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मथुरा में गुलाम बना म्यांमार का किसान

६ जनवरी २०१८

8,000 रुपये में 45 साल का या 22 साल का एक इंसान खरीदेंगे? सुनने में भले ही अजीब लगे लेकिन कुछ रोहिंग्या रिफ्यूजियों को इसी दाम में बेचकर भारत में बंधुआ मजदूरी में झोंका गया.

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Indien Rohingya Flüchtlinge
तस्वीर: DW/C. Kapoor

म्यांमार से भागकर बांग्लादेश पहुंचे रोहिंग्या रिफ्यूजी अब्दुल रहमान को एजेंट ने अच्छी नौकरी का भरोसा दिलाया. चार बच्चों के बाप को पता नहीं चला कि एजेंट उसे बेच चुका है. करीब 8,000 रुपये में हुए सौदे के तहत रहमान को हजारों किलोमीटर दूर भारत के एक शहर में भेज दिया गया. मथुरा पहुंचे 45 साल के अब्दुल रहमान को कूड़ा बीनने का काम दिया गया. म्यांमार के रखाइन प्रांत में हरे भरे खेतों के मालिक रहमान को मथुरा में गुलाम सा बना दिया गया.

रहमान को अब आजाद करा लिया गया है. अब उसे दिल्ली के पास मेवात में एक रोहिंग्या कैंप में रखा गया है. रहमान को लगा कि गुलामी से मुक्त होकर अब वह अपने घर वापस लौट सकेगा लेकिन, मेवात के कैंप में भी रहमान की मुश्किलें कम नहीं हुई. रहमान के मुताबिक, "यहां तो मेरे पास रहने के लिए जगह नहीं है. मथुरा में कम से कम सिर पर छत तो थी और नौकरी देने वाला हमें खाना भी देता था." उत्तर भारत की सर्द रातें रहमान ठिठुरते हुए काटता है. उसे बस प्लास्टिक की थैलों को सिलकर बनाई झोपड़ी का सहारा है.

रहमान बताता है कि मथुरा में उनके साथ दो और रोहिंग्याओं को बेचा गया. तीनों का सौदा कुल 25,000 रुपये में हुआ. 22 साल का सादिक हुसैन भी इसी सौदे का हिस्सा था. चार साल तक उसने लगातार अपने मालिक के लिए काम किया. अब मेवात के कैंप में पहुंचा सादिक कहता है, "जब मुझे रेस्क्यू किया गया तब भी मेरे ऊपर मालिक का 5,000 रुपया बकाया था." चार साल तक दास की तरह काम करने के बाद भी रहमान और सादिक के की जेब में एक रुपया तक नहीं है.

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भारत में इस हालात में रहते रोहिंग्यातस्वीर: DW/C. Kapoor

भारत में बंधुआ मजदूरी 1976 से प्रतिबंधित है. लेकिन ईंट उद्योग, कृषि, निर्माण और वेश्यालयों में यह अब जारी है. बंधुआ मजदूरी से आजाद होने पर भारतीय नागरिक सरकार से मुआवजा, जमीन और आवास मांग सकते हैं. लेकिन अब्दुल रहमान और सादिक हुसैन ऐसा भी नहीं कर सकते. गैरकानूनी ढंग से सीमा पार कर भारत आए रोहिंग्या नागरिकों पर कानूनी कार्रवाई की आशंका बनी रहती है.

संयुक्त राष्ट्र संघ पहले ही इस बात की चेतावनी दे चुका है कि बांग्लादेश के रोहिंग्या कैंप तस्करों का अड्डा बन चुके हैं. अब धीरे धीरे इसके सबूत भी सामने आ रहे हैं. बांग्लादेश में इस वक्त करीब 8,70,000 रोहिंग्या रिफ्यूजी हैं. म्यांमार में सेना चौकियों पर रोहिंग्या चरमपंथियों के हमले के बाद वहां सैन्य अभियान चला. मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई की आड़ में म्यांमार की सेना ने रोहिंग्या लोगों का जातीय सफाया करने की कोशिश की. इस डर के चलते लाखों लोग भागकर बांग्लादेश पहुंचे.

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म्यांमार में मौत का डर, भारत में निकालातस्वीर: DW/C. Kapoor

भारत में भी करीब 40,000 रोहिंग्या मुस्लिम हैं. भारत सरकार सुरक्षा का हवाला देकर उन्हें वापस म्यांमार भेजना चाहती है. मेवात के कैंप के जिक्र करते हुए नूर आलम कहते हैं, "हर दूसरे महीने और ज्यादा लोग आ जाते हैं. शिविर बनाने के लिए जमीन तो है लेकिन बांस, प्लास्टिक और पेटियां भी चाहिए, इसमें करीब 7,000 रुपये खर्च होते हैं. लेकिन उनके पास इतना पैसा नहीं है."

रिफ्यूजी कार्ड वाले रोहिंग्या भारत में नौकरी खोज सकते हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे भारत में रह सकते हैं. 25 साल से कम उम्र का दिल मोहम्मद भी रोहिंग्या रिफ्यूजी है. दिल मोहम्मद जम्मू में एक कार फैक्ट्री में काम करता था. उसे 11,000 रुपये तनख्वाह मिलती थी. लेकिन बाद में "सुरक्षा कारणों" के चलते भारत छोड़ने को कहा गया. अब वह मेवात के कैंप में है.

यूएनएचआरसी का रिफ्यूजी कार्ड पाने वाले दिल मोहम्मद के मुताबिक, "मैंने अपना हाथ उठाया और कहा कि मैं आतंकवादी नहीं हूं, सिर्फ एक कामगार हूं." बीते सालों में उसने हिंदी भी सीखी. दिल मोहम्मद को अब भी उम्मीद है कि विशाल भारत में उसे कहीं न कहीं सिर ढंकने और नौकरी करने की जगह मिलेगी. बाकी रोहिंग्या लोगों की तरह दिल मोहम्मद भी एक दिन म्यांमार वापस लौटना चाहता है. उसकी ख्वाहिश बस इतनी है कि वह घर खाली हाथ न लौटे. उसके पास मां, बांप और भाई बहनों के लिए कुछ न कुछ हो.

ओएसजे/एनआर (थॉमस रॉयटर्स फाउंडेशन)