भारतीय संसद के लिए इस बार खास क्यों है शीतकालीन सत्र
१८ नवम्बर २०१९राज्य सभा का पहला सत्र 13 मई 1952 को हुआ था और तब से लेकर आज तक ये सदन भारत के संघीय संवैधानिक ढांचे को संभाले रखने में अपनी भूमिका निभाता आया है.
राज्य सभा के 250वें सत्र की शुरुआत से पहले सदन के अध्यक्ष उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा कि "अपनी स्थापना के बाद से ही, राज्य सभा देश में हुए सामाजिकय-आर्थिक परिवर्तनों का अभिन्न हिस्सा रही है".
इस मौके पर राज्य सभा में भारतीय शासन व्यवस्था में राज्य सभा की भूमिका पर विशेष चर्चा भी हुई. इसमें हिस्से लेते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों को दोहराते हुए कहा कि राज्य सभा भले ही दूसरा सदन हो पर ये द्वितीय सदन कतई नहीं है. उन्होंने कहा कि निचला सदन अगर जमीन से जुड़ा हुआ है तो ऊपरी सदन दूर तक देख सकता है.
राज्यसभा में 1991 से सदस्य और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी इस चर्चा में हिस्सा लिया. उन्होंने कहा कि राज्यों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के अलावा लोक सभा में बहुमत से बानी सरकारों के ऊपर नियंत्रण और संतुलन बनाये रखना राज्य सभा की एक और अहम भूमिका है.
क्या है शीतकालीन सत्र के एजेंडे में
शीतकालीन सत्र 13 दिसंबर तक चलेगा और इसमें 47 विषयों को उठाया जाएगा जाएंगे, जिनमें कुछ पिछले सत्रों से लंबित हैं और कुछ नए विधेयक भी शामिल हैं. महत्वपूर्ण लंबित विधेयकों में सरोगेसी (विनियमन) विधेयक, अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद (संशोधन) विधेयक, ट्रांसजेंडर (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, जलियांवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक (संशोधन) विधेयक शामिल हैं. इनके अलावा कुछ नए विधेयकों के भी लाये जाने की संभावना है. इनमें दिवाला और शोधन अक्षमता (दूसरा) संशोधन विधेयक, गर्भपात (संशोधन) विधेयक, नागरिकता (संशोधन) विधेयक, और व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक शामिल हैं.
कुछ गंभीर मुद्दों पर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच गरम बहस और टकराव होने की भी संभावना है. इनमें अर्थव्यवस्था की हालत, नागरिकता (संशोधन) विधेयक, कश्मीर में उठाये गए कदम, एनआरसी और महाराष्ट्र में राजनितिक अनिश्चितता जैसे मुद्दे शामिल हैं.
महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम की वजह से इस सत्र में एक महत्वपूर्ण बदलाव भी देखने को मिलेगा. शिव सेना जो पिछले सत्र तक सत्तारूढ़ एनडीए का हिस्सा थी, इस सत्र में विपक्ष के स्थान पर बैठेगी. महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों के नतीजे आने के बाद सरकार बनाने की खींच-तान में सेना ने बीजेपी से मुंह मोड़ लिया और एनडीए को छोड़ दिया है.
एनसीपी और कांग्रेस के साथ मिलकर राज्य में सरकार बनाने की कोशिशों के बीच, सेना इस सत्र में बतौर विपक्ष ही पेश आएगी. इससे बीजेपी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं.
दोनों सदनों के भिन्न स्वरूपों की अहमियत
1952 में स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव से पहले तक संसद में केवल एक सदन था. स्वतंत्र भारत के संविधान की रचना करने के लिए बनाई गई संविधान सभा में इस बात को लेकर काफी बहस हुई थी कि क्या संसद में आम नागरिकों द्वारा सीधे चुने गए प्रतिनिधियों के सदन के अलावा एक और सदन भी होना चाहिए या नहीं. अंत में सभा ने निर्णय लिया कि देश में जिस संघीय ढांचे को बनाने की तैयारी हो रही थी उसके लिए बेहतर होगा कि संसद में एक और सदन हो जिसके जरिये राज्यों का भी संसद में प्रतिनिधित्व हो सके.
राज्यों का प्रतिनिधित्व देने के उद्देश्य से लोक सभा के संगठन और सदस्यों के चुनाव के तरीके से एकदम भिन्न ऊपरी सदन राज्य सभा का गठन हुआ. तय हुआ कि यह संख्या में लोक सभा से छोटा होगा और इसके सदस्यों का चुनाव सीधे आम मतदाता नहीं बल्कि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की विधान सभा के सदस्य करेंगे.
संविधान के अनुच्छेद 80 के अनुसार राज्य सभा सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 हो सकती है, जिसमे से 238 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रतिनिधि होते हैं और 12 सदस्य भारत के राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य होंगे. फिलहाल राज्य सभा की संख्या सिर्फ 245 है, जिसमें से 233 राज्यों के प्रतिनिधि हैं और 12 मनोनीत सदस्य.
राज्यसभा को स्थाई सदन भी कहा जाता है क्योंकि लोक सभा की तरह यह कभी भंग नहीं होता. सदस्यों का कार्यकाल छह साल का होता है. राज्यसभा के अध्यक्ष भारत के उप-राष्ट्रपति होते हैं और सिर्फ धन-विधेयकों के अलावा इसकी शक्तियां सामान्यतः लोक सभा के बराबर ही होती हैं. कोई भी विधेयक तभी कानून बनता है जब दोनों सदन उसे अनुमोदित कर देतें हैं और राज्य सभा चाहे तो लोक सभा द्वारा पारित विधेयक को अस्वीकार भी कर सकती है. हालांकि इस शक्ति की भी एक सीमा है और लोक सभा के पुनः उस विधेयक को पारित करने पर राज्य सभा को भी उसे पारित करना ही पड़ता है.
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