रेनिंग के सिलसिले में राजधानी काठमांडू पहुंची. "उस समय मैं एक सरकारी अस्पताल में काम कर रही थी, तब सरकार ने एक तीन महीने की ट्रेनिंग के लिए एक नर्स को काठमांडू बुलाया. मेरे अस्पताल में मुझसे अच्छा बर्ताव नहीं किया जाता था. वे मुझसे छुटकारा पाना चाहते थे, इसलिए जब मैंने कहा कि मैं जाना चाहती हूं, तो उन्होंने मुझे अनुमति दे दी."
संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित इस ट्रेनिंग ने राधा के जीवन को एक नई दिशा दी और उन्होंने लोगों की मदद करने की ठान ली. राधा बताती हैं कि जब वह वापस आईं, तो उन्हें कई बार चौबीस घंटे ऑपरेशन थिएटर में बिताने पड़ते थे, कई बार आधी रात को भी अस्पताल पहुंचना पड़ता था. "रात को ना तो बिजली होती थी, ना उस जमाने में मोबाइल फोन हुआ करते थे. अगर टैक्सी लेती थी, तो टैक्सी वाली ने इतनी शराब पी होती थी कि उसकी हालत देख कर डर लगता था, लेकिन ज्यादातर मुझे अकेले ही जाना होता था."
बसों में छेड़ छाड़
काम के साथ साथ राधा ने पढ़ाई जारी रखी. वह समाज के लिए कुछ करना चाहती थीं और इसके लिए खुद को पूरी तरह योग्य बनना चाहती थीं. उन्होंने पहले मास्टर इन हेल्थ एजुकेशन और फिर मास्टर इन सोश्योलोजी की. इसके बाद उन्होंने उत्तरी नेपाल के शहर जूमला जाने का फैसला किया. घर वालों ने एक बार फिर रोकने की कोशिश की. लेकिन इस बार राधा ने उनकी नहीं सुनी. "वहां ना तो बिजली थी, ना सडकें, ऐसा लगता था जैसे आदि मानव के जमाने में हैं. आज भी वहां पहुंचना बहुत मुश्किल है. पहले काठमांडू से नेपालगंज तक प्लेन लेना पड़ता है. फिर खराब मौसम के कारण आगे की टिकट नहीं मिलती."
लेकिन जब उन्हें सार्वजनिक यातायात की मदद लेनी पड़ती हैं, तो समझ पाती हैं कि पिता ने क्यों उन पर इतनी रोक टोक लगाई. "मैं अब पब्लिक बसों में घूमती हूं ताकि यह जान सकूं कि आम तौर पर औरतों को क्या दिक्कतें होती हैं. हर वक्त मुझे परेशानियों का सामना करना पड़ता है. मुझे कभी सीट नहीं मिलती, कभी कंडक्टर मुझे छूता है तो कभी ड्राइवर मेरे कपड़ों के बारे में भद्दी बातें कहता है."
दकियानूसी हिन्दू मान्यताओं के खिलाफ
पर राधा को लड़ना आता है, औरों के हकों के लिए भी और अपने हकों के लिए भी. बस ड्राइवर या कंडक्टर की उनके आगे नहीं चलती. पारंपरिक हिन्दू समाज में रहते हुए भी वो दकियानूसी हिन्दू मान्यताओं को मानने से इनकार करती हैं. वो मानती हैं कि ऐसा कुछ नहीं है जो केवल आदमी कर सकते हैं, औरतें नहीं. "जब मेरी मां का स्वर्गवास हुआ, तो हिन्दू मान्यताओं के अनुसार मुझे कुछ भी करने का हक नहीं था. मैं अपनी मां की अर्थी को आग देना चाहते थी, लेकिन पंडित मुझे ऐसा करने नहीं दे रहा था. मुझे उस से लड़ना पड़ा. मैंने अपने रिश्तेदारों को समझाया और फिर उन्होंने भी मेरा साथ दिया. आखिरकार मैंने पूरे तेरह दिन तक सारी रस्में निभाई."
राधा 37 साल की हैं, घर वालों के कई बार कहने के बाद भी उन्होंने शादी नहीं की. जिंदगी की एक लड़ाई से वह दूर ही रहना चाहती हैं. "मैंने अपने करीयर की शुरुआत नर्सिंग से की, इसलिए मैं औरतों की शारीरिक जरूरतों को समझती हूं. लेकिन मैंने इतनी शादीशुदा औरतों को देखा है जो अपने पति की हिंसा का शिकार हुई हैं. उनके घर वाले भी उन्हें मारते पीटते हैं. यह देख कर मेरा शादी करने का मन नहीं करता. मैं कमजोर इंसान नहीं हूं, लेकिन मैं इस तरह की लड़ाई नहीं लड़ना चाहती."
शादी नहीं की, लिया बच्चों को गोद
जूमला में उन्हें एक अनाथ बच्ची मिली, जिसके पिता की मौत हो चुकी थी और मां ने उसे छोड़ दिया था. राधा ने इस बच्ची की जिम्मेदारी ली और उसे अपने साथ ले आईं. आज यह बच्ची नौंवी क्लास में है. उसके अलावा भी राधा पंद्रह बच्चों की शिक्षा का खयाल रख रही हैं. साथ ही पिछले तीन सालों से वह विदेशों में घूम कर औरतों के हकों के बारे में जानकारी हासिल कर रही हैं. राधा को उम्मीद है कि नेपाल में भी आने वाले सालों में औरतों को बराबर के हक मिल सकेंगे. एक दिन नेपाल की औरतें भी दुनिया के लिए सीख बन सकेंगी.
रिपोर्ट: ईशा भाटिया
संपादन: आभा एम