मर्दों के रवैये पर बहस करे भारत
१३ सितम्बर २०१३अपराधियों को गले में फंदा लगाकर फांसी दी जाएगी. नई दिल्ली की एक अदालत ने चारों अभियुक्तों को पिछले साल छात्रा से बलात्कार करने और बर्बरता से चोट पहुंचाने का दोषी पाए जाने के बाद कठोरतम सजा दी है. पीड़ित की दो हफ्ते बाद अस्पताल में मौत हो गई थी. इस घटना पर पूरी दुनिया में भारी आक्रोश पैदा हुआ था.
हजारों लोगों ने, खासकर महिलाओं ने अपराधियों को सजा देने और महिलाओं की सुरक्षा के लिए सड़कों पर प्रदर्शन किया. सार्वजनिक आक्रोश के माहौल में अपराधियों को मौत की सजा दिया जाना अपरिहार्य था. अदालत का फैसला राजनीतिज्ञों और क्रुद्ध जनमत की मांगों के अनुरूप था. भारतीय समाज तब से महिलाओं के खिलाफ रोजमर्रा की हिंसा पर बहस कर रहा है. हर रोज बलात्कार के नए मामले सामने आ रहे हैं. राजधानी दिल्ली में ही साल के शुरू से बलात्कार के 1000 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए हैं.
पुरुष प्रधान भारतीय समाज में बहुत सी महिलाओं के लिए हिंसक हमले रोजमर्रा का हिस्सा हैं. उन्हें अक्सर छेड़छाड़, छींटाकशी, बलात्कार और यहां तक कि एसिड हमलों का शिकार बनाया जाता है. मुकदमे सालों चलते हैं, बहुत से मामलों में तो कोई कार्रवाई ही नहीं होती. देश के बड़े हिस्से में पुलिस बलात्कार के मामलों को मामूली अपराध मानती है. रिपोर्ट करने वाली युवा महिलाओं को वापस भेज दिया जाता है, पुलिस जांच नहीं की जाती, मुकदमों में इतनी देरी होती है कि गवाह नहीं मिलते. किसी भी राजनीतिक दल ने महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा अपने कार्यक्रम में शामिल नहीं किया है.
भारत में महिलाओं के अधिकारों और सुरक्षा पर बहस हो रही है, यह अपने आप में सकारात्मक है लेकिन भारत के गलत रास्ते पर जाने का खतरा है. राजनीतिज्ञों ने लोगों के आक्रोश को देखते हुए कानून को सख्त बना दिया है. भविष्य में बलात्कार के दौरान मौत होने पर मौत की सजा का प्रावधान है. अभियुक्तों को जल्द सजा देने के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए गए हैं.
इस प्रक्रिया में भारत ने एक बात भुला दी लगती है, मौत की सजा अपराध को नहीं रोकती. अपराध विज्ञान के शोधों ने यह बात साबित कर दी है. इसके अलावा मौत की सजा बदले की भावना को सजा के केंद्र में लाता है. यह पीड़ितों के परिजनों और उनसे एकजुटता दिखाने वाली महिलाओं को शांत कर सकता है, लेकिन दूरगामी रूप से इसके नतीजे उलटे होंगे. उससे भारत में महिलाओं की समस्या का समाधान नहीं होगा. इसके विपरीत यह समाज में विभाजन को और बढ़ाता है.
भारत को अपने यहां मर्दों के रवैये और महिलाओं की भूमिका तथा अधिकारों पर खुली बहस करने की जरूरत है. यह बहस बिना किसी घृणा और दुर्भावना के होनी चाहिए. यह बड़ी चुनौती है.
समीक्षक: ग्रैहम लुकस/एमजे
संपादन: निखिल रंजन