मासिक धर्म की हिचक तोड़ती युवतियां
७ अगस्त २०१७पूर्वी दिल्ली के राजकीय सर्वोदय कन्या विद्यालय में पढ़ने वाली 14 साल की पिंकी (बदला हुआ नाम) बेधड़क मासिक धर्म से जुड़े मिथक तोड़ रही है. करीब 100 लड़कियों के बीच वह कहती है, "पहले मेरी सोच थी कि माहवारी के दौरान रसोई घर में नहीं जाना चाहिए, हमें पूजा नहीं करनी चाहिए, लेकिन हमें आज पता चला है कि पहले के लोगों की सोच गलत थी और वे अवैज्ञानिक तरीकों से तथ्यों को देखते थे. हमने बहुत तरक्की कर ली है, इसी के साथ हमें अपनी सोच भी बदलनी चाहिए, वक्त के साथ हमने बहुत सारी चीजों को पीछे छोड़ा है और इस दकियानूसी सोच को भी पीछे छोड़ देना चाहिए. हमारे पास अब स्वच्छ जिंदगी जीने के सारे संसाधन उपलब्ध है."
पिंकी की ही तरह करीब 125 लड़कियां यहां इस खास वर्कशॉप में मौजूद हैं, जिनके मन में भी माहवारी को लेकर तमाम गलतफहमियां आज खत्म हुईं. वर्कशॉप में दिल्ली के सरकारी सर्वोदय कन्या विद्यालय (जीजा बाई) की 11वीं क्लास में पढ़ने वाली लड़कियों को मासिक धर्म के दौरान के टिप्स दिए गए. अब लड़कियां इस शारीरिक बदलाव के बारे में अपनी सहपाठियों, मां या फिर दोस्तों से खुलकर बात कर पाएंगी.
पीरियड्स से जुड़े हर सवाल का जवाब
मासिक धर्म से जुड़ी कार्यशाला के पहले इन लड़कियों को सैनेटरी नैपकिन लगाना, पीरियड्स के दौरान कैसे स्वच्छ रहना और सैनेटरी पैड का निपटारा कैसे करना है, के बारे में शायद ही पता था.
दिल्ली के सरकारी स्कूलों में इस तरह के सत्र का आयोजन करने वाली गैर सरकारी संस्था सच्ची सहेली की संस्थापक अध्यक्ष डॉक्टर सुरभि सिंह कहती हैं, "लड़कियां को हम छोटे-छोटे टिप्स देते हैं, जैसे क्या सामान्य है, क्या असामान्य और क्या खतरनाक, जब हम लड़कियों से बात करते हैं तो हमें उनकी परेशानियां जानने का मौका मिलता है और उसी परेशानी को हम हल करने की कोशिश करते हैं. सेशन में हमसे लड़कियां पीरियड्स की अवधि को लेकर सवाल करती हैं, जैसे कोई लड़की कहती हैं मुझे 8 दिन का पीरियड्स हो रहा है तो कोई कहती है कि मुझे 2 दिन का पीरियड्स हो रहा है. कोई लड़की कहती है कि उसे 21 दिन में मासिक धर्म आता है तो कोई 25 दिन की बात करती हैं. हमारी कोशिश होती हैं कि ऐसे भ्रम और उलझनों को दूर करें."
मासिक धर्म को लेकर कितना पिछड़ापन
सच्ची सहेली यही नहीं मिथक को भी तोड़ने की कोशिश करती हैं. भारतीय समाज में माहवारी से जुड़ी कुछ बड़ी गलतफहमियां हैं जो लंबे वक्त से मौजूद हैं. जैसे पीरियड्स के दौरान महिलाओं का अछूत हो जाना, पूजा घर में ना जाने की इजाजत, बाल नहीं धोना, स्कूल नहीं जाना, अचार नहीं छूना, कुछ हद तक नहाने से भी परहेज. 2016 में टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साइंसेस द्वारा कराये गये एक स्टडी के अनुसार 10 में से 8 लड़कियों को पीरियड्स के दौरान धार्मिक स्थलों में जाने नहीं दिया जाता, दस में से छह को खाना छूने नहीं दिया जाता और किचन में नहीं जाने दिया जाता जबकि 10 में से तीन लड़कियों को अभी भी अलग कमरों में रहने को कहा जाता है. इस स्टडी के लिए 97 हजार लड़कियों के डाटा का इस्तेमाल किया गया. स्टडी के मुताबिक इनमें से आधी लड़कियों को पहले पीरियड्स होने पर रक्तस्राव के बारे में पता भी नहीं था.
इन मिथकों के बारे में डॉक्टर सुरभि सिंह कहती हैं, "पहले जमाने में जांघिया नहीं होता था और मासिक धर्म के दौरान लड़की को किसी एक कमरे में रहने को कहा जाता था क्योंकि उस समय पैड जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी और लड़कियां जब घरों में इधर-उधर घूमती तो गंदा खून घरों में गिरता जिसे साफ करने के लिए तालाबों या फिर कुएं से पानी लाना पड़ता. तो हो सकता है कि हाइजीन की कमी के चलते बैक्टीरिया और इंफेक्शन फैलते होंगे और इसे रोकने के लिए लड़कियों को एक कमरे में रहने को कह दिया जाता हो. दूसरा मिथक यह कि लड़कियों को नहाने या फिर बाल धोने से मना करना, इसका कारण यह हो सकता है कि पहले जमाने में घरों में शौचालय और नहाने के लिए अलग व्यवस्था नहीं होती थी, लड़कियों को तालाबों में जाकर नहाना पड़ता होगा, तालाब का पानी रुका हुआ होता है और बैक्टीरिया फैलने का डर बना रहता होगा. हो सकता है इन्हीं सबको रोकने के लिए तमाम तरह की बंदिशें लगाई जाती होंगी. लेकिन अब ऐसा कोई मसला नहीं.'' वो कहती हैं कि महिलाओं के अशुद्ध होने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है बल्कि यह सिर्फ समाज में सदियों से चली आ रही परंपरा ही इसकी मुख्य वजह है.
बेहतर स्वच्छता की जरुरत
दिल्ली के सर्वोदय कन्या विद्यालय की प्रिंसिपल विमलेश कहती हैं, ‘'लड़कियों के मां-बाप भी मासिक धर्म की समस्या से निपटने के लिए जागरुक नहीं हैं, लड़कियां डरी हुई होती हैं और कई बार तो स्कूल भी नहीं आतीं, जो लड़कियां स्कूल आती हैं उन्हें पीरियड्स से जुड़ा बुनियादी ज्ञान भी नहीं होता है.''
वहीं स्कूल की वाइस प्रिंसिपल चंद्रकांता तो हाइजीन से जुड़े बड़े खुलासे करती हैं, वह कहती हैं, ‘'छात्राओं की मां ज्यादातर घरों में ही रहती हैं, उन्हें अपनी बेटी के साथ होने वाले प्राकृतिक बदलाव के बारे में जरा भी पता नहीं होता है, पीरियड्स के दौरान तो लड़कियां कई बार पैड्स कैसे इस्तेमाल करना है यह तक नहीं जानती और कई दफा टीचर इसके इस्तेमाल करने के तरीके बताती हैं.''
यह हाल तो देश की राजधानी का है अब जरा सोचिए कि ग्रामीण इलाकों में क्या हाल होगा, सवाल ये है कि क्या वहां हाइजीन का ध्यान रखा जाता है, क्या पीरियड्स से गुजर रही लड़कियों को सही जानकारी स्कूलों में दी जाती है या फिर वे अब भी गलतफहमियों की शिकार हैं.
मंगल ग्रह तक छलांग लगाने वाले भारत को अब पीरियड्स और उससे जुड़ी अवैज्ञानिक बातों को जल्द से जल्द से दूर करने की जरूरत है. डॉक्टर सुरभि सिंह कहती हैं कि सेशन के बाद लड़कियों के मनोबल में काफी सकारात्मक बदलाव देखने को मिलता है, लड़कियां पीरियड्स के दौरान स्कूल से नहीं भागती और अचार तो जरूर ही छूती हैं.
(पीरियड्स से जुड़ी 10 गलतफहमियां)