माहवारी में भगवान की मूर्ति छू कर देखा कुछ ना हुआ
३१ जनवरी २०१८भारत में सामान्य रूप से यह धारणा है कि माहवारी के दौरान महिलाएं अशुद्ध होती हैं, उन्हें मंदिर नहीं जाना चाहिए, धार्मिक कार्यों में शामिल नहीं होना चाहिए, खाना नहीं बनाना चाहिए. इसी तरह की कुछ और पाबंदियां भी इस दौरान उन पर लगाई जाती हैं. हाल के वर्षों में इन धारणाओं को चुनौती दी जा रही है. महाराष्ट्र में पिछले साल सरकार ने सभी सरकारी स्कूलों को आदेश दिया कि वे माहवारी के बारे में सच्चाई क्या है यह विद्यार्थियों को पढ़ाएं.
वीडियो: लड़कियों ने दिए "उन" दिनों के बारे में जवाब
चार महीने पहले धनश्री ढेरे की माहवारी शुरू हुई लेकिन दूसरी लड़कियों से अलग उसे बताया गया कि यह एक स्वस्थ प्रक्रिया है. हालांकि उसकी मां इस बात से बहुत सहमत नहीं और उन्होंने उसे पापड़ बनाने से रोक दिया. धनश्री ढेरे ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया, "मैंने स्कूल में सीखा कि अगर मैं खाना छुऊंगी तो कुछ नहीं होगा इसलिए मैंने छू लिया. हालांकि मैं डरी हुई थी और देख रही थी, कुछ नहीं हुआ. इसलिए मैंने उसके बाद भगवान की मूर्ति भी छू ली."
भेदभाव से लड़ाई
मुंबई से करीब 150 किलोमीटर दूर खेवारे महाज गांव के स्कूल में ढेरे की इस स्वीकारोक्ति के बाद उसकी सहेलियां इस बारे में बात कर रही हैं. यह लड़कियां महाराष्ट्र के सात जिलों की उन 3 लाख छात्राओं में हैं जिन्हें पिछले दो सालों में माहवारी के मिथकों को दूर करने के लिए शिक्षा दी गई. संयुक्त राष्ट्र की बाल एजेंसी यूनीसेफ के युसूफ कबीर ने यह जानकारी दी.
पीरियड्स को ऐसे पहले किसी ने नहीं देखा
पीरियड्स के दौरान इस पूल में आना मना है
पांच साल पहले यूनिसेफ ने महाराष्ट्र के जालना और औरंगाबाद जिले से यह कार्यक्रम शुरू किया और अब सरकार के साथ मिल कर पूरे राज्य भर में इस कार्यक्रम का विस्तार कर रही है. दो साल पहले केंद्र सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान में इस कार्यक्रम को भी जोड़ दिया. स्वच्छता के लिए जिम्मेदार केंद्र सरकार की संयुक्त सचिव वेनेलांगाती राधा ने बताया कि इस कार्यक्रम को अब दूसरे राज्यों में भी गैरसरकारी संगठनों के साथ मिल कर शुरू किया जा रहा है. उन्होंने यह भी कहा, "लेकिन महाराष्ट्र इसमें अगुआ है. यूनीसेफ और स्थानीय अधिकारियों ने बहुत अच्छा काम किया है."
इस कार्यक्रम की पहली चुनौती शिक्षक हैं जो पाठ्यक्रम को पढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं. यूनिसेफ के प्रशिक्षकों को पहले उन्हें यह समझाना पड़ता है कि माहवारी में कुछ भी अशुद्ध नहीं है. इस कार्यक्रम के लिए पाठ तैयार करने वाली भारती ताहिल्यानी ने कहा, "शिक्षक इन मिथकों पर विश्वास करते हैं और उनकी तरफ से बहुत अवरोध थे. 80 फीसदी से ज्यादा शिक्षक मानते थे कि माहवारी का रक्त अशुद्ध होता है." भारती ने बताया छात्रों से माहवारी के बारे में बात करने के लिए उन्हें रजामंद करना टेढ़ी खीर थी.
कई सत्रों की ट्रेनिंग के बाद ही यह मुमकिन हो सका. एक बार वो तैयार हो जाएं तो फिर छह महीने का पाठ्यक्रम शुरू किया जाता है. इनमें सिर्फ छात्राएं हिस्सा लेती हैं. छात्रों के लिए सिर्फ एक सत्र होता है जिसमें उन्हें एक फिल्म दिखाई जाती है. पारंपरिक किताबों के अलावा पाठ्यक्रम में खेल, गीत और नाटक को भी शामिल किया गया है.
जानकारी का अभाव
इस पाठ्क्रम की बहुत जरूरत महसूस की जा रही थी. लड़कियों में इसे लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं और इसकी वजह से उन्हें बहुत सी तकलीफों का सामना करना पड़ता है. सरकारी डॉक्टर तारुलता धानके ने बताया, "कई बार तो माहवारी के दौरान लड़कियों ने अपनी योनि में टांके लगवाने की मांग की थी." सबसे बड़ी मुश्किल तो यह है कि इस बारे में जल्दी कोई बात करने के लिए भी तैयार नहीं होता.
लड़कियों को इस बारे में जानकारी से फायदा यह हुआ कि उन्हें अब माहवारी को लेकर बुरा महसूस नहीं होता. वो पीरियड के दौरान भी स्कूल आती हैं और खुद को बीमार नहीं महसूस करतीं. लड़कियों के स्कूल छुड़ाने में माहवारी की बड़ी भूमिका है. माहवारी के दौरान अकसर उन्हें स्कूल जाना बंद करना पड़ता है. इसकी वजह यह भी है कि स्कूलों में पैड बदलने के लिए सुरक्षित जगह या टॉयलेट नहीं हैं.
पाठ्यक्रम में लड़कियों को माहवारी के दौरान स्वस्थ रहने के तरीके भी बताए जाते हैं. अकसर उन्हें इसके बारे में जानकारी नहीं होती. भारत में 60 फीसदी से ज्यादा महिलाएं माहवारी के दौरान सैनिटरी पैड की जगह कपड़े का इस्तेमाल करती हैं और कई बार उससे भी संक्रमण का खतरा रहता है. इनका बार बार इस्तेमाल होता है. इन कपड़ों को धोना सुखाना भी एक समस्या है महिलाएं अकसर इन्हें छिपा कर रखती हैं. पाठ्यक्रम में इसके बारे में जानकारी मिलने के बाद अब लड़कियां सुरक्षित तरीकों का इस्तेमाल कर रही हैं.
एनआर/एमजे (रॉयटर्स)