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भारत: दोष सिस्टम का है या उसे बनाने और चलाने वालों का

शिवप्रसाद जोशी
२७ मई २०२१

सिस्टम की कमजोरियां उजागर करने में यूं तो कोई अस्वाभाविक बात नहीं लेकिन हैरानी तब होती है जब सरकार को उसकी कमियां और गल्तियां बताने के बजाय सिस्टम पर ही निशाना साधा जाता है. महामारी के दौर में यही हो रहा है.

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Indien Bangalore | Coronavirus, Patient
तस्वीर: Abhishek Chinnappa/Getty Images

दिन रात डटे हुए स्वास्थ्यकर्मियों, नर्सो और डॉक्टरों के अथक प्रयासों के बीच, आम लोग महामारी से जूझ रहे हैं. केंद्र हो या राज्य, सरकारी ढांचे में दूरदर्शिता का अभाव और अन्य कमियां भी उजागर हुई हैं. लेकिन एक अजीब बात ये भी दिखी है कि चुनिंदा विपक्षी नेताओं को छोड़ दें तो सरकारों की आलोचना के बजाय दोष बड़े ही अमूर्त ढंग से सिस्टम पर मढ़ा जा रहा है. आखिर ‘सिस्टम' को ही क्यों कोसा जाता है? क्या इसलिए कि उसे कोसने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता?  

1993 में हिंदी की एक चर्चित हिट फिल्म ‘दामिनी' में वकील के रूप में अभिनेता सनी देओल का किरदार अदालत में चीख चीख कर कहता है तारीख पे तारीख तारीख पे तारीख तारीख पे तारीख. फिल्म के इस अंश की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि यूट्यूब पर इसके वीडियो को पांच करोड़ से ज्यादा बार देखा जा चुका है. फिल्मी डायलॉग का आशय ये है कि अदालतों में सुनवाई की तारीखें ही बढ़ती जाती हैं और न्याय मिलने में बहुत देर होती जाती है. तारीख की आड़ में कथित अपराधी भरसक छिपे रहते हैं.

अलग अर्थों में कमोबेश ऐसी ही बात सिस्टम के बारे में कही जा सकती है. जो अक्सर खराब प्रशासनिक कार्रवाइयों और सत्ता राजनीति की कमजोरियों की आलोचना करते हुए की जाती है. सिस्टम में गड़बड़ी है, सिस्टम बेकार है, सिस्टम सड़ चुका है. सिस्टम सिस्टम सिस्टम. मानो समस्या और मुश्किलों की जड़ यही सिस्टम है और सारा दोष उसी का है न कि उसे चलाने वाले का. जी हां, उस पर गुस्सा निकालते हुए लोग अक्सर ये भुला देते हैं या अनदेखा कर देते हैं कि वो कोई स्वचालित मशीनरी नहीं है, वो अपनी मर्जी से चलने वाली कोई दैवी शक्ति नहीं है! सिस्टम हवा में नहीं बनता, उसे तैयार किया जाता है और वो एक खास नियंत्रण में काम करता है. उसकी बागडोर उन लोगों के हाथ में होती है जो उसके जरिए सरकार और प्रशासनिक व्यवस्था चलाते हैं.

आखिर क्या होता है वो सिस्टम जिस पर अंगुलियां उठाना, उसे चलाने वालों की अपेक्षा, आसान होता है. क्या उसका मतलब विभिन्न सरकारी सेवाओं, मंत्रालयों, विभागों और तमाम बुनियादी ढांचे से होता है.  मिसाल के लिए कोविड-19 महामारी में ढिलाई को लेकर कौनसा सिस्टम खराब बताएंगें. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण का, और उसके तहत आने वाले तमाम सब-सिस्टम्स का जैसे चिकित्सा, हाईजीन, पोषण, दवा, उपकरण, अस्पताल, डॉक्टर, नर्सिंग स्टाफ, कर्मचारी, एम्बुलेन्स आदि का या मानव संसाधन,  पर्यावरण का सिस्टम या वित्त और वाणिज्य  का सिस्टम, या गृह मामलों का सिस्टम. एक बड़े सिस्टम के भीतर न सिर्फ उसके सब-सिस्टम होते हैं बल्कि उन सबकी भी कई परतें होती हैं और हिस्से. जिसे कुल मिलाकर सरकारी मशीनरी कहा जाता है. 

Indien Corona-Situation | Guwahati
मई 2021: गोवाहाटी नगर पालिका के कर्मचारी दिन भर कोविड से मरने वालों की लाशें उठाने के बाद खुद निढ़ाल पड़े हुए तस्वीर: David Talukdar/NurPhoto/imago images

सिस्टम इसी मल्टी-लेयर्ड मशीनरी का एक केंद्रीय पुर्जा है, उसे चलाने वाला स्टीयरिंग कह लीजिए. इसीलिए जाहिर है कि ये अपने आप नहीं चलता और स्वतःस्फूर्त ढंग से काम नहीं करता. इसे चलाने वाले हाथ हैं, दिमाग हैं और एक भरीपूरी नौकरशाही और राजनीतिक नेतृत्व है. वो व्यक्तियों से चलता है- वे व्यक्ति जो सरकार और प्रशासन का हिस्सा हैं. उनमें प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और उनके मंत्रियों, डिप्टी मंत्रियों से लेकर सचिव अधिकारी- एक समूची और भरीपूरी कार्यपालिका होती है. आम लोग कार्यपालिका के विभिन्न पदों पर बैठे व्यक्तियों को छोड़, एक अमूर्त सी संज्ञा पर ही अपना आक्रोश अभिव्यक्त करने लगते हैं. सिस्टम पर भड़ास निकालकर उन्हें लगता है कि वे प्रतीकात्मक रूप से सत्ता राजनीति के कान उमेठ चुके या उसे खबरदार कर चुके. लेकिन ये भी ध्यान रहे कि बाज मौके ऐसे होते हैं जहां सिस्टम को कोसने का मतलब उसे निर्मित, संचालित और नियंत्रित करने वाले व्यक्तियों को सीधे सीधे आरोपों से बचाना है और एक ऐसी बंद कोठरी में चीखने की तरह है जिसे कोई सुनने वाला नहीं और जहां अपनी आवाज ही लौट कर आ जाती है जिसे ये कहकर धीरे धीरे भुला दिया जाता है कि सिस्टम न सिर्फ ढीठ है बल्कि बहरा भी है.

अगर टीकाकरण में आज चिंता, असमंजस, अफरातफरी और कमी के हालात बने तो क्या ये सरकार और उसे चलाने वाले राजनीतिक नेतृत्व का दोष नहीं है? उन्हें साफतौर पर आलोचना के दायरे में न रखकर सिस्टम की बखिया उधेड़ने वाले ‘साहसी' और ‘निष्पक्ष' आलोचक भी एक तरह से उनकी सुरक्षा दीवार जैसे होते हैं. उन तक आंच न आए इसलिए ये अमूर्तता के आलोचक हरकत में आ जाते हैं. कुछ इस तरह कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे!  पीने का साफ पानी न मिल पाना, शौचालय न बन पाना, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर स्कूलों तक की जर्जरता का बने रहना, जंगलों का कटते जाना, और बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण, बीमारी क्या सिर्फ सिस्टम की लंबे समय से चली आ रही कमजोरियां हैं या उसे बनाने और चलाने वाली सरकारों की नीतिगत और रणनीतिक नाकामियां भी हैं.

क्या सिस्टम ही था जो तबाही को ऐन दरवाजे पर खड़ा नही देख पाया! वही था जो अस्पतालों में बेड से लेकर ऑक्सीजन, दवाओं से लेकर वेंटिलेटर तक मुहैया नहीं करा सका! पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन नहीं उपलब्ध करा सका! शवों को दफना सकने के लिए कब्रिस्तान, न जलाने के लिए शमशान! - सिस्टम ही हर चीज में पिछड़ता रहा जबकि नेता तो तड़पता रहा! महामारी जैसे अभूतपूर्व, असाधारण और अप्रत्याशित समय में धैर्य और विवेक का जज्बा बनाए रखने के साथ साथ सही जगह सही सवाल पूछने का साहस भी रखना चाहिए. लोकतंत्र में बतौर नागरिक इसे अधिकार ही नहीं फर्ज भी कह सकते हैं.