भारत में कैसी है फांसी देने तक की प्रक्रिया
९ जनवरी २०२०दिसंबर 2012 में 23 वर्षीया "निर्भया" का बलात्कार और हत्या करने वाले चार अपराधियों के खिलाफ मौत का वारंट जारी हो चुका है. मुकेश सिंह, पवन गुप्ता, विनय शर्मा और अक्षय कुमार सिंह को 22 जनवरी की सुबह 7 बजे नई दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी लगाई जानी है. मौत की सजा भारत में विवादास्पद विषय है जिसके बारे में लोगों की राय बंटी हुई है. मानवाधिकारों में गहरा विश्वास करने वाले लोग मानते हैं कि सभ्य समाज में मौत की सजा जैसी कानूनी सजा के लिए कोई जगह नहीं है. औरों का मानना है कि कुछ जुर्म होते ही इतने वीभत्स हैं कि उनके लिए मौत से कम कोई सजा हो ही नहीं सकती.
मृत्युदंड को लेकर बहस के बावजूद मौत की सजा कैसे दी जाती है इसे लेकर लोगों के मन में कई प्रश्न रहते हैं. भारत में सजा-ए-मौत फांसी के जरिये दी जाती है. सिर्फ तीनों सेनाओं में गोली मार कर सजा-ए-मौत देने का भी प्रावधान है. लेकिन मौत का काला वारंट जारी होने के बाद से फांसी दिए जाने तक क्या क्या होता है?
'ब्लैक वारंट'
असल में, जेल नियमावली में फांसी की पूरी प्रक्रिया का विस्तृत विवरण है. मौत के वारंट को 'काला वारंट' भी कहा जाता है, क्योंकि ये जिस कागज पर छपा होता है उसके हाशिये काले रंग के होते हैं. इसे अपराधी की उपस्थिति में ही जज द्वारा जारी किया जाता है और उसे या उसके वकील को भी एक प्रति दी जाती है. अगर अपराधी जज के सामने प्रस्तुत होने में असमर्थ हो तो उसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये इस बारे में बताने की कोशिश की जाती है.
तिहाड़ जेल के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी सुनील गुप्ता ने एक निजी टीवी चैनल को एक साक्षात्कार में बताया कि अमूमन, काले वारंट पर हस्ताक्षर करने के बाद जज अपनी कलम की नोक तोड़ देता है. ये एक प्रतीकात्मक कार्रवाई है, जिसे कर के जज उम्मीद करता है कि उसे ऐसे किसी और काले वारंट पर दोबारा हस्ताक्षर न करना पड़े. वारंट जारी होने और फांसी दिए जाने के बीच 14 दिनों का समय देना अनिवार्य होता है. इस अवधि में अपराधी को वारंट में अगर कोई त्रुटि नजर आती है या वह उस से असंतुष्ट होता है तो अपने वकील के जरिये वारंट के खिलाफ मामला दर्ज कर सकता है.
बाकी कैदियों से अलग
अगर अपराधी की दया याचिका खारिज हुई है, तो याचिका खारिज होने के बाद अपराधी को "दण्डित बंदी" मान लिया जाता है और उसे बाकी बंदियों से अलग कर दिया जाता है. उसे दिन रात निगरानी में रखा जाता है. वह बाकी कैदियों से बीच बीच में मिल तो सकता है लेकिन उनके साथ खाना नहीं खा सकता. उसे अपने कमरे में अकेले ही खाना होता है.
जेल प्रशासन उससे किसी तरह के काम नहीं ले सकता. वह तय समय सारिणी के अनुसार अपने कमरे से बाहर निकल टहल सकता है या चाहे तो खेल भी सकता है. इस अवधि में अगर वह अपने परिवारवालों से मिलना चाहता है तो उन्हें जेल में बुलवाया जाता है और उससे मिलवाया जाता है. वह अपने परिवारवालों से एक बार से ज्यादा भी मिल सकता है.
जल्लाद की भूमिका
जेल में अगर जल्लाद नहीं है तो जल्लाद को बाहर से फांसी के 48 घंटे पहले बुलाया जाता है. फांसी सूर्योदय के बाद दी जाती है, गर्मियों में सुबह छह बजे के आसपास और सर्दियों में सुबह सात बजे के आसपास. फांसी के तख्ते और उपकरणों को वैसे तो जेल प्रशाशन को हमेशा ही तैयार रखना होता है, लेकिन फांसी देने के एक रात पहले जल्लाद तख्ते, फंदे, लीवर इत्यादि का ठीक से परीक्षण करता है.
फांसी वाले दिन अमूमन जल्लाद ही अपराधी को सुबह पांच बजे के आसपास जगाता है और नहा लेने को कहता है. फिर उसे चाय पिलायी जाती है और अगर उसका कुछ खाने का मन हो तो उसे नाश्ता भी कराया जाता है. फिर मजिस्ट्रेट को बुला कर उससे उसकी संपत्ति के बारे में पूछा जाता है और उसकी वसीयत को लेकर उसकी इच्छा दर्ज की जाती है. यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद जल्लाद उस व्यक्ति को काले वस्त्र - कुरता और पायजामा - पहनाता है और उसके हाथों को पीछे करके बांध देता है और चलाते हुए फांसी के तख्ते तक ले आता है.
फांसी के तख्ते पर पहुंचने के बाद उसके पैरों को भी बांध दिया जाता है. फिर तय समय पर जेलर के इशारे पर जल्लाद लीवर खींच देता है. लीवर खींचने से तख्ते अलग अलग हो जाते हैं और अपराधी का शरीर नीचे 12 फीट गहरे कुंए में लटक जाता है. नियमावली के अनुसार लटकने के झटके से उसके गर्दन की एक हड्डी टूट जाती है, वो तुरंत बेहोश हो जाता है और शरीर में ऑक्सीजन की आपूर्ति बंद होने से दिमागी मौत हो जाती है.
शरीर को इसी अवस्था में दो घंटे तक छोड़ना होता है, जिसके बाद डॉक्टर परीक्षण करता है और जब वो मृत्यु प्रमाणित कर देता है तभी शरीर को उतारा जाता है. शरीर का पोस्टमार्टम भी किया जाता है और यह सुनिश्चित किया जाता है कि फांसी नियमों के हिसाब से हुई या नहीं.
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